एक विकट परिस्थिति


बर्मा से भारत आकर विपश्यना का धर्मरत्न बांटने लगा तो दूसरे वर्ष में ही ऐसा संयोग हुआ कि पश्चिमी देशों की अनेक युवतियां और युवक शिविरों में सम्मिलित होने लगे । वह हिप्पी युग था। उनकी वेशभूषा, उनका रहन-सहन, उनका जीवन व्यवहार, उनका दूषित चारित्र्य गंदगी ही गंदगी से भरा होता था। अपने-अपने देश में सांसारिक संपदाओं का उपभोग करके अब वे भारत की ओर उन्मुख हुए थे। उन्हें आध्यात्मिक सुख की खोज थी। सुना था कि भारत तो प्राचीन समय से अध्यात्म का केंद्र रहा है। वहां ऐसी ध्यान साधना सिखायी जाती है, जिससे मानस असीम आनंद के सागर में समा जाता है। इसी की खोज में वे भिन्न-भिन्न परंपराओं के साधु-संन्यासियों के आश्रमों में जाते रहे। कहीं कुछ मिला, कहीं कुछ नहीं मिला।

विपश्यना के शिविरों में भी कुछ लोग आए। उनके कारण हिप्पी समाज में यह बात फैलने लगी कि उनकी खोज विपश्यना में ही पूरी हो सकती है। अन्यत्र नहीं। काल्पनिक मान्यताओं के अंधविश्वास से पूर्णतया उन्मुक्त, सर्वथा वैज्ञानिक, नितांत बुद्धिसंगत और आशुफलदायिनी होने के कारण विपश्यना ने उन्हें चुंबक की तरह खैंच लिया। दस-बीस आते-आते सैंकड़ों की संख्या में आने लगे। वे उन्मुक्त नशे-पते का और स्वच्छन्द मैथुन का सुदृढ़ स्वभाव लिए आते, परंतु जैसे-जैसे विपश्यना के पथ पर आगे बढ़ते, इन दोनों गंदगियों से सहज ही बाहर निकलने लगते। अत्यंत साफ-सुथरा निर्मल और शांतिप्रद सच्चरित्र जीवन जीने लगते। वे जो ढूंढ रहे थे, उसे प्राप्त कर अपने-अपने देश में लौट कर जाते तो उनके स्वजन परिजन ईष्टमित्र और स्नेहसंबंधी उनमें आये हुए सुखद बदलाव को देख कर बड़े प्रसन्न होते । जिस विद्या से उनमें इतना सुखद परिवर्तन आया, उसे वे भी सीखना चाहते । परंतु उन सब के लिए भारत आना सरल नहीं था।
यद्यपि विश्व के लगभग अस्सी देशों के हजारों लोग भारत आकर विपश्यना का लाभ ले चुके थे, तथापि उनसे कई गुणा अधिक लोग चाहते हुए भी इससे वंचित थे। अतः मेरे विपश्यी साधकों द्वारा मुझ पर बहुत दबाव पड़ने लगा कि मैं उनके देश जा कर धर्मचारिका करूं । लेकिन मज़बूरी थी। बरमी सरकार ने कृपा करके मुझे जो पासपोर्ट दिया था, उसमें केवल एक मात्र भारत देश जाने की ही अनुमति थी। अन्य देशों की यात्रा करने की छूट नहीं थी। अतः मैंने उन दिनों की बरमी सरकार को सारी स्थिति समझाते हुए अन्य देशों में जा सकने की मंजूरी प्राप्त करने के लिए आवेदनपत्र चढ़ाया। परंतु स्थानीय बरमी दूतावास ने उसे आगे भेजा ही नहीं। क्योंकि मेरी यह मांग सरकारी नीति के बिल्कुल विरुद्ध थी। जिस व्यक्ति को जिस देश में जाने के लिए पासपोर्ट दिया जाय, वह केवल उसी देश में जाय । अन्य किसी देश में नहीं। यह उन दिनों की बर्मी सरकार का निश्चित नियम था। मेरे लिए दुबिधा खड़ी हुई। मैंने अपने मित्र पूर्व विदेशमंत्री ऊ ति हान को सारी स्थिति समझायी। उस समय तक मेरा दूसरा मित्र कर्नल मौं मौं खा देश का प्रधानमंत्री बन चुका था। ऊ ति हान ने मुझे परामर्श दिया कि मैं इस बारे में उसे सीधे अपील भेजूं। मैंने ऐसा ही किया, पर कोई उत्तर नहीं आया। मालूम हुआ कि ऊ ति हान को कर्नल मौं मौं खा ने अपनी असमर्थता प्रकट की। सरकारी पालिसी के विरुद्ध वह कोई कार्यवाही नहीं कर सकता था। मुझे बड़ी निराशा हुई। मुझ पर न केवल विदेशी साधकों का बहुत बड़ा दबाव था, बल्कि पूज्य गुरुदेव का भी स्पष्ट आदेश था कि भारत में लोगों द्वारा स्वीकृत हो जाने पर विपश्यना को सारे विश्व में फैलाना है। एतदर्थ मुझे विपश्यना के प्रसार के लिए विश्व भर में धर्मचारिका करनी ही होगी। परंतु करूं कैसे?
केवल एक ही विकल्प सामने था कि मैं बरमी नागरिकता छोड़ कर भारत की नागरिकता ले लूं । भारत सरकार अपने नागरिक को जो पासपोर्ट देती है उसमें विश्व के सभी देशों में जाने की अनुमति होती है। कोई प्रतिबंध नहीं होता। लेकिन मैं नहीं चाहता था कि नागरिकता बदलूं। यह विद्या बर्मा ने सदियों से संभाल कर रखी थी। वहीं से भारत आयी। यदि बर्मा की ओर से ही सारे विश्व में जाय तो सारा श्रेय मेरी मातृभूमि को मिले। मैं बर्मी नागरिक के रूप में ही विश्व में धर्मचारिका किया चाहता था। यह बात मने अपने मित्र ऊति हान तक पहुंचाई तो उसने परामर्श दिया कि वर्तमान नीति के कारण बर्मी सरकार से कोई आशा नहीं करनी चाहिए। लेकिन तुम्हारे पास धर्म का प्रभूत बल है। तुमने धर्म की प्रभूत सेवा की है। तुम क्यों नहीं धर्म का अधिष्ठान करते, सत्यक्रिया करते, जिससे कि तुम्हारे लिए विश्व में धर्मचारिका करने का मार्ग खुल जाय। सारे व्यवधान दूर हो जायँ ।

उसका परामर्श पाकर मैंने यही किया। एक ओर भारत सरकार को भारतीय नागरिकता के लिए आवेदनपत्र चढ़ाया, दूसरी ओर बरमी सरकार से फिर अपील की और मन में यह संकल्प किया कि भारत में मेरी धर्मचारिका के दस वर्ष पूरे होने पर या तो बर्मी सरकार मुझे अन्य देशों में जाने की अनुमति दे अथवा भारत सरकार मुझे भारत की नागरिकता और पासपोर्ट दे, जिससे कि मैं गुरुदेव की धर्मकामना पूरी कर सकू और अपने हजारों धर्मसाधकों के परिजनों और मित्रों को धर्मदान देकर उन्हें कृतार्थ कर सकू।
इस धर्म अधिष्ठान की सफलता पर मुझे पूर्ण विश्वास था । 22 जून 1969 को में बर्मा से भारत आया था, अत: 22 जून 1969 तक मुझे विदेश जाने के लिए दोनों में से किसी एक सरकार की अनुमति अवश्य मिल जायगी। इस दृढ़ विश्वास के बल पर 1 जुलाई 1969 के दिन फ्रांस में एक शिविर लगाने के लिए साधकों को अपनी स्वीकृति दे दी। लेकिन दिन-पर-दिन बीतते गये । न बरमी सरकार से अनुमति आने की कोई आशा रही और न भारत सरकार ही मेरे आवेदनपत्र पर कोई निर्णय कर पा रही थी। न जाने उनके लिए क्या कठिनाई थी?
किसी परिचित अधिकारी ने मुझे सरकारी कठिनाई से अवगत कराया। उसने बताया कि यह जो मैं विपश्यना सिखाने के लिए निःस्वार्थभाव से निःशुल्क शिविर लगा रहा हूं इसे देख कर भारतीय पुलिस के जांच विभाग के मन में एक संदेह जागा। भारत में बसे मेरे दो भाई और भतीजे आनंदमार्ग की संस्था के साथ बहुत गहराई से जुड़े हुए थे। सरकार आनंदमार्ग के प्रति शंकालु थी। भले इसका कोई पुष्ट प्रमाण नहीं था, परंतु सरकार की यह मान्यता थी कि यह एक राजद्रोही संस्था है। अतः मेरे बारे में सरकार को यह संदेह हुआ कि मैं इस संस्था से आर्थिक सहयोग प्राप्त कर प्रच्छन्न रूप से आनंदमार्ग का प्रचार कर रहा हूं। उन्होंने एक-एक करके अनेक शिविरों में अपने गुप्तचर भेजे । केवल यह जानने के लिए कि मेरे विपश्यना शिविरों का आनंदमार्ग से क्या संबंध है ? पता नहीं इन गुप्तचरों ने क्या रिपोर्ट दी? विश्वास करता हूं ठीक ही दी होगी। पर जांच का सिलसिला बंद नहीं हुआ, चलता ही रहा ।
एक शिविर में जांच के लिए जो जांच अधिकारी आया था, शिविर के अंत में उसने अत्यंत भावुक हो कर कहा कि आप की धर्मसेवा नितांत निर्मल है, निःस्वार्थ है, राजनीतिक उद्देश्यों से सर्वथा उन्मुक्त है। सभी गुप्तचरों ने यही रिपोर्ट दी है। परंतु हमारे उच्च अधिकारी इससे सहमत नहीं हैं। उन्हें यह विश्वास नहीं हो रहा है कि बिना पारिश्रमिक लिये कोई व्यक्ति इतना परिश्रम क्यों कर रहा है? इसलिए पुनः जांच करने के लिए मुझे भेजा है। मैंने जो सच्चाई देखी है वही उन्हें सूचित करूंगा। आप का काम बिल्कुल निर्दोष है। आप जो विद्या सिखा रहे हैं उसका आनंद मार्ग से कोई संबंध नहीं है। मैंने गुप्तचर के रूप में आनंदमार्ग की साधना की भी जांच की है। मैंने इन दोनों में कोई तालमेल नहीं पाया। अपने कथनानुसार उस गुप्तचर अधिकारी ने अवश्य ही अच्छी रिपोर्ट चढ़ाई होगी, लेकिन फिर भी जांच की फाइल बंद नहीं हुई। मैं धर्मसंकट में पड़ा, क्योंकि मैंने फ्रांस में निश्चित समय पर दो शिविर लगाने की स्वीकृति दे दी थी। पहला शिविर एक अत्यंत कीमती युवा क्लब में लगना निश्चित था। मुझे आमंत्रित करने वाले साधकों ने बहुत-सा धन एडवांस में जमा देकर उसे बुक कर लिया था। मैं नहीं पहुँचूंगा तो उन्हें बहुत आर्थिक क्षति होगी और धर्म के प्रति उनका विश्वास भी उठ जायगा ।
ऐसी विकट परिस्थिति में धर्म ने आश्चर्यजनक ढंग से काम किया। मेरे पुत्र मुरारी की धर्मपत्नी वत्सला अपने पितामह श्री राधेश्याम मुरारका के पास गयी। उनके सामने सारी समस्या रखी। उन्होंने स्थिति की गंभीरता को समझा और आश्वासन दिया कि वे यह काम करवा देंगे। वे तुरंत नई दिल्ली गये, जहां उन दिनों श्री मुरारजी देसाई प्रधानमंत्री थे। वे श्री मुरारकाजी के घनिष्ट मित्र थे। श्री मुरारकाजी ने उनके सामने सारी स्थिति प्रकट की और शीघ्र निर्णय लेने का आग्रह किया। श्री मुरारजी ने उनके सामने ही तुरंत संबंधित फाइल मँगाई। उसे देख कर कहा कि जांच की रिपोर्टों में इस व्यक्ति के प्रति देश-विरोधी कार्यवाही करने का कोई भी प्रमाण नहीं पाया गया है और न ही आनंदमार्ग से जुड़ने का कोई सबूत है। परंतु फाइल इसलिए बंद नहीं की गयी है कि कौन जाने आगे जाकर पता चले कि इस व्यक्ति का कोई दूषित राजनैतिक मंतव्य है। अतः कुछ वर्षों तक इंतजार करना चाहिए। जांच कायम रखनी चाहिए। इस पर श्री मुरारकाजी ने अपने मित्र श्री मुरारजी भाई को कहा कि क्या तुम्हारे गुप्तचर मुझसे अधिक जांच कर पायेंगे? तुम्हें मालूम होना चाहिए कि मैंने इस व्यक्ति के पुत्र को अपनी पौत्री विवाह में दी है। क्या बिना जांचे ही दी है? श्री मुरारजी यह सुन कर निरुत्तर हो गये। तुरंत फाइल बंद करने का आदेश लिख दिया। इस पर श्री मुरारकाजी ने कहा कि सरकारी महकमा किस मंथर गति से चलता है यह न आप से अपरिचित है, न मुझसे । मेरे संबंधी को दो-चार दिनों के भीतर ही विदेश जाना है, जिसके लिए कि यह अनुवद्ध हो चुका है। श्री मुरारजी भाई को स्थिति की गंभीरता समझ में आयी और उन्होंने मुंबई अरजेंट आदेश भेजा कि मुझे तुरंत भारतीय नागरिकता दी जाय और साथ-साथ पासपोर्ट भी ।
शासनतंत्र में यह अनोखी अनहोनी बात थी। लेकिन पूज्य गुरुदेव की महिमा से, उनकी करुणा और मैत्री से मुझे दो दिन के भीतर ही नागरिकता भी मिली और पासपोर्ट भी। तुरंत फ्रांस का वीसा भी मिला और मैं शिविर लगाने के लिए ठीक समय पर फ्रांस पहुँच गया। धर्म के अधिष्ठान ने अपना काम किया।
कल्याणमित्र
सत्य नारायण गोयन्का
धन्य बाबा! (आत्म-कथन) पुस्तक में प्रकाशित