चार्वाक एवं बुद्ध


चार्वाक नितांत इहलौकिक सुखवादी था। वह नहीं मानता था कि मरने के बाद पुनर्जन्म होता है, अत: इस जन्म के सत्कर्म के सत्फल और दुष्कर्म के दुष्फल भोगने के लिए न कोई स्वर्ग है न नरक । जीवन की पूर्ण अवधि जन्म से मृत्यु तक ही है। अत: इस अवधि में छल-प्रवंचना करके भी जितना ऐन्द्रिय सुख भोग सकें उतना भोग लेना चाहिए। इसी में समझदारी है।
“यावज्जीवं सुखं जीवेन्नास्ति मृत्योरगोचरः।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः॥”
- जब तक जीवन रहे, सुख से जीना चाहिए क्योंकि मृत्यु से कोई नहीं बच पाता। मरने पर जिस शरीर को जला कर भस्म कर दिया गया उसका पुनरागमन यानी पुनर्जन्म कैसे होगा ? ऐसे ही अपने सुखभोग के लिए किसी को ठगने में कोई दोष नहीं, क्योंकि दुष्कर्म का कोई दुष्फल ही नहीं होता। - भगवान बुद्ध के समय भी उच्छेदवादी मत-मतांतर के कुछ ऐसे लोग थे जो पाप-पुण्य को नहीं मानते थे। जैसे पूर्ण काश्यप का मत था कि चाहे जितनी हिंसा करो, मांस का ढेर लगा दो, उसका कोई दुष्फल नहीं। न कोई दुष्कर्म है न कोई सत्कर्म। जो किया वह यहीं समाप्त हो गया।
ऐसे ही अजित केशकंबल का मत था कि सब आते हैं और मर कर (पंचतत्वों में विलीन हो जाते हैं। न कोई पाप है न पुण्य।
यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत् ।
जब तक जीवन है मौज-मजे कर लो। पीये तो घृत ही चाहे ऋण करके ही क्यों न पीये। इनका कोई पाप या पुण्य नहीं।
एक और मान्यता चलती थी कि शरीर तो नश्वर है परंतु आत्मा अमर है। इसलिए शरीर भले नष्ट हो जाय, आत्मा नया शरीर धारण कर लेती है। इसलिए प्राणिहिंसा का कोई पाप-पुण्य नहीं होता।
यही बात गीता में श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को कही गयी कि आत्मा अमर है, केवल शरीर मरता है। आत्मा का कुछ नहीं बिगड़ता। युद्ध में अपने सगे-संबंधियों को भी मारने से कोई पाप नहीं लगता। शरीर मर गया। आत्मा उसके बदले नये शरीर में चली गयी। क्योंकि आत्मा अमर है। जैसे नये कपड़े मिल गये, कपड़ा बदल लिया। परंतु हिंसा को मैं सदैव बुरा ही मानता रहा।
आस्तिक-नास्तिक
"मूर्ख हो या पंडित, शरीर के नष्ट होते ही उच्छेद को प्राप्त हो जाते हैं। मरने के बाद कोई नहीं रहता। आस्तिकवाद झूठा है।"
“न पुण्य या पाप का अच्छा या बुरा फल होता है, न लोक है न परलोक है। मूर्ख लोग जो दान देते हैं उसका कोई फल नहीं है।...”
ऐसे लोग नास्तिक कहलाते थे और भगवान बुद्ध थे परम आस्तिक।
उन दिनों के भारत में कर्म और कर्मफल के नैसर्गिक नियमों के अस्तित्व को स्वीकारने वाला आस्तिक और नकारने वाला नास्तिक माना जाता था। बुद्ध इन नास्तिकों की मिथ्या मान्यताओं को सर्वथा गलत 'बताते थे। वे लोक-परलोक के अस्तित्व की जानते और मानते थे। कर्मों के अनुकूल फल की प्राप्ति के सनातन, नैसर्गिक नियमों को जानते और मानते थे। यही लोगों को सिखाते थे। उनकी शिक्षा थीपापकर्मों से बचो, सत्कर्मों में लगो। गृही हो या गृहत्यागी, सबके लिए उनका यही मंगल उपदेश था। इस कारण वे परम आस्तिक शास्ता थे। मध्ययुग में जब पारस्परिक विग्रह-विवाद हुए तब दूषित चित से नास्तिक चार्वाक और आस्तिक बुद्ध को एक श्रेणी में बैठा दिया गया।
कर्म और कर्मफल के सिद्धांतों का विरोधी होने के कारण चार्वाक कामभोग संबंधी दुराचरण का हिमायती था। उसकी मान्यता थी—
“अङ्गनाद्यालिङ्गनादिजन्यं सुखमेव पुरुषार्थः।।
- सुंदर अंगों वाली स्त्रियों के आलिंगन का सुख भोगना ही पुरुषार्थ है। यानी, इसी में पुरुष के जीवन की सार्थकता है। पुरुष के जीवन का अन्य कोई अर्थ नहीं।
कहां ऐसे उन्मुक्त कामभोग का प्रचारक चार्वाक और कहां न केवल स्वयं ब्रह्मचर्य का जीवन जीने वाले बल्कि साधकों को सहज ब्रह्मचर्य का जीवन जी सकने की कल्याणी विपश्यना विद्या सिखाने वाले बुद्ध! इन दोनों को एक कोष्ठक में रखना कितना अनुचित हुआ!
ब्रह्मचर्य का पालन
बोधिसत्व की संबोधि में बाधा डालने में जब मार असफल हो गया तब उसकी तीन सुंदरी पुत्रियां बोधिसत्व के मन में काम-वासना जगाने के लिए प्रयत्नशील हुई, परंतु वे भी नितांत निष्फल हुई। संबुद्ध बनने के बाद तो काम-भोग की वासना जागनी सर्वथा असंभव हो गयी।
एक घटना
मागन्धीय
ब्राह्मण मागन्धीय की अनिंद्य सुंदरी सुवर्णवर्णा कन्या मागन्धीया विवाह योग्य हो गयी थी। पिता उसका विवाह उसी के अनुरूप सर्वांग सुंदर सुवर्णवर्ण पुरुष से करना चाहता था। परंतु ऐसा रूपवान व्यक्ति उसे न ब्राह्मण समाज में मिला और न राजन्य समाज में। अकस्मात उसने भगवान बुद्ध को देखा और उनकी अति सुंदर रूपकाया में उसे अपनी पुत्री के लिए मनचाहा वर दिखने लगा। अपनी पुत्री का हाथ भगवान को सौंपने के लिए वह अधीर हो उठा। तुरंत घर जाकर सोलह श्रृंगार से सजी हुई अपनी सुंदरी पुत्री को साथ ले आया
और उसे स्वीकार करने के लिए भगवान से आग्रह करने लगा। परंतु भगवान ने उसे तत्काल अस्वीकार किया। बुद्ध जैसे गृहत्यागी ब्रह्मचारी उसके प्रस्ताव को कैसे स्वीकार करते! देश के धनीमानी और ऐश्वर्यशाली क्षत्रिय व ब्राह्मण जिसे प्राप्त करने में अपना सौभाग्य समझते थे उस कन्यारत्न को बुद्ध द्वारा अस्वीकृत किया जाना ब्राह्मण मागन्धीय के लिए आश्चर्यजनक घटना थी।
बुद्ध का तो कहना ही क्या? उनके भिक्ष शिष्य भी ब्रह्मचर्य का व्रत लेते हैं और उसका दृढ़तापूर्वक पालन करते हैं
अब्रह्मचरिया वेरमणी-सिक्खापदं समादियामि।
मैं अब्रह्मचर्य से विरत रहने के शिक्षापद को ग्रहण करता हूं।-खुद्दकपाठ २.३
वे ही नहीं, साधारण गृहस्थ भी जब पांच शील लेता है तो उनमें से एक होता है
कामेसुमिच्छाचारा वेरमणि सिक्खापदं समादियामि।
- मैं काम संबंधी मिथ्याचरण, यानी, व्यभिचार से विरत रहने के शिक्षापद को ग्रहण करता हूं।-- दीघनिकाय 1.130
उनमें से लगभग सभी उसका पालन करते हैं। कुछ एक ऐसे भी होते हैं जो विपश्यना विद्या के गहन अभ्यास से सहज ब्रह्मचर्य की अवस्था तक पहुँच | जाते हैं। ऐसे बुद्ध और उनके अनुयायियों को चार्वाक जैसे स्वेच्छाचार के प्रचारक की श्रेणी में बैठाना कितना गलत हुआ! भगवान बुद्ध की मूल वाणी और विपश्यना विद्या उपलब्ध होती तो ऐसी भूल कैसे होती?
___ इसीलिए भगवान बुद्ध की शिक्षा का मेरे मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। पाप-पुण्य के ऐसे मिथ्या भाव मेरे मन से सदा के लिए निकल गये। जीवन सुखी हो गया।
अपरिवर्तनीय
क्या बुद्ध की शिक्षा में केवल परिवर्तनशील अवस्था का ही दर्शन है? क्या उसमें अपरिवर्तनीय कुछ भी नहीं है?
बुद्ध के प्रति यह एक नितांत निराधार लांछन लगाया जाता रहा है कि उनकी मान्यता में सब कुछ भंगुर ही भंगुर है, अपरिवर्तनीय कुछ भी नहीं है। सदियों से हमारे देशवासियों के मानस पर इस मिथ्या आरोपण के कितने गहरे लेप लगाये गये हैं। अनेक लोग बुद्ध पर जैसे दु:खवादी होने का, वैसे ही अनित्यवादी होने का लांछन लगाकर आज भी विपश्यना का विरोध करते हैं। अनेक लोगों के मन में यह गहरी भ्रांति है कि विपश्यना साधना का एकमात्र लक्ष्य अनित्य का ध्यान है। परंतु जो साधना करते हैं वे खूब समझने लगते हैं कि शरीर और चित्त तथा समस्त ऐन्द्रिय क्षेत्र की अनित्यता का अनुभव इसलिए कर रहे हैं जिससे इनके प्रति जागा हुआ तादात्म्यभाव दूर हो। तादात्म्यभाव बना रहता है तो राग या द्वेष जागता है। साधक स्वानुभूति के स्तर पर यह जानने लगता है कि यह शरीर और चित 'मैं' नहीं, 'मेरा' नहीं, ‘मेरी आत्मा' नहीं। स्वानुभूति द्वारा इस सच्चाई में जितना-जितना पुष्ट होता जाता है, उतना-उतना इनके प्रति उसका तादात्म्यभाव नष्ट होता है। देहात्म और चित्तात्म बुद्धि नष्ट होती है, परिणामत: इनके प्रति राग और द्वेष टूटते हैं। साधना करते हुए यद्यपि स्वानुभव से समझने लगता है कि जो अनित्य है, उसके प्रति क्या राग जगाऊँ? क्या आसक्ति जगाऊँ? परंतु पुराने स्वभाव के वशीभूत होकर यदा-कदा किसी सुखद अनुभूति पर आसक्ति जगा लेने की भूल कर बैठता है। कुछ समय पश्चात जब वह सुखद संवेदना बदल जाती है तब उसके प्रति जितनी गहरी आसक्ति थी उतना गहरा दु:ख प्रकट होता है। इस सत्य को भी बार-बार अनुभूति पर उतारते-उतारते आसक्तियां स्वत: नष्ट होती हैं। नया राग और द्वेष जागता नहीं और पुराने क्षीण होने लगते हैं
खीणं पुराणं नव नत्थि सम्भव।-सुत्तनिपात 238
तब अंतत: ऐसी अवस्था उत्पन्न होती है जबकि शरीर और चित्त के अनित्य क्षेत्र का अतिक्रमण करके इंद्रियातीत नित्य, ध्रुव, शाश्वत निर्वाण का साक्षात्कार होता है। साधक स्पष्टतया समझता रहता है कि समस्त ऐन्द्रिय क्षेत्र अनित्यधर्मा है, विपरिणामधर्मा है, भंगुरधर्मा है। इस सच्चाई को अनुभूति पर उतारते हुए अपरिवर्तनीय नित्य 'निर्वाण' के प्रत्यक्षीकरण के लिए साधना की जा रही है। विपश्यना साधना का यही अंतिम लक्ष्य है।
अत: स्पष्ट है कि भगवान की शिक्षा में अनित्य का दर्शन उससे छुटकारा पाने के लिए है। दु:ख का दर्शन उससे छुटकारा पाने के लिए है। शरीर और चित्त के प्रति अनात्मभाव का दर्शन उससे छुटकारा पाने के लिए है ताकि नित्य, शाश्वत, ध्रुव, अपरिणामी का साक्षात्कार हो सके। 'अनित्य दर्शन' की कोई परिपाटी पूरी करने के उद्देश्य मात्र से अनित्य का दर्शन नहीं किया जा रहा। लक्ष्य उस नित्य के दर्शन का है जहां न कुछ उदय होता है न व्यय, जहां न जन्म है न मृत्यु, जो अजात है, अमृत है, निर्वाण है। ...
स० ना गोयन्का
(आत्म कथन भाग 2 से साभार) June -2019
क्रमशः....