उद्बोधन

मेरे प्यारे साधक-साधिकाओ!
आओ, धर्म-शरण ग्रहण करें।
बड़ी मंगलकारिणी है धर्म की शरण !



धर्म सत्य है, ऋत है, विश्वविधान है, कुदरत का कानून है। सजीव व निर्जीव, सभी धर्म पर आधारित हैं। अणु अणु को, पिंड पिंड को, ब्रह्मांड ब्रह्मांड को धर्म ही धारण किए हुए है। अणु, पिंड, ब्रह्मांड धर्म को ही धारण किए हुए हैं।
धर्म असीम, अनंत, अपरिमित है! घट-घट में बसा हुआ, अणु-अणु में समाया हुआ है! सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान, सर्वेश्वर है ! जगदीश्वर, जगदाधार, जगत-नियन्ता है! धर्म सचमुच अशरण-शरण है!
साधको ! जीवन में जब-जब संकट आए, आंधी आए, तूफान आए, बेसहारापन आए, किंकर्तव्य-विमूढ़ता आए तब-तब धर्म की शरण ग्रहण करना सीखें। बड़ी राहत मिलती है धर्म की शरण में।
जब कभी पैशाचिक प्रभंजन महामारी का रूप धारण करके निर्मम अट्टहास करता हो, असीम जल-प्लावन भयानक रौद्र रूप धारण कर लेता हो, शांत जलधि में महाज्वार उमड़ पड़ता हो, चारों ओर उत्ताल तरंगें विषधर नाग की तरह फुकारने लगती हों, विनाशकारी जल-भँवर सब को अपने भीतर लीलने के लिए व्यग्र हो उठता हो, तब आदमी के सभी सहायक कन्नी काट जाते हैं, सभी संबंधी बगले झांकने लगते हैं, सभी सहयोगी तोते की तरह आंख बदल लेते हैं, जन्म-जन्म के साथी मुँह मोड़ लेते हैं, बंधुबांधव अपने-अपने प्राण बचाने में लग जाते हैं, सभी डूबते हुए किसी न किसी तिनके का सहारा खोजने में लगे रहते हैं। सारा अपनापन हवा हो जाता है। स्वजन, परिजन पराए बन जाते हैं।
ऐसे समय, साधको! एकमात्र धर्म ही सहायक होता है। धर्म ही बेड़े का काम करता है, द्वीप का काम करता है। धर्म | की शरण ही सच्ची शरण होती है । जब दुर्बल व्यक्ति थका | मांदा होने के कारण अपने आप को बचाने के लिए हाथपांव भी नहीं चला पाता, कहीं किसी ओर किसी तिनके का सहारा भी नहीं पाता तब अपने आपको धर्म के बहाव में बहने के लिए छोड़ देता है। और जहां समर्पित भाव से धर्म के बहाव में बहने लगता है, वहीं धर्म कवच की तरह संरक्षक बन जाता है। धर्म कभी धोखा नहीं देता, कभी विश्वासघात नहीं करता, कभी नीचे की ओर नहीं धकेलता। साधको ! जरा धर्म के प्रति समर्पण करना तो सीखें !
साधको ! मैं सुनी-सुनाई या पढ़ी-पढ़ाई बात नहीं कहता। अपने अनुभव की बात कहता हूं। सचमुच ! बड़ी राहत मिलती है, धर्म के प्रति समर्पित होने में, धर्म की शरण जाने में।
पर अमूर्त धर्म की शरण जाना कठिन काम है। हम सदा से किसी न किसी मूर्त व्यक्ति की ही शरण जाने के आदी रहे हैं न! और व्यक्ति, जो भी हो, बेचारा स्वयं ससीम, स्वयं अशांत, स्वयं असुरक्षित, स्वयं अशरण है ! दूसरे को भला क्या शरण देगा? किसी शरणार्थी को समीप आया देख, स्वयं अपनी गठरी-मुठरी सँभालने लगेगा। अपनी सुरक्षा की चिंता करने लगेगा। दुर्बल दुर्बल की क्या सहायता
करेगा? अनाथ अनाथ को क्या सहयोग देगा? अंधा अंधे को क्या रास्ता दिखायेगा?
अत: सबल और सक्षम अमूर्त धर्म की ही सहायता लें। धर्म की ही शरण ग्रहण करें! कुछ देर के लिए ही सही, जरा नि:स्पृह होकर धर्म के बहाव में जीवन को बहने देने के लिए खुला छोड़कर तो देखें । बड़ा आत्मबल प्राप्त होगा, बड़ा आत्मविश्वास जागेगा। अपने आपको बहाव के सहारे छोड़कर नए संस्कार बनाने बंद करना है। इसी से पुरानों की निर्जरा का रास्ता खुलता है और पूर्व कर्मों के फलस्वरूप आए तूफान का बल अपने आप क्षीण होने लगता है। यही धर्म की शरण जाना है।
देखें, संकट के समय इसे आजमाकर देखें। भविष्य आनंद मंगल से भर उठेगा। दिशाएं हर्ष-उमंगों से नाचने लगेंगी। देखते-देखते सारी निराशा काफूर हो जायगी। सारा वातावरण कल्याण की तरंगों से तरंगित हो उठेगा।
इसीलिए साधको, आओ! धर्म की शरण ग्रहण करें! सचमुच बड़ी मंगलदायिनी है धर्म की शरण!
मंगल मित्र,
सत्यनारायण गोयन्का.
('विपश्यना'- वर्ष 6, अंक-12, ज्येष्ठ पूर्णिमा दि. 2-6-77 से साभार)
April- 2020 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित