क्या है बुद्ध-शिक्षा


दूसरा व्याख्यान, भाग-1... (ता. 30 सितंबर, 1951)

सज्जनो और सन्नारियो!
पिछले रविवार को बुद्धत्व प्राप्ति तक के बुद्धजीवन की बहुत ही संक्षिप्त रूपरेखा मैंने आपके सामने प्रस्तुत की थी। आज बुद्ध की शिक्षाओं पर कुछ प्रकाश डालूंगा। बुद्ध की समस्त शिक्षाएं त्रिपिटक में संगृहीत हैं। त्रिपिटक में सूत्र (प्रवचन), विनय (भिक्षु-जीवन के नियम), अभिधम्म (दर्शन) यों तीन पिटक हैं। ये पालि भाषा के कई ग्रंथों में संकलित हैं। त्रिपिटक की विशालता इसी बात से जानी जा सकती है कि पालि भाषा के किसी पंडित को भी, इनके ग्रंथों के पठन मात्र में महीनों लग जाते हैं। इसलिए मैं आज के प्रवचन को बुद्ध-शिक्षा के सारतत्त्वों-- मूलभूत सत्यों-- तक ही सीमित रखूगा।

धर्म का उपदेश आरंभ करने के पूर्व भगवान सम्यक संबुद्ध 49 दिनों तक मौन रहे। वे सात दिन बोधि वृक्ष के नीचे और बाकी सात-सात दिन वहीं समीप के छ: अन्य स्थानों पर विमुक्ति सुख–निर्वाण सुख का आनंद लेते रहे और परमार्थ धर्म की सूक्ष्मताओं पर चिंतन-मनन करते रहे। इस प्रकार चिंतन-मनन करते हुए जब उन्होंने पट्टान (हेतु फलवाद) के नियमों को तथा चित्त और चैतसिक (चित्तवृत्तियों) के सूक्ष्मातिसूक्ष्म पारस्परिक संबंधों का संपूर्ण विश्लेषण कर लिया तब उनके शरीर से छ: रंगों की उज्जवल किरणे प्रस्फुटित हुयीं जो कि धीरे-धीरे उनके मुखमंडल को परिवृत्त कर प्रभामंडल के रूप में स्थिर हो गयीं। भगवान ने ये सात सप्ताह बिना भोजन के बिताये। इन दिनों भगवान का जीवन साधारण लोगों की भांति स्थूल पार्थिव स्तर पर अवस्थित न होकर सूक्ष्म मानसिक स्तर पर अवस्थित था। सूक्ष्म लोक के निवासी देव ब्रह्मा आदि सत्वों को अपने पोषण के लिए स्थूल पार्थिव भोजन की आवश्यकता नहीं होती। उनका भोजन ध्यानजन्य प्रीति-सुख ही होता है। जो कि स्वयं श्रेष्ठ पोषण तत्त्व है। भगवान बुद्ध भी सात सप्ताह तक इसी पोषण तत्त्व पर अवलंबित रहे क्योंकि वे स्थूल पार्थिव स्तर के बजाय सूक्ष्म मानसिक स्तर पर अवस्थित थे। इस संबंध में हमने जो अनुसंधान किये हैं। उनसे हम पूर्णतया विश्वस्त हैं कि इतने ऊंचे मानसिक और बौद्धिक धरातल पर अवस्थित भगवान बुद्ध के लिए यह असंभव नहीं था।

सात सप्ताह की इस लंबी अवधि के पश्चात पचासवें दिन ऊषा के आगमन के साथ जब भगवान ध्यान से उठे तो उन्हें भोजन की इच्छा हुई। यह नहीं कि सात सप्ताह के निरंतर उपवास से वे बहुत क्षुधित और व्याकुल हो उठे थे, परंतु सूक्ष्म मानसिक अवस्था से स्थूल पार्थिव अवस्था पर उतरते ही साधारण भूख का जाग्रत होना स्वाभाविक ही था।

इसी समय इसी देश के दो व्यापारी अपने सार्थ (कारवां) के साथ उरुवेला वन में से गुजर रहे थे। उस वन का एक देवता किसी पूर्व जन्म में इन व्यापारियों का निकट संबंधी रह चुका था। उसने इन्हें सूचित किया कि भगवान सम्यक संबुद्ध अपने ध्यान से अभी-अभी उठे हैं और साथ ही प्रेरित भी किया कि ये उन भगवान सम्यक संबुद्ध को नमस्कार और सत्कार करके महापुण्य के भागी बनें। ये दोनों वहां पहुंचे जहां छ: रंगी किरणों के प्रभामंडल से सुशोभित भगवान बुद्ध बैठे थे। इस अपूर्व दर्शन से दोनों व्यापारी श्रद्धा विभोर हो उठे। दोनों ने भगवान को दंडवत प्रणाम किया और अपने साथ लाये हुए चावलों से बने मोदक और मधु का मिष्ठान्न भोजन भेंट किया। भगवान बुद्ध का यह पहला भोजन था। भगवान ने दोनों को अञ्जलिबद्ध उपासक और श्रद्धालु गृहस्थ श्रावक स्वीकार किया। जब दोनों उपासक विदा होने लगे तो उन्होंने भगवान से कुछ स्मृति चिह्न मांगे जिनकी कि वे सुदूर देश में अपने घर लौट कर पूजन-अर्चन कर सकें। भगवान ने अनुग्रहपूर्वक उन्हें अपने सिर के आठ केशधातु दिये। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि ये दोनों व्यापारी, जिनका नाम तपस्स और भल्लिक था, इसी रंगून के थे। तब इस जगह का नाम ओक्कलापा था। और आप यह जो प्रसिद्ध श्वेडगोन स्तूप देख रहे हैं, इसी के नीचे वे आठों पवित्र केशधातु स्थापित किये गये थे। 2540 वर्ष पूर्व ओक्कलापा के राजा की देखरेख में उन पवित्र केशधातुओं पर यह चैत्य निर्मित हुआ था। तत्पश्चात समय-समय पर कई बुद्ध राजाओं और उपासकों ने इसका संरक्षण और संवर्धन किया।

इस प्रकार ओक्कलापा के इन व्यापारियों को भगवान बुद्ध के प्रथम उपासक होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। परंतु यह उनका दुर्भाग्य ही माना जायगा कि वे केवल श्रद्धालु उपासक मात्र ही हुए। उन्होंने बुद्ध को प्राप्त धर्म के अभ्यास का किंचित भी अनुभव नहीं किया और बिना ऐसा किये जन्म, जरा और मृत्यु के दु:खों से विमुक्ति कैसे संभव है? यह सच है कि साधना की प्रारंभिक अवस्था में श्रद्धा अनिवार्य है परंतु मुख्य काम तो बुद्ध की शिक्षाओं का व्यावहारिक अभ्यास है जो कि साधक को स्वयं करना होता है। तभी तो भगवान ने कहा है:

"तुम्हेहि किच्चं आतप्पं अक्खातारो तथागता।''
“कार्य-सिद्धि के लिए उद्योग (तप) तो तुम्हें ही करना होगा, तथागत तो केवल मार्ग-निर्देश करते हैं।''

बुद्ध की शिक्षाएं:
शब्दकोष के अनुसार तथाकथित ‘धर्म’ जिस अर्थ का द्योतक है उस अर्थ में बुद्ध-शिक्षा को हम धर्म नहीं कह सकते क्योंकि यह अन्य धर्मों की भांति ईश्वर प्रमुख नहीं है। वास्तविकता तो यह है कि बुद्ध का धर्म कायिक, वाचिक और मानसिक शील सदाचार से संयुक्त एक दर्शन-पद्धति मात्र है। इसका अंतिम लक्ष्य है- “मृत्यु और दु:ख से आत्यंतिक विमुक्ति।''

‘धर्मचक्रप्रवर्तन' नामक प्रथम प्रवचन में भगवान ने जिन चार आर्य सत्यों का उपदेश दिया था, वे ही इस दर्शन पद्धति के आधार स्तंभ हैं। वस्तुत: इन चारों में से प्रथम तीन आर्य सत्य बुद्ध के दर्शन का प्रज्ञापन करते हैं और चौथा आर्य-सत्य साध्य के लिए साधन स्वरूप है। इस चतुर्थ आर्य सत्य को आर्य अष्टांगिक मार्ग कहते हैं और यह एक प्रकार से दर्शन और सदाचार की संयुक्त संहिता है। भगवान ने अपना प्रथम उपदेश उन पंचवर्गीय भिक्षुओं (पांच तपस्वियों) को दिया जो कि सत्य की खोज में उनके सहयोगी रह चुके थे और कौंडण्य जिनमें प्रमुख था। कौंडण्य ही भगवान का प्रथम शिष्य हुआ जिसने सद्धर्म का साक्षात्कार किया और अर्हत्व (जीवन मुक्ति) प्राप्त किया।

आओ! अब हम चार आर्य सत्यों को समझें। ये हैं:--
(1) दु:ख आर्य सत्य ।
(2) दुख समुदय आर्य सत्य
(3) दु:ख निरोध आर्य सत्य
(4) दु:ख निरोधगामिनी प्रतिपदा (मार्ग) आर्य सत्य

बुद्ध दर्शन के मूलभूत सिद्धांतों को ठीक-ठीक समझने के लिए दु:ख आर्य सत्य का साक्षात्कार नितांत आवश्यक है। दु:ख आर्य सत्य को भलीभांति समझाने के लिए भगवान ने दो तरीके अपनाये। पहला तरीका तर्क और विवेकमूलक था। भगवान ने अपने शिष्यों को यह महसूस कराया कि जीवन एक संग्राम है, अत: दु:खमय है। जन्म दुःख है, जरा दुःख है, व्याधि दु:ख है और मृत्यु दु:ख है। इंद्रियजन्य वासनाओं का ही यह प्रभाव है। कि साधारणतया मनुष्य अपने आपको भूल जाता है और यह भी भूल जाता है कि इस भूल का उसे कितना बड़ा मूल्य चुकाना पड़ रहा है। जरा सोचिये तो! प्रसव के पूर्व मां के पेट में बच्चा कितना दु:खमय जीवन बिताता है। और फिर जन्म लेते ही जीवित रहने के लिए कितना कुछ करना पड़ता है। आखिरी सांस तक जूझते रहना पड़ता है। इससे आप समझ सकते हैं कि जिंदगी क्या है? जिंदगी दु:ख ही तो है। स्वार्थ के प्रति जिसकी जितनी बड़ी आसक्ति है वह उतना ही अधिक दु:खी है लेकिन होता यह है कि निविड़ अंधकार में यदा-कदा प्राप्त हुए प्रकाश-कणों की भांति जीवन में कभी-कभी थोड़ा-सा इंद्रिय सुख प्राप्त हो जाता है और मनुष्य उससे अपनी सारी पीड़ाएं और दु:ख-दर्द भूल जाता है। यही मोह है जो कि मनुष्य को दुःख आर्य-सत्य से दूर रखता है, अन्यथा तो ‘जन्म और मृत्यु के चक्र से छुटकारा पाने के लिए वह स्वयमेव प्रयत्नशील होता।

दूसरे तरीके से भगवान ने अपने शिष्यों को यह अनुभव कराया कि सारा मानव शरीर कलापों (परमाणुओं) से बना हुआ है और प्रत्येक कलाप उत्पन्न होते ही नष्ट हो जाता है। और यह कलाप भी इकाई न होकर एक समूह है जो निम्न भौतिक जड़ तत्त्वों से बना है:
(1) पृथ्वी- प्रसारण शक्ति
(2) अप (जल)–संयोजन शक्ति
(3) तेज (अग्नि)– संतापन शक्ति
(4) वायु-संचालन शक्ति
(5) वर्ण (6) गंध (7) रस (8) ओज

इनमें से प्रथम चार शक्ति-तत्त्व महाभूत कहलाते हैं और प्रत्येक कलाप में अनिवार्य रूप से निहित रहते हैं। दूसरे चार, पहले चारों के ही उपांग मात्र हैं। भौतिक जगत का सबसे छोटा कण यह कलाप ही है और यह कलाप भी तब बनता है जबकि उपरोक्त आठों तत्त्व- जो कि वस्तुत: गुण-धर्म स्वभाव ही हैं—एक साथ एकत्रित होते हैं। दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं—प्रकृति के गुण धर्म स्वभाव की विशिष्टता लिए हुए इन आठों तत्त्वों का सहअस्तित्व एक ऐसे समूह का निर्माण करता है जिसे 'कलाप' कहते हैं।

भगवान बुद्ध के अनुसार इन कलापों में प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहा है, इनका संगठन-विघटन हो रहा है और यह क्रम निरंतर निर्बाध चल रहा है। ये कलाप शक्ति के स्रोत-प्रवाह हैं वैसे ही जैसे कि दीप-शिखा या बिजली के लट्ट (bulb) में प्रकाश-प्रवाह है। यह शरीर जो देखने में ठोस इकाई जैसा लगता है वस्तुत: भौतिक पदार्थों और जीवन-शक्ति के सहअस्तित्व का धारा-प्रवाह मात्र है, बहाव मात्र है।
साधारण व्यक्ति की दृष्टि में लोहे का एक टुकड़ा सर्वथा गतिहीन है। परंतु वैज्ञानिक जानता है कि वह भी असंख्य विद्युत कणों (इलेक्ट्रान) से बना है। जो कि प्रतिक्षण परिवर्तित हो रहे हैं, प्रवाहित हो रहे हैं। जब एक निर्जीव लोहे के टुकड़े की यह दशा है तो मनुष्य जैसे प्राणी की क्या दशा होगी! मानव शरीर में जो परिवर्तन हो रहे हैं, वे तो और भी अधिक तीव्र होंगे।

परंतु क्या मनुष्य अपने भीतर हो रहे भीषण परिवर्तनों का प्रकंपों का अनुभव करता है? सभी कुछ परिवर्तनशील और प्रवाहमय है, यह जानने वाला वैज्ञानिक क्या स्वयं यह अनुभव करता है कि उसका अपना शरीर भी परिवर्तनशील और प्रवाहमय है-शक्ति-समूह और प्रकंपन मात्र है। उस आदमी के मन में क्या प्रतिक्रिया होगी जो अंतर्दृष्टि द्वारा स्वयं देखता है कि उसका शरीर केवल कलाप-समूह, परमाणु-पुंज और प्रकंपन मात्र है। जब प्यास लगती है तो कोई भी व्यक्ति गांव के कुंए का जल ग्लास भरकर आसानी से पी लेता है। परंतु यदि उसकी दृष्टि अणुवीक्षण यंत्र की भांति शक्तिशाली हो जाय और वह देख ले कि यह पानी तो असंख्य सूक्ष्म जीवाणुओं से भरा कलबला रहा है तो निश्चय ही वह ऐसा पानी पीते हुए हिचकिचायगा। इसी प्रकार जब कोई अपने अंदर हो रही निरंतर परिवर्तनशीलता की - अनित्यता की— स्वानुभूति कर लेता है तो फलत: उसे दु:ख आर्य-सत्य का साक्षात्कार हो जाता है। जब उसे अभ्यंतर में परमाणु समूहों के निरंतर हो रहे संघर्षण, प्रकंपन और विकीर्णन का तीव्र अनुभव होता है तो वह समझ लेता है कि सचमुच जीवन कितना दु:खमय है— बाह्य रूप में भी और आभ्यंतरिक रूप में भी; संवृत्ति रूप में भी और परमार्थ रूप में भी।

जब मैं भगवान बुद्ध की वाणी में कहता हूं कि जीवन दु:खमय है तो आपको यह भ्रांति नहीं होनी चाहिए कि यह जीवन इतना दयनीय है कि जीने योग्य ही नहीं है, और यह भी कि बुद्धदर्शन इतना भीषण दु:खवादी है कि इसमें सुख-शांतिमय जीवन के लिए आशा-आश्वासन है ही नहीं। आखिर सुख है क्या? आधुनिक विज्ञान ने भौतिक क्षेत्र में जो उन्नति की है। क्या उससे संसार के लोग सुखी हुए हैं? हां उन्हें भौतिक सुविधाएं यदाकदा अवश्य मिलती रही हैं। परंतु क्या इनसे आंतरिक सुख प्राप्त हुआ है? अपने अंतरतम में वे सदा यह अनुभव करते रहे हैं कि भौतिक क्षेत्र में जो कुछ हुआ है, हो रहा है और होने जा रहा है वह सुख-शांतिदायक नहीं है। ऐसा क्यों है भला? इसलिए कि मनुष्य ने भौतिक पदार्थों पर तो प्रभुत्व स्थापित कर लिया है परंतु वह स्वयं अपने मन को वश में नहीं कर सका।

बुद्ध ध्यान साधना द्वारा मन को जो शांति मिलती है, जो प्रीति (आनंद) उत्पन्न होता है, उसकी तुलना तुच्छ इंद्रियजन्य सुख से नहीं की जा सकती। इंद्रियजन्य सुख के पूर्व और पश्चात दुःख ही होता है, वैसे ही जैसे कि कोढ़ी के खाज खुजलाने के पूर्व और पश्चात। परंतु ध्यान के प्रीति सुख में, पहले या पीछे, कहीं भी दु:ख और पीड़ा नहीं है। ऐंद्रिय परिपेक्ष्य से इस अतींद्रिय सुख को परखना और आंकना आपके लिए कठिन होगा। लेकिन मैं जानता हूं कि आप भी इस सुख का अनुभव कर सकते हैं और ऐसा करके ही आप इसका सही तुलनात्मक मूल्यांकन भी कर सकेंगे। ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है कि भगवान बुद्ध की शिक्षाओं में केवल दु:ख और पीड़ा का भयावना अनुभव ही है। आप मेरे इस कथन का विश्वास कीजिए कि यह मार्ग आपको साधारण जीवन के दु:खों से मुक्ति देने वाला सिद्ध होगा। इससे जीवन निर्मल सरोवर में खिले हुए उस कमल के सदृश हो जायगा, जिस पर कि चारों ओर तट पर प्रज्वलित भयानक अग्नि का कोई असर नहीं होता। इस मार्ग द्वारा आपको अभूतपूर्व आंतरिक शांति मिलेगी और स्वत: यह संतोष होने लगेगा कि केवल दैनिक जीवन के कष्ट ही दूर नहीं हो रहे हैं, बल्कि धीमेधीमे, परंतु दृढ़तापूर्वक, आप जन्म, जरा और मृत्यु के शिकंजे से भी दूर होते जा रहे हैं।...
—सयाजी ऊ बा खिन जर्नल से साभार
... (क्रमशः अगले अंक में)
मार्च 2018 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित