दान चेतना

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इस ऐतिहासिक महान धर्म यज्ञ में अपनी ओर से आहुति डालते हुए पुरातन भारत की दान देने की शुद्ध चेतना भी समझ लेनी चाहिए। प्राचीन भारत में शुद्ध धर्म के क्षेत्र में दान की परंपरा अत्यंत पवित्र और सात्विक होती थी। उसी पवित्रता की पुनर्स्थापना से देश की गौरव-गरिमा भी बढ़ेगी और लोक -कल्याण भी होगा।
पुरातन परंपरा के अनुसार जब एक भिक्षु नगर में गोचरी के लिए निकलता था तो हाथ में भिक्षा-पात्र लिए हुए, नजर नीची किए हुए, मौन रह कर क्रमशः एक-एक गृहस्थ के घर के सामने लगभग एक-एक मिनट रुकता हुआ चारिका करता था। न वह 'भिक्षाम् देहि' की आवाज लगाता था और न ही ‘भूखा हूं - बाबा रोटी दो, माई रोटी दो' की रट लगाता था।
पुरातन भारत में कोई भिक्षु भिक्षुक' नहीं होता था। विपश्यना द्वारा भव संसरण के दुःखों का भेदन करता था इसलिए भिक्खु कहलाता था। भिन्दति दुक्खं ति भिक्खु। वह केवल भीख मांगने के लिए चारिका नहीं करता था बल्कि धर्म की शुद्ध परंपरा के अनुसार वह गृहस्थ को पुण्यजनक दान देने का अवसर प्रदान करने के लिए उसके घर के सामने रुक तथा मिनट भर तक घर में से कोई बाहर न निकले तो प्रसन्नचित्त से उनकी मंगल कामना करते हुए आगे बढ़ जाता था। कोई बाहर आकर उसके पात्र में भोजन डाले तो उसकी भी मंगल कामना करते हुए आगे निकल जाता था। अक्सर होता यह था कि भिक्षुओं की चारिका के समय गृहस्थ अपने-अपने घर के सामने उत्सुक तापूर्वक उनकी प्रतीक्षा किया करते थे, जैसे कि पड़ोसी देशों में आज भी होता है।

धर्मवान गृहस्थ भोजन प्रदान कर सकने का अवसर दिए जाने के कारण भिक्षु का आभार मानता था। इस पावन प्रथा के कारण न भिक्षु के मन में भिखारी की-सी हीन भावना जागती थी और न ही गृहस्थ के मन में कोई अहंकार जागता था। दान लेना और देना दोनों निर्मल निष्कलंक रहते थे। धर्म से परिपूर्ण रहते थे।

सद्धर्म से संबंधित सभी दान इसी शुद्धता से दिये जाने चाहिए। पहले तो मन में यह चेतना जागनी चाहिए कि जिस योजना के लिए मैं दान दे रहा हूं उसके पूर्ण होने पर आज के ही हजारों लाखों लोग नहीं बल्कि सदियों तक भावी पीढियों के भी अनगिनत लोग विपश्यना की ओर आकर्षित होंगे और इस प्रकार इस दान की जड़ें सदियों तक हरी रहेंगी और फलदायी बनी रहेंगी। मेरा सौभाग्य है कि मुझे इस दीर्घकालीन फलदायी पुण्य अर्जन का अवसर प्राप्त हो रहा है। जो विपश्यी दानी हैं उनके मन में यह दूसरी शुभ चेतना जागनी चाहिए कि हमारे दादागुरु यह कल्याणकारी विद्या भारत न भेजते तो मुझे यह कैसे मिलती ? कैसे मेरा कल्याण होता? अतः इस वृहद् योजना में अपनी शक्ति सामर्थ्यानुसार थोड़ा या बहुत जो भी सहयोग दे रहा हूं, वह उन महान संत सयाजी ऊ बा खिन के प्रति यत्किंचित कृतज्ञता ज्ञापन मात्र है, इस उद्देश्य से कि भारत में तथा विश्व में कल्याणी विपश्यना द्वारा लोक कल्याण का पुण्यकार्य लंबे अरसे तक गतिमान रहे और सर्वलोक मंगल की उनकी धर्मकामना पूर्ण हो! इस धर्म चेतना से दिया हुआ कोई भी सहयोग सचमुच महापुण्यफलदायी होगा।

भारत अपनी पुरातन गौरव-गरिमा के साथ पुनः जागे, विपश्यना विधा की शिरोमणि को शिरोधार्य कर विश्व के जन-जन को शांति अहिंसा का यह प्रयोगात्मक प्रशिक्षण बांटे, जिससे कि सारे विश्व का मंगल हो! कल्याण हो!

कल्याणमित्र
सत्यनारायण गोयन्का.
जून 1998 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित