स्वामी विवेकानंदजी का मेरे जीवन पर विपुल प्रभाव





स्वामी विवेकानंदजी सदैव मेरे श्रद्धाभाजन रहे हैं। युद्धोतर म्यंमा में रंगून की श्रीरामकृष्ण मिशन सोसायटी और श्रीरामकृष्ण मिशन सेवाश्रम में अपनी सक्रिय सेवा देते हुए वहां के विद्वान और चरित्रवान, करुणहृदय
और सेवाभावी संन्यासियों के साथ काम करने का और उनके सत्संग का बहुत लाभ मिला। उनसे ही स्वामी विवेकानंदजी के आकर्षक व्यक्तित्व और प्रभावशाली कर्तृत्व की महती जानकारी प्राप्त हुई जिससे मुझे प्रभूत प्रेरणा मिली।
कुछ वर्षों पूर्व दक्षिण भारत में विपश्यना के शिविर लगाते हुए अपने परिवार के कुछ सदस्यों के साथ कन्याकुमारी की तीर्थयात्रा पर गया। वहां पावन भारत-भूमि के अंतिम दक्षिणी छोर को तीन समुद्रों का जल स्पर्श करते रहता है मानो तीनों सागर मिल कर भारत माता के पांव धोते रहते हैं।
यह वही स्थल है जिसका दर्शन बोधिसत्त्व को बुद्धत्व प्राप्ति के पूर्व की रात अपने विराटकाय बुद्ध स्वरूप के साथ स्वप्न में हुआ था। उन्होंने स्वप्न में देखा कि वे उच्च हिमालय की तकिया बना कर समग्र भारत भूमि पर लेटे हैं और उनके पांव यहीं कन्याकुमारी के तट तक फैले हुए हैं जहां तीन समुद्रों का जल उनका पाद प्रक्षालन कर गौरवान्वित हो रहा है। स्वप्न में यह भी देखा कि उन विशालकाय भगवान बुद्ध का एक हाथ (बंग सागर के तट तक और दूसरा हाथ सिंधु सागर के तट तक फैला है और वहां के सागर की उमंग भरी ऊर्मियां उनके हाथों का प्रक्षालन कर उल्लसित हो रही हैं। यह स्वप्न उस भावी सत्य का पूर्व आभास था कि भगवान की पावन शिक्षा समग्र भारत द्वारा सहर्ष स्वीकृत की जायगी और तदनंतर हिमालय से उत्तर दिशा की ओर तथा इन समुद्री तटों से अन्य सभी दिशाओं की ओर देश-विदेशों में फैलेगी।
यह वही तट है जहां से तैर कर स्वामी विवेकानंदजी सामने के चट्टानी द्वीप पर गये थे और तीन दिनों तक वहीं ध्यान-मग्न रहे थे। किसी भी भारतीय के लिए इस त्रिविध पावन स्थल का भावनात्मक महत्त्व स्वाभाविक है।
भारतीय प्रायद्वीप के इस अंतिम छोर के तट पर तीनों सागरों का स्नेह संगम और तीनों की जल लहरियों का पारस्परिक तटवर्ती क्रीड़ा-किलोल अत्यंत मनोहारी था। हम तट पर बैठे इस अनोखे चित्ताकर्षक दृश्य का आनंद ले रहे थे। इतने में देखा, दो-चार नवयुवक मुस्कराते हुए हमारी ओर चले आ रहे हैं। उन्होंने हमें अभिवादन करके बताया कि वे स्थानीय विवेकानंद केंद्र के कार्यकर्ता हैं। उन्हें हमारे आने की कोई सूचना नहीं थी। परंतु उनमें से एक दो विपश्यी थे। उन्होंने मुझे पहचान लिया। बड़े प्यार और सम्मान के साथ मार्गदर्शन करते हुए उन्होंने हमारी इस अपरिचित, अनजान स्थान की तीर्थ यात्रा को अत्यंत सुखद और सफल बनाया। हम कृतार्थ हुए।
वे हमें एक छोटे जहाज से विवेकानंद चट्टान पर ले गये। वहां का भव्य और कलापूर्ण मंदिर देखा। वहीं भीतर बने एक ध्यान प्रकोष्ठ में ले गये। ऐसी मान्यता है कि यहीं स्वामीजी ने तीन दिन तपस्या की थी। हम भी उस पावन स्थली पर कुछ घंटों तक ध्यान करके अत्यंत सुख-विभोर हुए।
साधना करते हुए मन में यह धर्मकामना अत्यंत सबल होकर जागी कि जैसे सुदूर अतीत में साहसी और त्यागी धर्मदूत भिक्षुओं के माध्यम से भगवान बुद्ध की कल्याणी वाणी और विपश्यना विद्या हिंद महासागर तथा बंग और सिंधु सागर की उत्ताल तरंगों पर सवार होकर देश-विदेशों में फैली, जिस प्रकार निकट भूतकाल में स्वामी विवेकानंदजी के माध्यम से भारत की एक अन्य महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक परंपरा दूर देशों में फैली, वैसे ही अब सर्वजन हितकारिणी विपश्यना विद्या एक बार फिर चारों दिशाओं के छहों महाद्वीपों में फैलेगी और वहां के संतप्त मानवों को सद्धर्म की सुधा-धारा से संतृप्त कर, भव-संसरण के दु:खों से मुक्त करेगी। भारत की पावन भूमि इस द्वितीय बुद्ध शासन काल में एक बार पुनः लोककल्याण करने का गौरव प्राप्त करेगी। निकट दक्षिण में हिंद महासागर से सतत अभिषिक्त मुकुलित कमल सदृश श्रीलंका का धर्मद्वीप, निकट पूर्व में भारत की पुण्य भूमि से सटी हुई मेरी पावन जन्मभूमि बरमा, तथा इनके साथ-साथ समस्त एशियाव्यापी बुद्ध संतति के अन्यान्य धर्म देश इस पुनीत अभियान में सहयोग देकर पुण्यलाभी बनें। इन्हीं मंगल भावनाओं से आप्लावित होकर, अत्यंत प्रसन्न चित्त से हमने अपनी सुदूर दक्षिण की तीर्थयात्रा पूरी की।
मुझे यह भी जान कर अत्यंत प्रसन्नता हुई थी कि स्वामी विवेकानंदजी ने अपने जीवन के कुछ एक अंतिम दिवस बोधगया में बोधिवृक्ष के तले ध्यान करते हए बिताये थे। हम नहीं जानते कि उन्होंने विवेकानंद द्वीप पर, अथवा बोधिवृक्ष के तले कैसी ध्यान साधना की। परंतु इतना स्पष्ट है कि विपश्यना तो नहीं ही की, क्योंकि उस समय तक भारत में विपश्यना का पुनरागमन नहीं हुआ था। भारत अपनी इस पुरातन अनमोल धरोहर से सर्वथा अनभिज्ञ था।
काश! स्वामी विवेकानंदजी जैसे विचक्षण प्रतिभाशाली संत पुरुष को भारत की पुरातन विपश्यना विद्या और साथ-साथ भगवान बुद्ध की मूल वाणी प्राप्त हुई होती तो उसका कितना कल्याणकारी परिणाम होता। उनके मन में भगवान बुद्ध के व्यक्तित्व के प्रति जितनी आस्था और श्रद्धा थी, उतनी ही उनकी शिक्षा के प्रति भी होती। दुर्भाग्य से भारत में सदियों से चले आते हुए मिथ्या प्रचार के कारण उनके मन में जो भ्रांतियां जागीं, वे अवश्य दूर हो जातीं और उस अवस्था में देश तथा विश्व को दी हुई उनकी आध्यात्मिक देन कई गुना अधिक महत्त्वपूर्ण हो पाती। परंतु विपश्यना विद्या और बुद्ध की मूल शिक्षा समय पकने पर ही भारत में पुन: उजागर हो सकी। ऐसा माना जाता है कि पुरातन भारत के एक महान संत ने भविष्यवाणी की थी कि भगवान बुद्ध के 2500 वर्ष पश्चात ही ये दोनों पुन: भारत लौटेंगी, और तभी लौट पायीं। परंतु फिर भी परम पूज्य स्वामी विवेकानंदजी ने भगवान बुद्ध के व्यक्तित्व के प्रति जो असीम श्रद्धा प्रकट की उसके कारण मेरे हृदय में भगवान बुद्ध के प्रति जो भक्तिभाव था, उसका संवर्धन हुआ। मेरा अतुल उपकार हुआ।
भगवान बुद्ध की महानता
ये हैं भगवान बुद्ध के प्रति स्वामी विवेकानंदजी के कुछ एक हृदयोद्गार, जिनके कारण भगवान बुद्ध के प्रति बचपन में मेरे मानस में जो बिरवा रोपा गया था, उसका संजीवनीय अभिसिंचन हुआ। श्रद्धा की जो बुनियाद पड़ी थी वह दृढ़ से दृढ़तर हुई। यथाः--
• एक हजार वर्ष तक जिस विशाल तरंग ने समग्र भारत को सराबोर कर दिया था, उसके सर्वोच्च शिखर पर एक और महामहिम मूर्ति को देखते हैं और वे हमारे शाक्यमुनि गौतम हैं।
• जहां तक चरित्र का सवाल है, बुद्ध संसार के सबसे महान चरित्रवान व्यक्ति थे।
• नैतिकता का इतना बड़ा निर्भीक प्रचारक संसार में और उत्पन्न नहीं हुआ।
• अन्य किसी की अपेक्षा मैं इस चरित्र के प्रति सबसे अधिक श्रद्धा रखता हूं। वह साहस, वह निर्भीकता, वह विराट प्रेम।
• वह बुद्ध था जिसके पास अभीष्ट मस्तिष्क, अभीष्ट शक्ति और विस्तीर्ण आकाश जैसा अभीष्ट हृदय था।
• उनके विशाल हृदय का सहस्रांश पाकर भी मैं स्वयं को धन्य मानता।
• अपने राजपाट और सब प्रकार के सुखों को तिलांजलि देकर इस राजकुमार ने अपना सिंधु-सा विशाल हृदय लेकर नर-नारी तथा जीवजंतुओं के कल्याण हेतु आर्यावर्त की वीथी-वीथी में भ्रमण कर भिक्षावृत्ति
से जीवन निर्वाह करते हुए अपने उपदेशों का प्रचार किया।
• बुद्ध ही एक व्यक्ति थे जो पूर्णतया तथा यथार्थ में निष्काम कहे जा सकते हैं।
• भगवान पूर्णरूप से निष्काम थे। वे कर्मयोग के ज्वलंत आदर्श स्वरूप थे और जिस उच्च अवस्था पर वे पहुँच गये थे, उससे प्रतीत होता है कि कर्मशक्ति द्वारा हम भी उच्चतम आध्यात्मिक स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं।
• उन्हें वह पूर्ण अवस्था प्राप्त हो गयी थी जो अन्यजन भक्ति, ज्ञान या योग के मार्ग से प्राप्त करते हैं।
• केवल निष्काम कर्म ही मनुष्य को पूर्णत्व तक पहुँचा सकता है।
• वह विराट मस्तिष्क कभी अंधविश्वासी नहीं हुआ।
• उन्होंने ईश्वर संबंधी प्रचलित धारणाओं में अंतर्निहित मनोवृत्ति का खंडन किया। उन्होंने देखा कि वे मनुष्य को दुर्बल और अंधविश्वासी बनाती हैं।
• ऐसे अन्य कई महापुरुष थे जो अपने को ईश्वर का अवतार कहते थे और विश्वास दिलाते थे कि जो उनमें श्रद्धा रखेंगे वे स्वर्ग प्राप्त कर सकेंगे। पर बुद्ध के अधरों पर अंतिम क्षण तक यही शब्द थे- “अपनी उन्नति अपने ही प्रयत्न से होगी। अन्य कोई इसमें तुम्हारा सहायक नहीं हो सकता। स्वयं अपनी मुक्ति प्राप्त करो।”
• संसार के समस्त शिक्षकों में वे ही केवल एक ऐसे शिक्षक हैं जिन्होंने हमें स्वावलंबी होने की शिक्षा सबसे अधिक दी। उन्होंने हमें मिथ्या मान्यताओं के बंधन से ही नहीं, वरन ईश्वर या देवता कही जाने वाली अदृश्य शक्ति, सत्ता या सत्ताओं पर निर्भरता से भी मुक्त किया।
• अपनी मुक्ति स्वयं ही निष्पन्न करो।
• हर स्वावलंबी वस्तु सुखी होती है, हर परावलंबी वस्तु दु:खी।
• बुद्ध की शिक्षा में सब मनुष्य बराबर हैं। वहां किसी के साथ कोई रियायत नहीं। बुद्ध समता के महान उपदेष्टा थे।
• उन्होंने पुरोहितों और अन्य जातियों के मध्य अंतर का उन्मूलन कर दिया। निम्नतर लोग भी उच्चतम उपलब्धियों के अधिकारी हैं।
मेरे लिए बुद्ध की महानता निर्विवाद थी। उन्होंने तत्कालीन समाज में फैले हुए अंधविश्वास को दूर किया। लोगों को स्वावलंबी बनाया। समाज में कोढ़ की भांति फैले हुए जाति-पांति पर आधारित ऊंच-नीच के भेदभाव को दूर करने का प्रबल प्रयत्न किया। व्यक्ति-व्यक्ति को अपना मन स्फटिक की भांति निर्मल करना सिखाया। इसी कारण वे विश्ववंद्य हुए, जगतपूजित हुए। इतना कुछ होते हुए भी उनकी शिक्षा में अवश्य कहीं कोई भूल थी, कहीं कोई कमी थी, जिसके कारण स्वामी विवेकानंदजी को कहना पड़ा
.. "अपने सारे जीवन में मैं बुद्ध का अनुरागी रहा हूं, परंतु उनकी शिक्षा का नहीं।"
इन शब्दों के कारण बुद्ध की शिक्षा के प्रति उन दिनों मेरे मन में जो भ्रम भ्रांति थी, वह अधिक प्रगाढ़ हो गयी।
स्वामी विवेकानंदजी की वाणी द्वारा बुद्ध-शिक्षा की जो भूलें और खामियां मेरे मन में घर कर गयीं, वे तब तक दूर नहीं हुई, जब तक कि विपश्यना के प्रथम शिविर में सम्मिलित होकर मैंने स्वयं उनकी शिक्षा के विशुद्ध व्यावहारिक पक्ष का सक्रिय अभ्यास नहीं कर लिया, और तदनंतर मूल बुद्धवाणी का सार्थक अध्ययन करके उसे नितांत निर्दोष और निष्कलंक देख कर पूर्णतया आश्वस्त हो गया। काश! स्वामीजी भी विपश्यना कर पाये होते।...

स० ना गोयन्का
(आत्म कथन भाग 2 से साभार) May-2019
क्रमशः ...