
चित्तधारा को आगे बढ़ने के लिए प्रतिक्षण आहार चाहिए।
नया संस्कार एक आहार है, पुराने संस्कारो का फल दूसरा आहार है।
इन दोनों में से कोई ना कोई आहार मिलता है तो यह चित्तधारा आगे बढ़ती है।

अगले क्षण फिर वैसा ही आहार देतें हैं। यों क्षण प्रतिक्षण आहार देतें चलते हैं।
किसी बात को लेकर क्रोध आया तो बड़ा नन्हा सा क्षण होता है क्रोध का, पलक झपकने मात्र में कितने ही शत- सहस्त्र कोटि बार उत्पन्न होकर नष्ट होने वाला क्षण।
लेकिन क्रोध का संस्कार पैदा करते ही अगले क्षण फिर क्रोध पैदा किया।
अगले क्षण फिर क्रोध ही क्रोध के संस्कार इस चित्तधारा को देर तक आगे बढ़ाते चलतें हैं।
कभी तो घंटो क्रोध चलता रहता है।
क्रोध रुका तो कोई और संस्कार बनाना शुरू कर देंगे। वह चलेगा देर तक। फिर कोई और। कभी भय। कभी वासना। कभी कुछ और।
यों पुराने संस्कारो के नष्ट होने की बारी ही नही आती।क्षण-क्षण नया ही बनाये जा रहें हैं।

इसे विपाक का त्वर्तिकरण कह सकते हैं।तुरंत कोई पुराना कर्म-संस्कार चित्तधारा पर अपना फल लेकर आता ही है। यही उदिरणा है।

जैसा कर्म था वैसा ही फल आया।
हम उसे समता से, प्रज्ञा से देखने लगे तो हुआ निरोध उसका।
जितने जितने पुराने संस्कार क्षीण होते चले जायेंगे उतना उतना हल्कापन आएगा ही।
सही माने में सुख आएगा। दुःखो से छुटकारा होगा।