क्षणिकवाद



लगभग पन्द्रह वर्ष पहले कच्छ के एक कस्बे में विपश्यना के शिविर का आयोजन किया गया। तब तक यह चर्चा भारत में बहुत कुछ फैल चुकी थी कि विपश्यना किसी एक संप्रदाय से दूसरे संप्रदाय में दीक्षित करने के उद्देश्य से नहीं सिखायी जाती। यह राग और द्वेष दूर करने की सार्वजनीन सक्रिय विद्या है जो प्रत्येक साधक को तत्काल फल देती है। इसमें ऐसा कोई कर्मकांड नहीं है जिसे पूरा करने से लौकिक या पारलौकिक लाभ मिलने का प्रलोभन और आश्वासन दिया जाता हो। इसमें न किसी दार्शनिक मान्यता का अंधविश्वास है,
न किसी मार्गदर्शक गुरु के तारक ब्रह्म होने की अंधमान्यता का दावा है जिससे कि साधक परावलंबी बन कर मिथ्या प्रपंच में उलझता चला जाय। न सिखाने वाले का और न ही व्यवस्था करनेवालों का कोई निहित स्वार्थ है । सारा प्रशिक्षण जनकल्याण हित होता है। रागद्वेषजन्य सभी विकारों को दुर्बल करते-करते अंतत: उनका नितांत निर्मूलन करने की यह एक सक्रिय साधना है। इसमें जो जितना पुरुषार्थ पराक्रम करता है, उसे उतना-उतना लाभ तत्काल मिलता है। इसके अतिरिक्त विकार विमुक्ति के मार्ग पर आगे बढ़ने की एक वैज्ञानिक विद्या मिल जाती है जो सांप्रदायिक बंधनों से सर्वथा विमुक्त है अत: सार्वजनीन है। इन सच्चाइयों को देख-परख कर देश के सभी संप्रदायों के गृहस्थ ही नहीं, बल्कि गृहत्यागी साधु संन्यासी, मुनि, साध्वियां, भिक्षु, भिक्षुणियां, पादरी और नन्स आदि बड़ी संख्या में शिविरों में सम्मिलित होने लगे।
यह विद्या सभी संप्रदाय के लोगों को सहज स्वीकार्य होती है क्योंकि राग, द्वेष तथा अन्यान्य विकारों के बंधन से सभी मुक्त होना चाहते हैं। जब तक मन विकारों में निरत रहता है, तब तक शरीर और वाणी से दुष्कर्म होते ही रहते हैं। चित्त निर्मल न हो तो उसमें न मैत्री जागती है, न करुणा। न सद्भावना जागती है, न स्नेह। सभी धार्मिक परंपराओं का यही लक्ष्य है कि जीवन नैतिकतापूर्ण हो, सदाचारपूर्ण हो । यह सभी चाहते हैं कि चित्त संयत हो, निर्मल हो, सद्गुणों से परिपूर्ण हो । विपश्यना यही करवाती है। एक दो शिविर कर लेने मात्र से कोई पूर्ण नहीं बन जाता। परंतु उसे पूर्णता की ओर गमन करने का सन्मार्ग मिल जाता है और वह कदम-कदम आगे बढ़ता चला जाता है।
यही कारण था कि लगभग चालीस मुनि 100-150 मील दूर से पैदल चल कर इस शिविर में सम्मिलित होने के लिए आए। कुछ एक साध्वियां भी आयीं। लेकिन शिविर आरंभ होने के कुछ पहले जिस संप्रदाय के मुनि शिविर में भाग लेने आए थे, उनका गृहस्थ संघपति वहां आ पहुँचा। उसने मुनियों को बहुत खरी-खोटी सुनाई। उन्हें यह कह कर लज्जित किया कि जब वे एक गृहस्थ और वह भी विधर्मी के पास क्षणिकवादी धर्म सीखने आए हैं तब अपने धर्म का क्या होगा? वह तो नाश हो ही जायगा। दुर्भाग्य से इस परंपरा के मुनियों और साध्वियों के नाक की नकेल उस गृहस्थ के हाथ में होती है जो कि अपने धन-बल से संघपति का पद ग्रहण करता है। वह चाहे तो इन मुनियों का मुनिवेश उतार ले। समाज में ऐसी घोषणा कर दे कि कोई इन्हें भिक्षा न दे। किसी उपाश्रय में इन्हें टिकने न दे। इसीलिए संघपति कहलाता है। दुर्भाग्य से गृहत्यागी संत उससे थर-थर कांपते हैं। अत: जब इस संघपति को नाराज हुए देखा तो उस संप्रदाय के सारे मुनि बिना शिविर में सम्मिलित हुए ही वापस पैदल लौट गये।
परंतु अन्य संप्रदाय की कुछ एक साध्वियों ने शिविर में भाग लिया। तीसरे दिन सायंकालीन प्रवचन में प्रज्ञा का अर्थ समझाते हुए मैंने यह कहा कि सारा शरीर और सारा चित अनित्य है, प्रतिक्षण बदल रहा है। इतनी शीघ्र गति से बदलता है कि हमें भ्रांति होती है, मानो यह वही है। मैंने दीपक की लौ का उदाहरण दिया। एक के बाद एक लौ उठती है, नष्ट होती है; उठती है नष्ट होती है। बीच में कोई अंतराल नजर नहीं आता इसीलिए भ्रम होता है कि वही लौ है। बिजली की बत्ती (बल्ब) में विद्युत प्रवाह आता है और नष्ट होता है। इतनी शीघ्र गति से प्रवाहित होता है कि जिससे यह भ्रम होता है कि वही प्रकाश है। नदी के प्रवाह का जल प्रतिक्षण बदलते रहता है।
नया जल आता है, पुराना आगे बहता जाता है। भ्रम यह होता है कि वही नदी है। ठीक इसी प्रकार जीवन प्रतिक्षण बदलता रहता है और हमें लगता है कि वही है । नन्हा-सा नवजात शिशु बालक होता है, किशोर होता है, युवक होता है, प्रौढ़ होता है, वृद्ध होता है और जर्जरित होकर मृत्यु को प्राप्त होता है। यह बदलाव प्रतिक्षण होता रहता है। क्षण-क्षण बदलते हुए इस भ्रामक प्रपंच को जब 'मैं' और 'मेरा' मान कर इसके प्रति चिपकाव पैदा कर लेते हैं तब राग जागता है, द्वेष जागता है। मैं इस प्रकार अपना मंतव्य समझाए जा रहा था तो देखा कि सामने बैठी हुई साध्वी प्रमुखा के चेहरे की हवाइयां उड़ने लगीं। वह कभी अपनी साथिनों की ओर देखे और कभी मेरी ओर। लगता था बहुत बेचैन हुए जा रही है। प्रवचन समाप्त होने पर भी उसकी बेचैनी दूर नहीं हुई। दूसरे दिन मुझसे शंका समाधान के लिए आयी तो कहने लगी, "हमने सुना था कि बौद्ध लोग क्षणिकवादी होते हैं, परंतु आप के बारे में तो यही सुना कि आप उन बौद्धों में से नहीं है। आप धर्म का शुद्ध स्वरूप समझाते हैं और वही सिखाते हैं। परंतु कल रात के प्रवचन में आपने क्षणिकवाद को ही इतना महत्त्व दिया ? इस वातावरण में हमारे लिए साधना करना कठिन है।”
मैंने उसे समझाया कि क्षणिकवादी तो वह होता है जो यह कहे कि यह जो क्षण-क्षण परिवर्तित होने वाली अवस्था है, इससे मुक्त होने का कोई उपाय नहीं है क्योंकि इसके परे कुछ भी नित्य, शाश्वत, ध्रुव है ही नहीं। परंतु विपश्यना तो हमें उस लक्ष्य तक पहुँचाती है जो कि नित्य है, शाश्वत है, ध्रुव है, अपरिवर्तनीय है। उसे यह सुन कर आश्चर्य हुआ। उसने कहा कि हम तो यही समझते रहे कि बौद्धों की मान्यता में नित्य, शाश्वत, ध्रुव जैसा कुछ भी नहीं है। सब कुछ क्षणिक ही क्षणिक है। यही बौद्ध शिक्षा है। मैंने उसे पुन: समझाया कि जो क्षणिक है उसे स्वानुभूति द्वारा इसलिए जान रहे हैं कि कहीं उसके प्रति तादात्म्य न स्थापित हो जाय। जो शरीर क्षण-प्रतिक्षण बदल रहा है उसको कहीं 'मैं, मेरा और मेरी आत्मा' न मान लें। जो चित्त क्षण-प्रतिक्षण बदल रहा है उसे 'मैं, मेरा' और 'मेरी आत्मा' मान कर भ्रम में न पड़ जायँ । इसे अनित्य, भंगुर, परिवर्तनशील मानते रहेंगे, इस सच्चाई को अनुभूति से जानते रहेंगे तो इसके प्रति न राग जागेगा, न द्वेष । समता भाव बना रहेगा। राग और द्वेष के स्वभाव को तोड़ने के लिए ही यह अभ्यास कर रहे हैं। अनित्य के प्रति जितना-जितना राग नष्ट होगा, द्वेष नष्ट होगा, उतना-उतना नित्य के समीप होता जायगा।
चित्त राग, द्वेष के मैल से भरा रहे और हम उस नित्य, शाश्वत, ध्रुव अवस्था का साक्षात्कार कर लें, यह असंभव है। लक्ष्य वहीं तक पहुँचने का है जो नित्य, शाश्वत, ध्रुव है परंतु जो वास्तविक है, काल्पनिक नहीं, उसी परम सत्य का साक्षात्कार करना है। उसके साक्षात्कार में सबसे बड़ी बाधा राग, द्वेष के मैल की है। इस विद्या द्वारा इसे दूर करने का प्रयास किया जा रहा है। यह सुन कर उस साध्वी प्रमुखा को यह आश्वासन मिला कि इस शिक्षा में केवल अनित्य ही नहीं, नित्य अवस्था को भी स्वीकृति है और वहां तक पहुँचने के लिए यह पुरुषार्थ किया जा रहा है। दस दिन का शिविर पूरा होने पर वह और अधिक आश्वस्त हुई, क्षणिकवाद की मिथ्या शंका दूर हुई और आगे जाकर वह इस विद्या में प्रगति करती चली गयी।
बुद्ध की शिक्षा पर क्षणिकवाद का यह मिथ्या आरोपण वैसा ही है जैसा अनित्यवाद या दुःखवाद का है। न जाने किसने यह कह दिया- सर्वम् दु:खम् दु:खम्, क्षणिकम् क्षणिकम्। और इसे भगवान बुद्ध के मुँह में डाल दिया। जब यह मिथ्या दुष्प्रचार आरंभ किया गया तब शायद वास्तविकता को समझाने वाला कोई उपस्थित नहीं था क्योंकि उस समय न भगवान की मूल वाणी उपलब्ध थी और न विपश्यना विद्या । अथवा यह भी हो सकता है कि किसी ने समझाने का प्रयत्न किया भी हो, परंतु जहां वाद-विवाद के अखाड़े जमते हैं वहां प्रतिद्वन्द्वी यदि जरा कमजोर हो तो उसकी बात कोई सुनने के लिए तैयार नहीं होता। जो भी हो, यह अतीत का इतिहास है।
आज हमारे देश में विपश्यना विद्या का पुनरागमन हुआ है। बुद्ध की मूल वाणी अपने शुद्ध रूप में हमें प्राप्त हुई है। विपश्यना विद्या का अभ्यास और मूल वाणी का अध्ययन करते हुए यह भ्रांति मन से निकालनी चाहिए कि बुद्ध की शिक्षा महज क्षणिकवादी है। जो क्षणिक है उसे क्षणिक ही स्वीकार करना है, लेकिन यह इसलिए कि कहीं उसे नित्य, शाश्वत, ध्रुव न मान लें। जो क्षणिक है उस पर नित्य, शाश्वत, ध्रुव का मिथ्या आरोपण करेंगे तो भटक जायेंगे, अटक जायेंगे, आगे बढ़ना कठिन हो जायगा। जो जैसा है उसको वैसे ही स्वीकार करते रहना है। अनुभूति के स्तर पर अनित्य को अनित्य, क्षणिक को क्षणिक जानते-जानते, और फलत: मन में राग-द्वेष पैदा करने वाले स्वभाव को बदलते-बदलते, पूर्व जन्मों के संगृहीत राग-द्वेष के विकारों का निष्कासन करते-करते, जब शरीर और चित्त के परे, सारी इंद्रियों के परे उस नित्य, शाश्वत, ध्रुव अमृत का साक्षात्कार होगा तब उसे अवश्य नित्य मानेंगे। इसके पहले अनित्य क्षेत्र पर नित्य का आरोपण करना अपने आप को धोखा देना है। इससे बचने के लिए ही विपश्यना है। यह भ्रांति जितनी जल्दी दूर हो, उतना ही कल्याण है।
सत्यनारायण गोयन्का
(आत्म कथन भाग 2 से साभार)
क्रमशः ...
अक्टूबर 2020 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित