अनित्य, दु:ख, अनात्म तीनों सचमुच निषेधात्मक हैं। परंतु इनका कोई दार्शनिक महत्त्व नहीं है, क्योंकि ये दार्शनिक मान्यताएं नहीं हैं। भव-विमुक्ति की साधना के पथ पर इन तीनों की प्रत्यक्षानुभूति करनी होती है जो कि नितांत आवश्यक है। विपश्यना साधना करने पर ही यह स्पष्ट होता है कि इन तीनों की स्वानुभूति मुक्ति के मार्ग को किस प्रकार प्रशस्त करती है। केवल मान लेने मात्र से मुक्ति नहीं मिलती।
विपश्यना आरंभ करने पर जो स्थूल स्थूल घनीभूत संवेदनाएं प्रकट होती हैं वे देर सबेर समाप्त होती जाती हैं। इस प्रकार साधक उनके अनित्य स्वभाव को अनुभूति के स्तर पर जानता रहता है । विपश्यना के मार्ग पर इसे उदय-व्यय ज्ञान की अवस्था कहते हैं। यह मार्ग का अत्यंत प्रारंभिक पड़ाव (स्टेशन) है। परंतु धीरज और लगन के साथ काम करते रहने से आगे की सच्चाइयां स्वत: प्रकट होने लगती हैं।
प्रकट सत्य (apparent truth) के रूप में सारा शरीर ठोस है। परंतु अंतिम (ultimate) वास्तविकता के स्तर पर तो सूक्ष्मातिसूक्ष्म परमाणुओं का पुज मात्र है। विपश्यना साधना में परमाणु को कलाप कहा जाता है। इसका अर्थ है - भौतिक जगत की सूक्ष्मतम इकाई । यह इकाई भी ठोस नहीं है बल्कि केवल तरंग है। गंभीरतापूर्वक साधना करते-करते किसी साधक को पहले ही शिविर में और किसी को दूसरे या तीसरे शिविर में शरीर की सूक्ष्म अवस्थाएं अनुभूति पर उतरने लगती हैं। सारा शरीर परमाणुओं के पुंज के रूप में महसूस होने लगता है, केवल तरंग ही तरंग होती है। साधक अनुभव करता है कि परमाणुओं के पुंज के पुंज द्रुतगति से उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते जा रहे हैं। देखते-देखते इन परमाणुओं की तरंगें अधिकाधिक गतिमान अनुभव होने लगती हैं। शरीर के ऊपरी-ऊपरी स्तर पर ऐसा अनुभव होते-होते जैसे-जैसे साधक की सजगता तीक्ष्ण होती जाती है, उसे बाहर-भीतर सारे शरीर में अत्यंत त्वरित गति से तरंगायित परमाणु महसूस होने लगते हैं। विपश्यना की परंपरा के अनुसार एक नन्हें से कलाप की तरंग चुटकी बजायें या पलक झपकें, इतनी देर में अनेक शत-सहस्र कोटि बार तरंगायित होती है।
आज के पश्चिमी विज्ञान के अनुसंधान के अनुसार एक एटम एक सेकेंड में 1 के आगे 22 बिंदी लगायें, इतनी बार तरंगायित होता है। पश्चिमी वैज्ञानिक के अनुसार 'भौतिक जगत में कहीं कुछ भी ठोस नहीं है। केवल तरंग ही तरंग है।' विपश्यी साधक भी देखता है, ठोस लगने वाले इस शरीर में कहीं रंचमात्र भी ठोसपना नहीं रह गया। सिर से पांव तक अथवा पांव से सिर तक, शरीर में से मन गुजारते हुए कहीं कोई रुकावट, कोई बाधा नहीं रही। एक ही सांस में सारे शरीर की अनुभूति हो जाती है। इसे ही भगवान ने कहा -
सब्बकायणपटिसंवेदी अस्ससिस्सामीति सिक्खति।
सब्बकायणपटिसंवेदी पस्ससिस्सामीति सिक्खति।
- मज्झिमनिकाय 1.107
साधक एक आश्वास में पांव से सिर तक और एक प्रश्वास में सिर से पांव तक (तरंगायित) सारे शरीर का अनुभव करना सीखता है। शरीर का ठोसपना समाप्त हो जाने के कारण ऐसी अनुभूति सहज होने लगती है।
ठोसपना शरीर का भासमान सत्य है और तरंगायित रहना इसका वास्तविक सत्य है, और साधक को ऐसा स्पष्ट ज्ञात होता है। यह कोई कल्पना नहीं है। यह किसी संप्रदाय की दार्शनिक मान्यता को पुष्ट करना नहीं है। यह समस्त भौतिक जगत का अंतिम (ultimate) सत्य है। इसे | ही भगवान ने कहा –
सब्बो लोको पकम्पितो- सारा संसार प्रकंपन ही प्रकंपन है।
-संयुत्तनिकाय 1.1.168,
साधक अपने शरीर के भीतर ठोस-तत्व-विहीन मात्र प्रकंपन को महसूस करता है। विपश्यना के लंबे मार्ग का यह दूसरा पड़ाव है, जिसे भंग ज्ञान की अवस्था कहते हैं। आरंभ में जब उदय-व्यय ज्ञान का पहला पड़ाव आता है, तब भगवान उसके लिए कहते हैं -
समुदयधम्मानुपस्सी विहरति,
वयधम्मानुपस्सी विहरति ।
यानी विपश्यना करते हुए समुदय होता हुआ देखता है और फिर व्यय होता हुआ देखता है। यही उदय-व्यय पड़ाव है, जहां उदय अलग और व्यय अलग महसूस होता है। दोनों के बीच का अंतराल कभी लंबा होता है, कभी छोटा, पर बना रहता है। अगले पड़ाव तक पहुँचते-पहुँचते समुदयवयधम्मानुपस्सी विहरति - समुदय और व्यय एक साथ अनुभव होते हैं। दोनों के बीच का अंतराल समाप्त हो जाता है।
जैसे ही समुदय हुआ, वैसे ही व्यय हो गया। जैसे ही उत्पन्न हुआ, वैसे ही नष्ट हो गया। आगे जाकर गति इतनी तीव्र हो जाती है कि कब उत्पन्न हुआ, इसकी जानकारी भी पकड़ में नहीं आती। केवल व व्यय ही व्यय, केवल भंग ही भंग। जैसे कोई बालू के कणों का विशाल टीला भर-भरा कर गिर पड़े, वैसे सारे शरीर में केवल फुर-फुर, फुर-फुर – भंग ही भंग अनुभव होने लगता है। इसीलिए इसे भंग ज्ञान का पड़ाव कहते हैं।
साधक जब शरीर के भीतर-बाहर सर्वत्र भंग ज्ञान की धाराप्रवाह अनुभूति करने लगता है, तब उसे पुलक रोमांच की अत्यंत सूक्ष्म और सुखद अनुभूति होने लगती है। यही प्रथम ध्यान का प्रीति-सुख है। यही पतंजलि का आनंद है। संभवत: इसी को किसी ने 'आत्मानंद' कहा हो, 'ब्रह्मानंद' कहा हो, 'सच्चिदानंद' कहा हो।
जब स्वयं मुझे भी पहले ही शिविर में ऐसी अनुभूति हुई, तब मैंने गुरुदेव सयाजी ऊ बा खिन को यह बताना चाहा कि हमारी परंपरा में यही जीवन का अंतिम लक्ष्य है। यह सत है, सत्य है, चित् है, चैतन्य है और आनंद ही आनंद है; सच्चिदानंद है। परंतु मेरे कुछ कहने के पूर्व उन्होंने समझाया, यह शरीर और चित्त के स्पर्श से होने वाली संवेदना है। यह शरीर और चित्त के भंगमान स्वभाव की परिचायिका है। इसीलिए इसे भंग-ज्ञान कहते हैं। उन्होंने आगे कहा कि अब यहीं से गंभीर विपश्यना साधना आरंभ होती है। यदि इस अनुभूति के सही अनित्य स्वभाव को समझते हुए समता बनायी रखी जाय, तो अनुसयकिलेसं (अनुशय क्लेश) यानी जन्म-जन्मांतरों से चले आ रहे वे गहन कर्मसंस्कार, जो भविष्य में नये-नये जन्म-फल देने के लिए बीज सदृश हैं और जो चितधारा की तलस्पर्शी गहराइयों में शयन करते हुए अनुसरण कर रहे हैं, वे उभर-उभर कर उदीर्ण होने लगते हैं। यदि उनके भी अनित्य स्वभाव का बोध बनाये रखा जाय, तब सङ्घार-उपेक्खा का क्रम आरंभ होता है। संवेदनाओं के रूप में उदीर्ण हुए इन कर्म-संस्कारों के प्रति उपेक्षा यानी समताभाव बनाये रखा जाय, तो उनकी निर्जरा होती जाती है, उनका क्षय होते जाता है।
आगे का मार्ग लंबा है। किसके लिए कितना लंबा है, यह उसके पूर्व संचित कर्म-संस्कारों की मात्रा पर और वर्तमान की साधना में सति और सम्पजानो (स्मृति यानी सजगता और संप्रज्ञान यानी अनित्य बोध) की पुष्टता पर निर्भर करता है। उन्होंने मेरे पूछे बिना ही कहा कि अनेक लोग इसे ही अंतिम लक्ष्य मान बैठते हैं, जो कि गलत है। यह तो बीच की धर्मशाला है। अगर इसे ही लक्ष्य मान कर बैठे रह गये, तो आगे की यात्रा बंद हो जाती है। गंभीर साधक अनुभूति के स्तर पर समझता रहता है कि यह अनित्य का ही क्षेत्र है, क्योंकि देह और चित्त का क्षेत्र है, ऐन्द्रिय क्षेत्र है। इस अनित्य अवस्था के प्रति साधक सतत सजग रहता है कि कहीं यह नित्य तक पहुँचने में बाधक न बन जाय। जो नित्य, शाश्वत, ध्रुव, अविनाशी अमृत है, वह देह और चित्त के क्षेत्र का अतिक्रमण है, इंद्रिय क्षेत्र का अतिक्रमण है। नित्य, अमृत, निर्वाण के साक्षात्कार के समय समस्त इंद्रियां काम करना बंद कर देती हैं। इसीलिए कहा गया - सळायतननिरोधा - आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा तथा मानस, इन छहों इंद्रियों का निरोध हो जाता है।
जितनी देर निर्वाण के साक्षात्कार की स्थिति बनी रहती है, उतनी देर छहों इंद्रियां नितांत निरुद्ध रहती हैं, काम करना बंद कर देती हैं। जब कभी भंग अवस्था में अनुभूत प्रीति-सुख के प्रति निब्बानं परमं सुखं की भ्रांति हो जाय, तब तुरंत जांच लेना चाहिए कि इस समय इंद्रियां काम कर रही हैं या नहीं? यदि कर रही हैं तो भ्रांति दूर कर लेनी चाहिए। अभी अंतिम गंतव्य दूर है।
समस्त मुक्ति मार्ग की सच्चाई खूब समझ में आयी। यह भी स्पष्ट हो गया कि मार्ग पर प्रकट हुए मील के पत्थरों को यात्रा का अंतिम लक्ष्य मान कर कहीं रुक न जायँ। दिव्य ज्योति, दिव्य नाद, दिव्य गंध, दिव्य रस, दिव्य स्पर्श - इस लंबे मार्ग पर प्रारंभिक मील के पत्थर समान हैं।
इनमें से किसी को पकड़ कर बैठ जाय, तो यात्रा रुक जाय। जानते रहें कि अभी देह और चित्त के अनित्य स्वभावी क्षेत्र की अनुभूतियों में से ही गुजर रहे हैं। इसी प्रकार जब कभी तीन घंटे की सहज आसनसिद्धि हो जाय, लंबे समय तक का स्वत: कुंभक लगने लगे, सारे शरीर के साथ-साथ मूलाधार से सिर तक सकल मेरुदंड चिन्मय ही चिन्मय हो जाय, विभिन्न चमत्कारिक सिद्धियां प्राप्त हो जाय, आदि-आदि, तब भी समझते रहें कि ये सभी बीच की धर्मशालाएं हैं, जो यह भ्रांति पैदा करती रहती हैं कि यात्रा पूरी हो गयी। इस भ्रांति से बचने के लिए साधक को सतत उदय-व्यय अथवा भंग-ज्ञान के अनित्य बोध की सच्चाई अनुभव करते रहना चाहिए, ताकि नाम-रूपातीत, (यानी चित्तातीत, देहातीत), इंद्रियातीत अमृत अवस्था का साक्षात्कार निर्विघ्न हो सके। अन्यथा बाधा ही बाधा बनी रहेगी।
जो साधक विपश्यना के मार्ग पर गंभीरतापूर्वक प्रगति करता जाता है, वह अनुभूति के स्तर पर यह खूब समझने लगता है कि समस्त यात्रा अनित्य से नित्य की ओर जाने के लिए है। अनित्य के प्रति इसीलिए सजग रहना आवश्यक है कि अनित्य क्षेत्र की प्रिय से प्रिय अनुभूति हमारे लिए मार्गावरोध न बन जाय। जब तक यात्रा पूरी न हो, तब तक 'पुनरपि जननम्, पुनर्रापि मरणम्' का दुःखमय भव-संसरण बना ही रहेगा। अनित्य क्षेत्र की किसी भी अनुभूति को परम सुख मान कर, परमानंद मान कर कहीं भटक न जायँ, कहीं अटक न जायँ। जो अनित्य का क्षेत्र है, दु:ख का क्षेत्र है, न वह 'मैं हूं, न वह 'मेरा' है, न वह मेरी 'आत्मा' है। इसके प्रति मिथ्या देहात्म बुद्धि अथवा चित्तात्म बुद्धि न जगा लें। 'अहं' या 'मम' जगाते ही विमुक्ति की यात्रा फिर रुक जाती है। 'अहं शून्य' और 'मम शून्य हुए बिना अजन्मा, अमर, अविनाशी का साक्षात्कार नहीं हो सकता।
परंतु गंतव्य तक पहुँचने के पहले साधक के यात्रा-पथ का हर मील का पत्थर, हर बीच की धर्मशाला, हर असाधारण, असामान्य उपलब्धि और अनुभूति, प्रगति की निशानी भले हो पर लक्ष्य तक की पहुँच नहीं हैं। उनमें से कोई भी प्रगति में बाधक बन सकती है। इसलिए कितना भी प्रिय और मनमोहक अनुभव क्यों न हो, साधक को हर क्षण सजग और सावधान रहना है। यह समझ बनी रहनी आवश्यक है कि अभी अनित्य का ही क्षेत्र है, ऐन्द्रिय जगत का ही क्षेत्र है। अत: अनित्य क्षेत्र के प्रति सजग रहने की अनिवार्यता को भले कोई निषेधात्मक आलंबन कह कर अपनाने में झिझके, पर जब अनुभव के कदम बढ़ाते हुए यह समझ में आ जाय कि यह निषेधात्मक आलंबन हमें भ्रम-भ्रांति की भूल-भुलैया से बचाते हुए अत्यंत विधेयात्मक, शाश्वत, परम सत्य तक पहुँचाने के लिए है, तब इसे अपनाने में कोई झिझक नहीं रह जाती। ऐसा अनुभव केवल मेरा ही नहीं, अनेकों का है। दुर्भाग्य से देश में विपश्यना विद्या और मूल बुद्ध वाणी विलुप्त हो गयी। अत: भगवान की शिक्षा के प्रति अनेक निराधार निरर्थक भ्रांतियां उत्पन्न हुईं। इसी कारण मेरे जैसे अनेक लोग इस भ्रांति में पड़ गये कि साधना के क्षेत्र में जहां विपुल प्रीति-सुख या यों कहें विपुल आनंद की अनुभूति हुई, वहीं उसे साधना का अंतिम लक्ष्य मान बैठे। विपश्यना विद्या लुप्त होने के पश्चात भारत में अध्यात्म क्षेत्र के अनेक मनीषी भी इसी भ्रांति को पुष्ट करते रहे।
~सत्य नारायण गोयंका
(आत्म कथन भाग 2 से साभार) क्रमशः
मार्च 2020 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित