
भगवान ने जैसे शुद्ध धर्म के मार्ग पर चलने से मंगलमय उन्नति होने की सच्चाई पर प्रकाश डाला, वैसे ही अधर्म के मार्ग पर चलने से अवनति के परिणामों को भी प्रकाशित किया। भगवान ने बताया –
_*सुविजानो भवं होति,*_ - व्यक्ति के उन्नतिशील होने के कारणों को जानना सरल है।
_*सुविजानो पराभवो।*_ - (इसी प्रकार व्यक्ति के) अवनति के कारणों
को जानना भी सरल है।
_*धम्मकामो भवं होति,*_ - धर्मप्रेमी की उन्नति होती है।
_*धम्मदेस्सी पराभवो ॥*_ - धर्मद्वेषी की अवनति होती है।
_*असन्तस्स पिया होन्ति,*_ - जिसे असंतजन प्रिय लगते हैं और
_*सन्ते न कुरुते पियं ।*_ - संत अप्रिय लगते हैं;
_*असतं धम्मं रोचेति,*_ - जिसे दुराचरण प्रिय लगता है,
_*तं पराभवतो मुखं ॥*_- तब वह अपनी अवनति की ओर उन्मुख होता है।
_*निद्दासीली सभासीली,*_ - जो निद्रालु है, सभा-समारोहों में ही जुटा
रहने वाला है,
_*अनुट्ठाता च यो नरो।*_ - ऐसा अनुद्योगी व्यक्ति, यानी जो जीविकोपार्जन का कोई काम नहीं करता।
_*अलसो कोधपञ्जाणो, तं पराभवतो मुखं ॥*_ - जो आलसी और क्रोधस्वभावी है, वह अपनी अवनति की ओर उन्मुख होता है।
_*यो मातरं पितरं वा, जिण्णकं गतयोब्बनं।*_ - युवावस्था बिता कर, जरा-जीर्ण हुए माता-पिता का जो, ।
_*पहु सन्तो न भरति...॥*_ - स्वयं संपन्न होने पर भी (उनका) भरण-पोषण नहीं करता, वह अपनी अवनति की ओर उन्मुख होता है।
_*यो ब्राह्मणं समणं वा,*_ - जो किसी श्रमण या ब्राह्मण
_*अजं वापि वनिब्बकं ।*_ - अथवा किसी अन्य याचक को,
_*मुसावादेन वञ्चेति...॥*_ - झूठ बोल कर ठगता है, वह अपनी अवनति की ओर उन्मुख होता है।
_*पहूतवित्तो पुरिसो,*_ - प्रचुर मात्रा में धन-संपत्ति हो,
_*सहिरो सभोजनो।*_ - तथा हिरण्य-सुवर्ण और भोजन-सामग्रियों से परिपूर्ण हो, ।
_*एको भुञ्जति सादूनि...॥*_ - तो भी स्वादिष्ट भोजनों का उपभोग स्वयं अकेला करता है, वह अपनी अवनति की ओर उन्मुख होता है।
_*जातित्थद्धो धनत्थद्धो, गोत्तत्थद्धो च यो नरो।*_ - जो जाति, धन-संपदा और गोत्र के अभिमान में डूबा रहता है, और
_*सज्ञातिं अतिमञ्जेति...॥*_ - अपने बंधु-बांधवों का निरादर करता है, वह अपनी अवनति की ओर उन्मुख होता है।
_*इत्थिधुत्तो सुराधुत्तो, अक्खधुत्तो च यो नरो।*_ - जो स्त्रियों में, शराब और जुए में रत रहता है, और
_*लद्धं लद्धं विनासेति...॥*_ - अपने कमाये हुए धन को नष्ट करता है, वह अपनी अवनति की ओर उन्मुख होता है।
_*सेहि दारेहि असन्तुट्टो,*_ - जो अपनी पत्नी से असंतुष्ट रहता है,
_*वेसियासु पदुस्सति।*_ - वेश्याओं के साथ दुराचार करता है,
_*दुस्सति परदारेसु...॥*_ - और पराई स्त्रियों के साथ भी, वह अपनी अवनति की ओर उन्मुख होता है।
_*अतीतयोब्बनो पोसो, आनेति तिम्बरुत्थनि।*_ - वृद्ध व्यक्ति किसी नवयुवती को ब्याह लाता है,
_*तस्सा इस्सा न सुपति...॥*_ - और उसके प्रति अविश्वास एवं ईष्र्या के कारण सो नहीं पाता, तब वह अपनी अवनति की ओर उन्मुख होता है।
_*इत्थिं सोण्डि विकिरणि,*_- जब किसी लोभी या संपत्ति-विनाशक स्त्री को
_*पुरिसं वापि तादिसं।*_ - अथवा इसी प्रकार के पुरुष को,
_*इस्सरियस्मि ठपेति...॥*_ - अपनी संपत्ति का मालिक बना देता है, तब वह अपनी अवनति की ओर उन्मुख होता है।
*_अप्पभोगो महातण्हो,-_* अल्प संपत्ति वाला है, महालोभी है, (फिर भी)
_*खत्तिये जायते कुले।*_ - क्षत्रिय कुल में जन्म लेने पर,
*_सो च रज्जं पत्थयति...॥ -_* राज्य प्राप्त करने की लालसा करता है, तब वह अपनी अवनति की ओर उन्मुख होता है।
_*एते पराभवे लोके, पण्डितो समवेक्खिय।*_
_*अरियो दस्सनसम्पन्नो, स लोकं भजते सिवन्ति ॥*_ - ऐसा आर्य-अवस्था की अनुभूति से संपन्न हुआ व्यक्ति, अवनति के इन कारणों को अच्छी तरह जान कर ऊर्ध्वगति को प्राप्त कर लेता है। अवनतिकारक कर्मों को त्याग कर, दुःखों से मुक्त हुआ धर्मसंपन्न जीवन जीने वाला व्यक्ति, पतनोन्मुख अवस्थाओं से पूर्णतया बचता हुआ सर्वदा कल्याणलाभी ही होता है।
कल्याणमित्र,
सत्यनारायण गोयन्का.