गणराज्य की सुरक्षा कैसे हो!

भगवान बुद्ध के धर्मशासन का पहला वर्ष था। बोधगया में सम्यक संबोधि प्राप्त कर, वाराणसी में धर्मचक्र प्रवर्तन कर, पुनः बोधगया होते हुए भगवान राजगृह आए। वहीं वज्जि गणराज्य का सेनापति लिच्छवी महालि भगवान के संपर्क में आया और उनकी शिक्षा से लाभान्वित होकर उनका पहला लिच्छवी शिष्य बना। उसके कारण कुछ ही दिनों में वैशाली के अनेक लिच्छवी भगवान के श्रद्धालु शिष्य बन गये।


महालि सैन्य संचालन की कला में निपुण निष्णात था। उसी के कारण उस क्षेत्र में वैशाली सेना का प्रबल दबदबा था। परंतु कुछ दिनों बाद दुर्भाग्यवश उसने अपने दोनों नेत्र खो दिये। लिच्छवियों के मन में उसके प्रति अत्यंत आदरभाव था। अत: उसे प्रधान सैन्य-प्रशिक्षक का पद देकर सम्मानित किया और तेजस्वी लिच्छवी युवक 'सिंह' को सेनापति बनाया। उन दिनों सिंह एक अन्य धार्मिक आचार्य का प्रमुख शिष्य था। परंतु जब उसने देखा कि वैशाली के अनेक लिच्छवी बुद्ध के अनुयायी हो गये हैं, तब कुछ झिझक के बाद एक दिन वह कौतूहलवश भगवान से मिलने गया। उनसे वार्तालाप करके वह अत्यंत प्रभावित हुआ और उनका श्रद्धालु शिष्य बन गया। भगवान का शिष्य बन जाने पर भी महालि की भांति सिंह सेनापति ने भी सेनापतित्व के उत्तरदायित्व को कुशलतापूर्वक निभाने में कोई कसर नहीं रखी। भगवान अपने गृही शिष्यों को उनकी पारिवारिक , सामाजिक और शासकीय जिम्मेदारियों से विमुख होना नहीं सिखाते थे। बल्कि उसमें अधिक कुशलता प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करते थे।
एक बार भगवान वैशाली आये और वहां के सारंदद चैत्य में ठहरे। तब बहुत से लिच्छवी भगवान से मिलने आये। उन्हें अभिवादन कर एक ओर बैठ गये। वैशाली गणराज्य की खुशहाली पर आस-पास के राज्यों को बहुत ईर्ष्या होती थी। इस कारण वैशाली पर आक्रमण होने का खतरा सतत बना रहता था। भगवान इस सच्चाई को खूब समझते थे। मगध और वैशाली के पारस्परिक मनमुटाव से भी वे अनभिज्ञ नहीं थे। वे स्वयं शाक्य गणराज्य में जन्मे और पले थे।
गणराज्य की खूबियों और खामियों को भलीभांति समझते थे। अतः उन्होंने वज्जि गणराज्य की सुरक्षा के लिए लिच्छवियों को सात व्यावहारिक उपदेश दिये और कहा कि इनका पालन करते रहने से वे सदा अजेय रहेंगे। ये उपदेश थे : -
(1) लिच्छवियों! जब तक वज्जि एकता कायम रखते हुए बार-बार इकट्ठे बैठते रहेंगे, तब तक वे अजेय रहेंगे।
__ वज्जि गणराज्य के सांसद (जो कि राजा कहलाते थे), संसद-भवन में (जिसे संस्थागार कहते थे), बार-बार एकत्र होकर देश की सुरक्षा पर विचार-विमर्श करते रहें। प्रमादवश ऐसा न करने पर सीमापार के दुश्मनों को आक्रमण करने का प्रोत्साहन मिलता है। सांसदों को बेखबर देख कर वे चोरों की भांति जनपद में घुसपैठ करके लूटपाट करने लगते हैं। लेकिन जब सांसद सजग रहते हैं तो देश में हुई घुसपैठ की खबर सुनते ही वहां तत्काल अपना सैन्यबल भेज कर शत्रु का मर्दन करते हैं - ततो बलं पेसेत्वा अमित्तमद्दनं क रोन्ति। तब दुश्मन समझ जाते हैं कि न -‘सक्का अम्हेहि वग्गबन्धेहि विचरितुन्ति - हम यहां वर्गवद्ध विचरण नहीं कर सकते। परिणामतः वे भिज्जित्वा - इधर-उधर बिखर कर पलायन्ति - पलायन कर जाते हैं।
(2) लिच्छवियो! जब तक वज्जि एक मत होकर बैठते रहेंगे, एक मत होकर उठते रहेंगे, और एक मत होकर जो करणीय है उसे करते रहेंगे, तब तक वे अजेय रहेंगे। किसी संकट की घड़ी में जब आह्वान की भेरी बजे तो प्रत्येक सांसद तुरंत संसद-भवन पहुँच जाय । यदि कोई भोजन कर रहा हो तो उसे अधूरा छोड़ कर और यदि वस्त्रालंकार से सजधज रहा हो तो उसे भी छोड़ कर जैसे-तैसे वस्त्र पहन कर तत्काल संसद भवन पहुँच जाय। वहां सब एक साथ मिल बैठ कर पारस्परिक चिंतन-मनन और विचार-विमर्श करके जो निर्णय करें, वह सर्वसम्मति से हो। यों सब एक मत होकर उठे। तदनंतर जो करणीय है उसे भी एक जुट होकर पूरा करें। मतभेद होगा, आपसी फूट होगी तो दुश्मन का सामना करना कठिन हो जायगा।
राष्ट्र की रक्षा के लिए सारे राष्ट्र में उत्साह जगाएं। जब राज्य की ओर से घोषणा हो कि –‘असुकहाने सुगाम सीमा वा निगमसीमा वा’- यानी अमुक स्थान पर, गांव की या निगम की सीमा पर दुश्मन चढ़ आये हैं और इस स्थिति में प्रजा से जब यह पूछा जाय कि को ‘गत्वा इमं अमित्तमद्दनं क रिस्सति’ - कौन वहां जा कर अमित्र-मर्दन करेगा? तब ‘अहं पठमं, अहं पठमं’ – “पहले मैं, पहले मैं” की वीर ध्वनि से सारा गणराज्य गूंज उठे। संकट आने पर सभी देशवासी देश की सुरक्षा में सहयोग देना अपना कर्तव्य समझें। यही वज्जियों का करणीय कर्तव्य है। इसे पूरा करने में कभी न चूकें ।


(3) लिच्छवियो! जब तक वज्जि अपने परंपरागत राज्य-विधान और न्यायसंहिता का अतिक्रमण नहीं करेंगे, तब तक वे अजेय रहेंगे। नियमानुसार प्रजा से जो कर लिया जाना निश्चित है उसे कोई सांसद अपने क्षेत्र में मनमानी करते हुए बढ़ा दे अथवा जो कर नहीं लिया जाना चाहिए उसे जबरन लागू कर दे तो यह विधान का अतिक्रमण होगा। इससे असंतोष फैलेगा । असंतुष्ट प्रजा संकट के समय सहयोग नहीं देगी। अथवा कोई सांसद अपने क्षेत्र के लोगों का पक्षपात करता हुआ उनसे कर वसूल ही न करे तो परिणामतः राज्यकोष क्षीण हो जायगा। सेना को आवश्यक आयुध नहीं प्राप्त होंगे। समय पर वेतन नहीं मिलेगी तो सैन्यबल क्षीण हो जायगा।
न्यायपालिका की पुरानी दंड-संहिता का भी कदापि उल्लंघन न हो। दंड-संहिता के अनुसार अपराध के संदेह में पकड़े गए व्यक्ति को सात स्तर तक अपील करने का अधिकार है। वह क्रमश: महामात्य, व्यावहारिक ,सूत्रधर, अष्टकुलिक ,सेनापति, उपराजा और राजा तक अपील कर सकता है। इन अपीलों में किसी स्तर पर भी निरपराध साबित होने पर मुक्त किया जाता है। यदि अंततः अपराध साबित हो तो दंडित किया जाता है। यों दंडित हो तो अपराधी और उसके परिवार तथा समाज के लोग अप्रसन्न नहीं होंगे। परंतु अपील करने का अवसर न देकर दंडित कर दिया जाय तो न्याय-संहिता का उल्लंघन होगा, लोग अप्रसन्न होंगे। संकट के समय शत्रु का मुकाबला करने में पूरा सहयोग नहीं देंगे। यदि न्याय संहिता का जरा भी उल्लंघन किये बिना शासन चलाया जाय तो प्रजा प्रसन्न रहेगी, देश की सुरक्षा में सहर्ष भागीदार बनेगी। इसलिए संविधान को अक्षुण्ण रखना आवश्यक है।
(4) लिच्छवियो! जब तक वज्जि वयोवृद्धों को आदर-सत्कार, सम्मान-पूजन और गौरव प्रदान करते रहेंगे, उनके कथन पर ध्यान देते रहेंगे, तब तक वे अजेय रहेंगे। देश के अनुभववृद्ध, वयोवृद्ध, अवकाश प्राप्त सांसदों का मान-सम्मान बना रहेगा, उनकी उपेक्षा नहीं की जायेगी तो शासन-संबंधी अथवा सुरक्षा-संबंधी उनके लंबे अनुभवों का लाभ मिलता रहेगा। संकट के समय उन्होंने किस प्रकार संगठित होकर देश को बचाया। रणभूमि में कैसे सैन्यव्यूहों की रचना की और शत्रुओं के व्यूहों को कैसे ध्वस्त किया। उनके अनुभवजन्य सुझावों से गणराज्य की सुरक्षा दृढ़ रखी जा सकेगी। उनकी अवहेलना होगी तो उनके दीर्घकालीन अनुभवों के लाभ से राष्ट्र वंचित रह जायगा।
(5) लिच्छवियो, जब तक वज्जि प्रजा की बहू-बेटियों को उचित संरक्षण देते रहेंगे, किसी का अपहरण नहीं करेंगे, तब तक वे अजेय रहेंगे। सत्ता का मद बड़ा प्रबल होता है। कोई सांसद मदमत्त होकर पराई बहू-बेटियों पर अत्याचार करेगा तो उसके परिवार के लोग दुखित होकर राज्य-द्रोही हो जायेंगे, जब देश पर आक्रमण होगा तब अन्याय का बदला लेने के लिए वे शत्रुओं से जा मिलेंगे और देश की बर्बादी में सहायक बन जायेंगे। सांसद दुराचार से दूर रहेंगे तो देश की सुरक्षा खतरे में नहीं पड़ेगी।
(6) लिच्छवियो! जब तक वज्जी राजनगरी के भीतर और बाहर जितने भी चैत्य हैं, देवस्थान हैं उनका मान-सम्मान करते रहेंगे, राज्य की ओर से उन्हें जो आर्थिक अनुदान मिलता रहा है, उसे कायम रखेंगे तो वे अजेय रहेंगे। आज की भांति उन दिनों भी देश में अनेक संप्रदाय थे, उनके अपने-अपने चैत्य-चबूतरे थे, देवस्थान थे। समझदार राज्य को चाहिए कि वह सब को प्रसन्न रखे, संतुष्ट रखे। दुर्व्यवहार करके उन्हें देशद्रोही न बना ले। उनके देवस्थानों को पूरा संरक्षण प्रदान करे। राज्य की ओर से उन्हें जो अनुदान मिलता रहा हो उसे कदापि बंद न करे। अन्यथा उन देवस्थानों के देव ही कुपित नहीं होंगे, इससे अधिक खतरनाक बात यह होगी कि उनके पूजक उपासक राजद्रोही और देशद्रोही हो जायेंगे। संकट के समय आक्रमणकारी शत्रुओं से जा मिलेंगे। अतः उनको समुचित संरक्षण दिया जाना राज्य की सुरक्षा के लिए आवश्यक है।
(7) लिच्छवियो! जब तक वज्जि संतों अरहंतों के लिए सुरक्षा की सुव्यवस्था कायम रखेंगे, तब तक वे अजेय रहेंगे। जिस देश में संतों अरहंतों का आदर किया जाना तो दूर बल्कि उन पर हाथ उठाया जाता हो, उन्हें सुख-शांतिपूर्वक विहार नहीं करने और जो हैं वे देश छोड़ कर चले जाते हैं। इससे लोग सत्य धर्म के उपदेशों से वंचित रह जाते हैं, सदाचार-विहीन होते जाते हैं। दुराचार बढ़ता जाता है। सुख-शांति और सौहार्द्र नष्ट होता जाता है। चरित्रवान लोगों के अभाव में देश दुर्बल बनता जाता है। अत: संत अरहंतों की सुरक्षा नितांत आवश्यक है। भगवान ने वज्जि गणराज्य की सुरक्षा हित यह साप्तांगिक उपदेश देकर कहा कि वज्जिगण जब तक इनका पालन करते रहेंगे तब तक अजेय ही रहेंगे, और सचमुच इन सभी उपदेशों का पालन करते हुए वज्जी गणराज्य लंबे समय तक अजेय रहा।
* * * * * * * *
वर्षों बाद की एक दर्दनाक ऐतिहासिक घटना का दृश्य हमारे सामने आता है। भगवान बुद्ध की 45 वर्षीय धर्मसेवा पूरी होने जा रही है। वे लगभग 80 वर्ष के हो गये हैं। राजगृह छोड़ कर अपनी अंतिम धर्मचारिका के लिए पदयात्रा पर निकलने वाले हैं। मगधनरेश अजातशत्रु अपने महामंत्री वर्षकार को भगवान के पास भेजता है और उन्हें सूचित करता है कि शीघ्र ही मगध अपने शत्रु लिच्छवियों पर आक्रमण करनेवाला है। भगवान वर्षकार से कुछ न कहकर पास खड़े आनंद से पूछते हैं, “आनंद! वर्षों पहले मैंने वज्जियों को जो साप्तांगिक उपदेश दिया था, क्या वे उसका पूर्णतया पालन करते हैं?"
आनंद ने कहा, “हां भगवान, पूर्णतया पालन करते हैं।"
इस पर भगवान ने कहा, जब तक वज्जि इन सातों उपदेशों का पालन करते रहेंगे, तब तक वे अजेय रहेंगे।”
परंतु वे अजेय नहीं रह सके । मागधों द्वारा कुचल दिये गये। बलशाली वैशाली गणराज्य सदा के लिए ध्वस्त हो गया।
महामंत्री वर्षकार कुटिलता की कूटनीति में माहिर था। उसने तुरंत समझ लिया कि जब तक वज्जी एकता में बँधे रहेंगे, वे सचमुच अजेय रहेंगे। उसने वज्जियों पर शीघ्र होने वाले आक्रमण को कुछ समय के लिए रुकवा दिया। आगे की घटनाएं महामंत्री के कौटिल्य और वज्जियों की नासमझी का दर्दनाक इतिहास है, जिसके कारण वज्जियों की सुदृढ़ एकता छिन्न-भिन्न हो गयी। उनमें ऐसी फूट पड़ी कि मगध के आक्रमण को रोक सकना तो दूर, उसका सामना करने के लिए वे सन्नद्ध तक नहीं हो सके। लिच्छवी गणराज्य सदा के लिए धूल-धूसरित हो गया । भगवान की कल्याणी शिक्षा को भुला कर उन्होंने अपना सर्वनाश करवा लिया।
भगवान द्वारा दी गयी गणतंत्रों की सुरक्षा संबंधी सार्वजनीन शिक्षा आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। वज्जियों की भांति उसे भुला कर पारस्परिक फूट द्वारा अपना सर्वनाश करवा लेने का खतरा आज भी उतना ही प्रासंगिक है। आज का भारत इनसे सबक सीखे।।
गणराज्य को चिरकाल तक सुदृढ़ बनाये रखने के लिए राष्ट्र में जो फूट के बीज हैं उन्हें दूर करें। राष्ट्र को खंडित करने वाले सारे मुद्दों को हटा कर अखंडता के पहलुओं को सुदृढ़ करें। न सांप्रदायिकता को लेकर देश में फूट पड़े और न जातीयता को लेकर। किसी भी देश में अनेक संप्रदाय के लोग एक साथ प्यार से रह सकते हैं। बशर्ते कि लोग संप्रदाय को धर्म न बना लें। दोनों का भेद स्पष्ट हो। भिन्न-भिन्न संप्रदायों के भिन्न-भिन्न देवस्थान, भिन्न-भिन्न पूजन-अर्चन-विधियां, भिन्न-भिन्न कर्मकांड, भिन्न-भिन्न दार्शनिक मान्यताएं, भिन्न-भिन्न वेश-भूषाएं, तीज-त्यौहार, पर्व-उत्सव, रस्मो-रिवाज, खान-पान और व्रत-उपवास आदि होते हैं। ये प्रसन्नतापूर्वक आमोद-प्रमोद सहित मनाए जाते रहें, बशर्ते कि किसी एक संप्रदाय का आयोजन किसी अन्य की भावनाओं पर आघात न पहुँचाए। सांप्रदायिकता के ये सारे स्वरूप भले भिन्न-भिन्न हों, पर कहीं इन्हें धर्म मान कर अंध उन्माद न जगा लें। संप्रदाय भिन्न-भिन्न होते हैं। उसके आयाम भिन्न-भिन्न होते हैं। परंतु धर्म सब के लिए एक ही होता है। धर्म सदा अभिन्न होता है। लोगों में यह समझ फैले कि सार्वजनीन अभिन्न धर्म क्या है? शील-सदाचार का जीवन जीना धर्म है। हम शरीर और वाणी से कोई ऐसा काम नहीं करें, जिससे औरों का अहित-अमंगल होता हो, औरों की सुख-शांति भंग होती हो। इस पर किसी संप्रदाय का एकाधिकार नहीं है। यह सब का धर्म है।
ऐसा जीवन जीने के लिए मन को वश में करना अनिवार्य है। मन को वश में करना, संयत करना सब का धर्म है, किसी एक संप्रदाय विशेष का नहीं । मन को वश में करने के लिए हम ऐसी विधि अपनाएं, जिसे अपनाने में किसी संप्रदाय को कोई एतराज न हो।
मन को द्वेष और दुर्भावना के विकारों से विमुक्त विमल कर स्नेह सौहार्द्र और सद्भावना से भरें। यह सब का धर्म है। किसी एक संप्रदाय का नहीं। इसके लिए हम ऐसी विधि अपनाएं, जिसे अपनाने में किसी संप्रदाय को कोई एतराज न हो।
शरीर को स्वस्थ रखने के लिए भारत ने आसन और प्राणायाम के रूप में जो विद्या दी वह सार्वजनीन होने के कारण विश्वमान्य हुई। इसे अपनाने में कि सी संप्रदाय को कोई एतराज नहीं हुआ। ठीक इसी प्रकार संप्रदायों की विभाजक दीवारों से ऊपर उठ कर मन को संयत, सबल और स्वस्थ बनाने में समर्थ पुरातन सार्वजनीन विपश्यना विद्या भी भारत ने दी और वह विश्वमान्य हुई है।
शील, समाधि, प्रज्ञा और मैत्रीपूर्ण सद्भावना की इस सर्वजनहितकारिणी सर्वमान्य विद्या का सहारा लेकर सांप्रदायिक विभिन्नता के विविध पक्षों को कायम रखते हुए भी हम सौजन्यता तथा पारस्परिक प्यार मोहब्बत का वातावरण स्थापित कर सकते हैं, जो कि राष्ट्रीय गणतंत्र की अक्षुण्णता को सुदृढ़ बनायेगा।
संप्रदायवाद की भांति जातिवाद का दानव भी देश की सुरक्षा के प्रति सदा खतरनाक रहा है, आज भी है और भविष्य में भी खतरनाक ही बना रहेगा। यह ऐसा घातक विष है जो राष्ट्र की धमनियों में समा गया है। इसे जितना शीघ्र दूर करें, उतना ही राष्ट्र सुरक्षित होगा, गौरवान्वित होगा। समाज में ऊंच-नीच का भेदभाव तो बना ही रहेगा, यह मिट नहीं सकता; परंतु इसका वर्तमान आधार मिटा देना आवश्यक है। किसी मां की कोख से जन्मने के कारण कोई व्यक्ति बड़ा या छोटा, ऊंच या नीच नहीं माना जाय। किसी भी मां की कोख से जन्मा हो, परंतु यदि वह दुष्कर्म करता है, दुराचारी है तो दुष्ट है, दुर्जन है। समाज में वह छोटा ही है, उसका दर्जा नीचा ही है। इसी प्रकार कोई व्यक्ति किसी भी मां की कोख से जन्मा हो, यदि वह सत्कर्म करता है, सदाचारी है तो संत है, सज्जन है। समाज में उसका स्थान बड़ा ही है, उसका दर्जा ऊंचा ही है।
जब जन्मजात ऊंचे-नीचे होने की गलत मान्यता पनपती है तो देश की हानि होती है, धर्म की ग्लानि होती है । सदाचारी होने का यानी धर्म धारण करने का कोई महत्त्व नहीं रह जाता। यदि दुराचारी व्यक्ति जन्मजाति के आधार पर समाज में ऊंचा स्थान पाता है तो उसके लिए सदाचार बेमाने हो जाता है। जन्मजाति के आधार पर किसी को छोटा मान लिया जाता है तो उसके लिए सदाचरण का कोई महत्त्व नहीं रह जाता । यदि समाज में छोटा या बड़ा, पूज्य या अपूज्य आचरण के आधार पर माना जायगा तो जो आज छोटा है, अपूज्य है क्योंकि सदाचारी नहीं है, वह कल प्रयत्नपूर्वक सदाचारी बन सकेगा; समाज में बड़ा और पूज्य बन सकेगा। जैसे ही समाज में जन्म के स्थान पर आचरण को ऊंचे या नीचे होने का मापदंड माना जाने लगेगा, वैसे ही समाज का प्रभूत उत्थान होगा, राष्ट्र का प्रभूत उत्कर्ष होगा। राष्ट्र की रक्तवाहिनी धमनियों में चिरकाल से बहता हुआ विष अमृत बन जायगा।
सांप्रदायिकता विहीन सार्वजनीन शुद्ध धर्म को जीवन में उतारने वाली विपश्यना विद्या के प्रयोग से राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति हो, पारस्परिक द्वेष-द्रोह और विग्रह-विरोध के स्थान पर स्नेह-सौहार्द और भाईचारा बढ़े। इसी में गणतंत्र की सुरक्षा है, इसी में राष्ट्र का मंगल है, कल्याण है।
कल्याणमित्र
सत्यनारायण गोयन्का
सितम्बर 1999 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित