बुद्ध-शिक्षा में साधनाभ्यास हेतु आवश्यक तत्त्व



(अपनी मृत्यु के कुछ वर्ष पूर्व सयाजी ने विशेषकर पाश्चात्य साधकों के लिये अंग्रेजी में निम्न प्रवचन दिया था। इसे कई बार साधकों को सुनाया गया। उनकी मृत्यु के बाद यह प्रवचन ऑडियो से लिखित रूप में लाकर साधकों के लाभार्थ प्रकाशित किया गया, जिसका हिंदी अनुवाद यहां प्रस्तुत है।)... सयाजी ऊ बा खिन जर्नल से साभार


"... बुद्ध की शिक्षा में वस्तुओं के तीन आवश्यक लक्षण बताये गये हैं -- अनित्य, दुःख और अनात्म। यदि आप अनित्य को ठीक से जान जाते हो तो दुःख को गहराई तक समझ सकते हो और अनात्म को भी। अनात्म यानी, जो मैं-मेरा' नहीं है, उसे समझने में समय लगता है। | अनित्य, एक ऐसी सच्चाई है जिसे अभ्यास के द्वारा अनुभव किया जाता है।

और नियमित अभ्यास के द्वारा ही ठीक से समझा जा सकता है। उसके लिये शास्त्रीय ज्ञान पर्याप्त नहीं है, क्योंकि उससे आनुभूतिक ज्ञान की प्राप्ति नहीं होगी। अनित्य का अर्थ और स्वभाव है क्षण-प्रतिक्षण बदलते रहना। उन सतत परिवर्तित होने वाली क्रियाओं को स्वानुभव से समझ सके तो ही इस शब्द का अर्थ ठीक से समझ में आयगा जैसा कि बुद्ध चाहते थे। जैसे बुद्ध के समय में, वैसे आज भी, कोई भी व्यक्ति अनित्यता को अनुभव करके समझ सकता है। चाहे उसने बुद्ध-साहित्य की एक भी पुस्तक नहीं पढ़ी हो। | अनित्य को समझने के लिये व्यक्ति को कड़ाई से और परिश्रमपूर्वक अष्टांगिक मार्ग पर चलना होगा और शील, समाधि एवं प्रज्ञा को जीवन में उतारना होगा। शील समाधि का आधार है, शील पालन से ही मन को एकाग्र किया जा सकता है। जब मन सम्यक रूप से एकाग्र होता है तभी प्रज्ञा विकसित होती है। अतः शील समाधि को पुष्ट करने के लिए, और समाधि प्रज्ञा को पुष्ट करने के लिए आवश्यक है। प्रज्ञा का अर्थ है- अनित्य, दुःख और अनात्म को विपश्यना के अभ्यास से समझना।

बुद्ध इस लोक में उत्पन्न हुए हों या नहीं, शील और समाधि का अभ्यास लोक में किया ही जाता है। ये दोनों सभी संप्रदायों में पाये जाते हैं। लेकिन बुद्धशिक्षा का लक्ष्य है दुःख से नितांत छुटकारा पाना, निर्वाण की प्राप्ति करना। सिद्धार्थ इसी की खोज में लगे थे और उन्होंने इसे प्राप्त किया। छः वर्ष तक उन्होंने | कठिन तपस्या की और मार्ग ढूंढ़ निकाला। वे सम्यक संबुद्ध हुए और देवों तथा | मनुष्यों को वही मार्ग सिखाया जिस पर चलकर वे स्वयं दुःखमुक्त हुए थे। अब उस मार्ग पर चलकर कोई भी व्यक्ति दुःखमुक्त हो सकता है। इस संबंध में हमें समझना चाहिए कि हम जो भी कर्म करते हैं, मानसिक, वाचिक या शारीरिक, वह अपना एक संस्कार छोड़ जाता है। वह हर व्यक्ति के खाते में जमा-खर्च के रूप में जुड़ता जाता है। इस प्रकार हर व्यक्ति के खाते में अच्छे या बुरे संस्कार जमा होते रहते हैं जिनसे जीवनधारा चलती रहती है। अर्थात जीवन चलते रहने की शक्ति का लेखा-जोखा उसके प्रतिक्षण के कर्मों से होता है। और जब जीवन चलेगा तो निश्चित रूप से दुःख और अन्ततः मृत्यु आती ही है। इन संस्कारों से मुक्ति तभी मिल सकती है जब व्यक्ति अनित्य, दुःख और अनात्म को अच्छी तरह से समझ ले। इन्हीं तीनों को ठीक से समझ कर ही संस्कारों से मुक्त हुआ जा सकता है, जो उसके खाते में होता है। यह प्रक्रिया तब प्रारंभ होती है जब व्यक्ति ठीक तरह से अनित्य को समझ नहीं पाता। साथ-साथ दो काम और होते रहते हैं-- जीवन को चलते रहने के लिए संस्कारों की आपूर्ति भी होती रहती है और पुराने संस्कार निकलते भी रहते हैं। यह प्रक्रिया क्षण प्रतिक्षण और प्रतिदिन चलती रहती है। पूरी तरह से संस्कारों से छुटकारा पाने में पूरा जीवन या कई जीवन लग सकते हैं। जिन्होंने सभी संस्कारों से मुक्ति पा ली, वह सभी दुःखों से मुक्त हो जाता है क्योंकि जीवन-धारा को प्रवाहित करने के लिए कोई संस्कार शेष रहता ही नहीं है। जीवन की समाप्ति पर बुद्ध या अर्हत परिनिर्वाण प्राप्त कर लेते हैं और दुःख से पूरी तरह मुक्त हो जाते हैं। हमारे लिए | जिन्होंने आज से विपश्यना साधना करना प्रारंभ किया है, यह कहना यथेष्ठ है कि हमलोग अनित्य का दर्शन कर आर्य बनने का जो प्रथम चरण है यानी, स्रोतापन्न बनना है, उस अवस्था को प्राप्त कर लें। स्रोतापन्न होंगे तो अधिक से अधिक सात बार जन्म लेकर हम दुःख का अंत कर सकेंगे।

दुःख तथा अनात्म को समझने के लिए अनित्य ही कुंजी का काम करता है, साथ ही अनित्य की समझ से दुःख का भी अंत होता है। बुद्ध द्वारा प्रतिपादित अष्टांगिक मार्ग पर चलकर ही अनित्य के पूरे महत्त्व को समझा जा सकता है। जब बुद्ध का अष्टांगिक मार्ग तथा सैंतीस बोधिपक्षीय धर्म अपने संपूर्ण रूप में साधकों को प्राप्त होंगे तो उन्हें अनित्य का ज्ञान अवश्य होगा। विपश्यना ध्यान में प्रगति के लिए साधक को सब समय, जहां तक संभव हो, अनित्य को लगातार जानते रहना चाहिए। बुद्ध ने भिक्षुओं को कहा है कि सभी समय चाहे वे बैठे हों, खड़े हों, चल रहे हों या सोये हों; अनित्य, दुःख और अनात्म की जानकारी रखनी चाहिए अर्थात उनकी स्मृति बनाये रखनी चाहिए। अनित्य और इस तरह दुःख तथा अनात्म की सतत जागरूकता सफलता की कुंजी है। महापरिनिर्वाण प्राप्त करने के ठीक पहले भगवान के अंतिम बोल थे-- वयधम्मा संखारा अप्पमादेन सम्पादेथ। 45 वर्षों तक उन्होंने जो शिक्षा दी, उसका वस्तुतः सार यही है। अगर आप यह हर क्षण जानते रहेंगे कि “सभी संस्कार अनित्य हैं, तो निश्चित रूप से एक समय आयगा जब लक्ष्य की प्राप्ति कर लेंगे।

जैसे-जैसे आप अनित्यता की भावना विकसित करेंगे, आप को तीनों लक्षणों-- अनित्य, दुःख, अनात्म के बारे में कोई संदेह नहीं रहेगा और आप निश्चय ही अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अग्रसर होंगे। अब जब कि आप को अनित्य लक्षण की जानकारी हो गयी है - इसे आप विपश्यना का अभ्यास करके और स्पष्ट रूप से समझें ताकि विपश्यना का अभ्यास करते समय या किसी से विवाद करते समय आपको इसके बारे में कोई शक न रहे और आप इसे स्पष्टता से जान सकें।।

अनित्य का सही अर्थ है जो नित्य नहीं है, जो शाश्वत नहीं है अर्थात यह जानना कि संसार में जितनी चीजें हैं, चाहे वे सजीव हों या निर्जीव, वे स्थायी नहीं हैं, नित्य नहीं हैं अर्थात सतत परिवर्तनशील हैं।

बुद्ध ने बताया कि जितने भी भौतिक पदार्थ हैं वे कलापों से बने हैं। कलाप अणु से भी छोटी वह भौतिक इकाई है, जिसका स्वभाव है उत्पन्न होना और नष्ट होना है अर्थात उत्पन्न होते ही नष्ट होने की क्रिया प्रारंभ हो जाती है। प्रत्येक कलाप में आठ आधारभूत पदार्थ हैं-- पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि तथा वर्ण, गंध, रस और ओज। इन्हें अलग नहीं किया जा सकता। ये सब एक साथ उत्पन्न होकर नष्ट होते हैं, यानी, सतत परिवर्तनशील हैं। इनमें प्रथम चार मूलभूत गुण हैं और अन्य गौण हैं। आधुनिक विज्ञान को भी इसके बारे में ठीक से पता नहीं हैं। जब ये आठ एक साथ मिलते हैं तभी कलाप बनता है। दूसरे शब्दों में कलाप समूह उसे कहते हैं जब ये आठ आधारभूत तत्त्व एक साथ बड़ी संख्या में संस्लिष्ट होते हैं। तभी ये मनुष्य या अन्य प्राणी या पदार्थ के रूप में दिखते हैं। कलाप क्षणभर के लिए रहता है, और पलक झपकाते ही अरबों-खरबों कलाप उत्पन्न और नष्ट हो जाते हैं। ये कलाप सतत परिवर्तनशील हैं और विपश्यी साधक इन्हें उर्जा के प्रवाह रूप में अनुभव कर सकता है।

मनुष्य का शरीर वैसा ठोस नहीं है जैसा दिखाई पड़ता है, बल्कि यह नामरूप का समुच्चय है। यह शरीर असंख्य कलापों से बना है जो सतत परिवर्तनशील हैं। इस परिवर्तन या नाश के सही स्वभाव को जानना है। कलाप प्रत्येक क्षण नष्ट होता है और बनता है - इसका टूटना और बनना दु:ख ही तो है - यही दुःख सत्य है। जब आप अनित्य को दु:ख समझने लगते है तभी आप दुःख सत्य को सही माने में समझते हैं, अपने आप में अनुभव करते हैं। बुद्ध की शिक्षा में जिन्हें चार आर्य सत्य कहा गया है उनमें यह दुःख सत्य प्रथम है। क्यों? क्योंकि जब आप दुःख के सूक्ष्म रूप को अनुभव करते हैं - उस दुःख को जिससे आप चाह कर भी बाहर नहीं निकल सकते, एक क्षण के लिए भी नहीं, तब सचमुच आप में भय जागता है, आप निर्वेद प्राप्त करते हैं, नाम-रूप जो आपके अस्तित्व का आधारभूत तत्त्व है और आप दुःख से निस्सरण के लिए, मुक्त होने के लिए, दुःखातीत होने तथा निर्वाण प्राप्त करने का मार्ग खोजने लगते हैं। दुःख का अंत क्या है, इसकी अनुभूति जब आप स्वयं कर सकेंगे तब आप सोतापन्न की अवस्था प्राप्त कर लेंगे और इतना ध्यानाभ्यास कर लेंगे कि नैर्वाणिक अवस्था की प्राप्ति कर लेंगे, आंतरिक शांति प्राप्त कर लेंगे। लेकिन दैनिक जीवन में भी तभी जब आप अनित्यता की स्मृति बनाये रखेंगे, उसके प्रति जागरूक रहेंगे तो इतना तो अनुभव करेंगे ही कि आप में जो परिवर्तन हो रहा है, वह अच्छे के लिए हो रहा है- शारीरिक रूप से भी, मानसिक रूप से भी। विपश्यना ध्यान का अभ्यास करने के पूर्व अर्थात जब साधक ने उतनी एकाग्रता या समाधि विकसित कर ली हो जितनी विपश्यना प्रारंभ करने के लिए आवश्यक है तब उसे नाम रूप का परियत्ति के स्तर पर ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए अर्थात नाम-रूप का सैद्धान्तिक पक्ष जान लेना चाहिए, क्योंकि विपश्यना करते समय वह न केवल परिवर्तित होने वाले 'रूप' पर ध्यान करता है, बल्कि परिवर्तित होने वाले 'नाम' पर भी और मन में उठने वाले तथा सतत परिवर्तन होने वाले विचारों पर भी ध्यान करता है। कभी-कभी साधक अपना ध्यान अस्तित्व के भौतिक पक्ष पर केन्द्रित करता है अर्थात रूप में सतत परिवर्तन होने वाले स्वभाव पर, अर्थात रूप के अनित्य स्वभाव पर, तो कभी कभी विचारों में होने वाले अर्थात मन में होने वाले परिवर्तनों पर, यानी, नाम और रूप-दोनों के सतत परिवर्तन होने वाले स्वभाव पर अर्थात नाम तथा रूप दोनों के अनित्य स्वभाव पर। जब कोई रूप की अनित्यता पर ध्यान करता है तब उसी समय होने वाले नाम की अनित्यता पर भी ध्यान करता है और देखता है। कि यह भी बदल रहा है। ऐसी अवस्था में वह एक साथ ही नाम तथा रूप दोनों की अनित्यता पर ध्यान करता है।

अभी तक मैंने जो कहा है उसका संबंध शरीर तथा मन में होने वाली वेदनाओं के परिवर्तित होने वाले अनित्य स्वभाव से है। आपको यह भी जानना चाहिए कि अनित्य को दूसरी प्रकार की वेदनाओं द्वारा भी समझा जा सकता है। अनित्य को स्पर्श के द्वारा भी समझा जा सकता है, यथा
(1) रूप और चक्षु के स्पर्श से
(2) शब्द और श्रोत के स्पर्श से
(3) गंध और नाक के स्पर्श से
(4) रस और जिह्वा के स्पर्श से
(5) स्प्रष्टव्य और काय के स्पर्श से
(6) धर्म और मन के स्पर्श से भी।

साधक अनित्य की समझ का विकास छः इन्द्रियों में से किसी के भी द्वारा कर सकता है। लेकिन व्यवहार में हमने पाया है कि सभी प्रकार की वेदनाओं में शरीर पर होने वाली वेदना को विपश्यना ध्यान के माध्यम से बहुत बड़े क्षेत्र में देखा जा सकता है। दूसरे प्रकार की वेदनाओं से शरीर पर होने वाली वेदनाओं को (चाहे वह कलापों के घर्षण से, विकिरण से या कंपन से होते हों।) अधिक स्पष्ट रूप से अनुभव किया जा सकता है। इन वेदनाओं का निरीक्षण करके साधक अनित्य को अधिक आसानी से समझ सकता है। यही कारण है। कि हमलोग अनित्य को स्पष्टता से समझने के लिए शरीर पर होने वाली वेदनाओं को माध्यम बनाते हैं। कोई दूसरा माध्यम भी चुन सकता है, इसके लिए वह स्वतंत्र है, पर मेरी राय में प्रारंभ में अनित्य को समझने के लिए शरीर पर होने वाली वेदनाओं को ही माध्यम बनाना चाहिए। बाद में वह भले ही दूसरे प्रकार की वेदनाओं को माध्यम बनाये।
विपश्यना में दस स्तरीय ज्ञान हैं :-

सम्मसनः सूक्ष्म निरीक्षण तथा विश्लेषण से अनित्य, दुःख तथा अनात्म का सैद्धान्तिक मूल्यांकन या रसास्वादन ।

उदय-व्ययः अनुभूति के स्तर पर निरीक्षण कर नाम तथा रूप के उदय-व्यय का ज्ञान

भङ्गः नाम तथा रूप के शीघ्र परिवर्तित होते स्वभाव का ज्ञान उस तरह होना जैसे ऊर्जा की तेज प्रवाहित धारा हो, विशेषकर भंग का ज्ञान होना

भयः इसका ज्ञान कि यह अस्तित्व भयानक है।

आदीनवः इसका ज्ञान कि यह अस्तित्व ही आदीनव (खतरा) है।

निब्बिदा: इसका ज्ञान कि यह अस्तित्व ही विरक्ति तथा जुगुप्सा पैदा करने वाली है।

मुञ्चितुकम्यता: इसका ज्ञान कि जितना शीघ्र हो सके इस अस्तित्व से छुटकारा पाया जाय

पटिसङ्ख्वाः यह ज्ञान कि समय आ गया है कि अनित्य को आधार बना कर मुक्ति का अनुभव करें

सङ्घारुपेक्खा: यह ज्ञान कि वह अवस्था आ गयी है जब सभी संस्कृत धर्मों से निर्वेद प्राप्त कर मान को त्याग दे

अनुलोमः इसका ज्ञान कि लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयास को कितना तेज करें। ये ज्ञान प्राप्ति के भिन्न-भिन्न स्तर हैं जो विपश्यी साधक साधना के दौरान प्राप्त करता है। जो कम समय में लक्ष्य की प्राप्ति कर लेते हैं उनको इन सब का ज्ञान सिंहावलोकन करने पर होता है अर्थात जब वे पीछे मुड़कर देखते हैं तब होता है। अनित्य की समझ में प्रगति करने के साथ-साथ किसी को भिन्न-भिन्न स्तरों की प्राप्ति हो सकती है, बशर्ते कि उसे एक योग्य कल्याण मित्र मिल जाय, जो उसे समय-समय पर उचित सुझाव दे। विभिन्न स्तरों की प्राप्ति का पूर्वानुमान नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से अनित्य की लगातार स्मृति बनाये रखने में बाधा पड़ती है। अनित्य के प्रति लगातार जागरूकता ही वांछित फल दे सकती है।

अब मैं दैनिक जीवन में गृहस्थ के दृष्टिकोण से विपश्यना ध्यान पर बात करना चाहता हूं और यह बताना चाहता हूं कि वह कैसे इस ध्यान से लाभ प्राप्त कर सकता है - यहां और अभी लाभ प्राप्त कर सकता है - इसी जीवन में प्राप्त कर सकता है।
विपश्यना ध्यान का प्रारंभिक उद्देश्य अपने में अनित्य का अनुभव करना है। और उस अवस्था को प्राप्त करना है जहां कोई आंतरिक और बाह्य शांति और संतुलन बनाये रख सके। यह तभी प्राप्त किया जा सकता है जब कोई अपने भीतर अनित्य की भावना करने में पूरी तरह तल्लीन हो जाय। संसार में भयंकर समस्यायें हैं जो मनुष्य जाति को खतरे में डालने वाली हैं। यही उचित अवसर है- प्रत्येक व्यक्ति के लिए विपश्यना ध्यान करने का और यह सीखने का कि विभिन्न प्रकार के झंझावातों में शांति कैसे बनाये रखें। अनित्य सब के भीतर है, सबकी पहुँच में है। ध्यान से अंदर झांके और वहां अनित्य के दर्शन हो जायँगे। अनित्य अनुभव पर उतर जायगा। जब कोई अनित्य का दर्शन अनुभव के धरातल पर करता है और उसमें तल्लीन हो जाता है तब वह विचार तथा कल्पना के संसार से अपने को अलग कर लेता है। गृहस्थों के लिए अनित्य जीवन का रतन है जिसे वह अपने तथा समाज के कल्याण के लिए शांति तथा संतुलित उर्जा का भण्डार सृजन करेगा। अनित्य का अनुभव जब उचित तरीके से विकसित किया जाता है तो शारीरिक तथा मानसिक दुःखों की जड़े कट जाती हैं और व्यक्ति के सारे क्लेश मिट जाते हैं - वे क्लेश जो शारीरिक तथा मानसिक दुःखों के कारण हैं। ऐसा अनुभव केवल प्रव्रजित भिक्षुओं को ही होता हो - ऐसी बात नहीं है। यह अनुभव गृहस्थों को भी होता है। गृहस्थ जीवन में आने वाली उन कठिनाइयों के बावजूद योग्य आचार्य या कल्याण मित्र किसी साधक को ठीक से मार्गदर्शन कर अनित्य का अनुभव कम समय में भी करा सकते हैं। एक बार जब साधक इसे अनुभव करना प्रारंभ करता है, और इस अनुभव को कायम रखने के लिए जो आवश्यक है उसे करता है तो वह आगे भी उन्नति करेगा और भंग अवस्था का अनुभव करेगा अर्थात उसे भंग ज्ञान होगा। जिसने भंग की अवस्था प्राप्त नहीं कर ली है उसके लिए कुछ कठिनाइयां भी हैं। उसके लिए एक तरह की रस्साकसी होगी, अपने अंदर के अनित्य तथा बाहर में होने वाले शारीरिक तथा मानसिक कार्यकलापों के बीच। उसके लिये यह करना उचित होगा - जब मन करे तो काम करे, मन न करे तो न करे। उसके लिए सब समय अनित्य की भावना करना आवश्यक नहीं है। वह किसी खास समय में चाहे दिन हो या रात, कुछ समय निकाल कर अनित्य की भावना करे। उस समय, कम से कम वह यह प्रयास करे कि उसका समग्र ध्यान अपने शरीर के भीतर रहे और वह सतत अनित्य की भावना करता रहे- क्षण प्रतिक्षण, क्षण प्रतिक्षण, और उस बीच वह मन में कोई और विचार न आने दे, जो उसकी एकाग्रता को भंग करे। ऐसा न होने से वह अनित्य की भावना को अच्छी तरह बढ़ा नहीं सकेगा। ऐसी अवस्था आ जाने पर उसे अपनी सांस पर ध्यान देना चाहिए, क्योंकि अनित्य की भावना करने में समाधि कुंजी का काम करती है। अच्छी समाधि के लिए शील पुष्ट होना ही चाहिए, क्योंकि कि समाधि शील पर आधारित है। अनित्य के अनुभव के लिए अर्थात अनित्य की भावना करने के लिए समाधि का सम्यक होना आवश्यक है। अगर समाधि पुष्ट है तो अनित्य की भावना भी पुष्ट होगी।

अनित्य का अनुभव करने के लिए कोई विशेष विधि नहीं है सिवा इसके कि कम्मट्ठान पर वह अपने संतुलित मन को पूरी तरह लगाये रखे। विपश्यना में कम्मट्ठान अनित्य है और इसलिए उन लोगों के लिए जो शरीर पर होने वाली वेदनाओं पर ध्यान केन्द्रित करते हैं, वहां ध्यान टिकाये रखना चाहिए, जहां वे आसानी से टिकाये रख सकते हैं। वे अपने मन को सिर से लेकर पांव तक बिना किसी क्षेत्र को छोड़े ले जाते रहें, साथ ही कभी-कभी अंदर भी देखते रहें। यहां ध्यान रखने की बात यह है कि उसे शरीर की रचना पर ध्यान नहीं देना है बल्कि ध्यान देना है कलापों पर, जिनसे शरीर बना है तथा उनके क्षण-क्षण बदलते रहने के स्वभाव पर ध्यान देना है। | अगर इन निर्देशों का पालन किया जाय तो निश्चित रूप से साधक प्रगति करेगा। हां, यह प्रगति उसके पूर्व की पुण्य-पारमी पर भी निर्भर करती है। इस बात पर भी निर्भर है कि वह कितना दत्तचित्त होकर ध्यान कर पाता है। अगर वह ज्ञान का उच्च स्तर प्राप्त करता है तो उसकी विलक्षणों की समझ बढ़ेगी और वह आर्य का जो लक्ष्य है उसके निकट, निकटतर तथा निकटतम होगा, जो प्रत्येक गृहस्थ को ध्यान में रखना चाहिए। | यह विज्ञान का युग है। आज का मनुष्य आदर्श-लोक (Utopia) में विश्वास नहीं करता, वह उन चीजों को स्वीकार नहीं करेगा जिनका फल अच्छा न हो, ठोस, स्पष्ट, व्यक्तिगत और यहीं एवं अभी न हो।

जब बुद्ध जीवित थे तो उन्होंने कालामों को कहा था - हे कालामो! आओ, तुम किसी बात को केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि यह बात परंपरागत है। ... यह बात इसी प्रकार कही गयी है ... यह हमारे धर्म ग्रंथ के अनुकूल है ... केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि यह तर्क सम्मत है ... यह अनुमान मात्र है। ... इसके कारणों की सावधानी पूर्वक परीक्षा कर ली गयी है ... इस पर हमने विचार कर इसका अनुमोदन किया है ... कहने वाले का व्यक्तित्व भव्य, आकर्षक है ... कहने वाला श्रमण हमारा पूज्य है। हे कालामो! जब तुम स्वानुभव से अपने आप ही यह जानो कि ये बातें अकुशल हैं, ये बातें सदोष हैं, ये बातें विज्ञ पुरुषों द्वारा निंदित हैं, इन बातों के अनुसार चलने से अहित होता है, दुःख होता है -तब हे कालामो! तुम उन बातों को छोड़ दो।
लेकिन जब तुम यह अपने आप जानो कि ये बातें निर्दोष हैं, विज्ञों द्वारा प्रशंसित हैं, और इन बातों के अनुसार चलने से हित होता है, सुख मिलता है, तब हे कालामो! तुम उन बातों का अभ्यास करो।।

विपश्यना का डंका बज चुका है अर्थात बुद्ध-शिक्षा में सबसे महत्त्वपूर्ण "विपश्यना साधना" का समय आ गया है। निस्संदेह यदि कोई योग्य आचार्य के निकट विपश्यना सीखता है और उसका सतत निष्ठापूर्वक अभ्यास करता है तो उसको यहीं और इसी जीवन में ठोस, स्पष्ट, व्यक्तिगत फल अवश्य मिलेगा, जिससे उसका इसी जीवन में हित और कल्याण होगा।
सब का मंगल हो, कल्याण हो! विश्व में शांति फैले !

-- थे सिदु सयाजी ऊ बा खिन