कोई भी गंभीर विपश्यी साधक देर-सवेर मुमुक्षु बन ही जाता है माने उसे मुक्ति प्राप्त करने की इच्छा होने लगती है। पूज्य गुरुजी, दीर्घ शिविरों के साधक-साधिकाओं को, इसी जन्म में स्रोतापन्न स्थिति प्राप्त करने के लिए जी-तोड़ मेहनत करने की बार-बार सलाह देते हैं। चूंकि इस अनादि अनन्त भवचक्र में संसरण करते हुए न जाने हमने कितने अकुशल भव-संस्कार एकत्रित कर लिये हैं और मृत्यु के समय यदि पत्थर की लकीर वाला कोई अकुशल संस्कार फलीभूत हुआ तो अगला जन्म अपाय गति में ही होगा और अपाय गति से पुनः मनुष्य योनि में जन्म लेना बड़ा ही कठिन होता है। यदि स्रोतापन्न अवस्था वर्तमान जन्म में प्राप्त हो गई तो साधक अपाय गति से तो हमेशा के लिए छूट ही जाएगा, मुक्ति के स्रोत में पड़कर उत्तरोत्तर सकदागामी, अनागामी एवं अरहन्त अवस्थाओं में से गुजरते हुए भवचक्र से मुक्त हो जाएगा। अतः प्रत्येक साधक का यह ध्येय रहना चाहिए कि इसी जन्म में स्रोतापन्न अवस्था तो प्राप्त करे
साधक को यह जानना आवश्यक है कि इस भवचक्र में बांधे रखने वाले दस बंधन हैं जिन्हें तोड़े बगैर पूर्ण मुक्ति असंभव है।
1. विचिकित्सा - संदेह
2. शीलव्रत परामर्श - कर्मकांडों पर गहरी श्रद्धा
3. सक्काय दृष्टि - देहात्म बुद्धि, अपनापे-पर भाव या मानस के चार खण्डों को आत्मा मानने की दृष्टि
4. राग - इंद्रिय सुखों के प्रति आसक्ति (attachment to sensual desires)
5. द्वेष - किसी व्यक्ति, वस्तु या स्थिति के प्रति दुर्भावना
6. रूपराग- रूप लोक में पुनर्जन्म की इच्छा
7. अरूपराग - अरूप लोक में पुनर्जन्म की इच्छा
8. मान- अपने आप को बहुत उच्च श्रेणी का, सद्गुणों से परिपूर्ण समझना
9. उद्धच्च- बेचैनी
10. अविद्या- मोह, भ्रम, भ्रांति
स्रोतापन्न अवस्था प्राप्त करने के लिए पहले तीन बंधनों (संस्कारों/विकारों) से छूटना आवश्यक है। इन तीन । बंधनों से छूटने पर, साधक की मुक्ति के स्रोत में, पहली बार डुबकी लगती है। साधक अनार्य से आर्य बन जाता है। साधना करते हुए आने वाले जन्मों में चौथे एवं पांचवे बंधन (राग एवं द्वेष) की पकड़ और शिथिल हो कर सकदागामी की अवस्था में पहुंचता है। इन दोनों बंधनों का पूर्ण उच्छेद करने पर वह अनागामी अवस्था पर पहुंचता है एवं शेष पांच बंधनों को तोड़ने के उपरान्त अरहन्त बन जाता है। इस प्रकार पुनर्जन्म देने वाले सभी भवसंस्कारों का पूर्णतः क्षय होने से उसका पुनः जन्म नहीं होता है, वह निर्वाण को प्राप्त हो जाता है।
स्रोतापन्न अवस्था की प्राप्ति की आकांक्षा करनेवाले साधक को प्रथम तीन बंधनों को काटना है, जो हैं - विचिकित्सा, शीलव्रत-परामर्श एवं सक्काय दृष्टि।
इन्हें समझें - विचिकित्सा माने संदेह। साधना की उपयोगिता के बारे में, भगवान बुद्ध के बारे में, चार आर्य-सत्यों के बारे में, पटिच्चसमुप्पाद आदि के बारे में संदेह उत्पन्न होकर साधना भी छूट सकती है।
शीलव्रत-परामर्श माने व्रत, उपवास, कर्मकांड आदि के प्रति गहरी आसक्ति । विचिकित्सा जैसे-जैसे छूटेगी और साधना की वैज्ञानिकता एवं उपयोगिता स्पष्ट होती चली जाएगी वैसे-वैसे व्रत, उपवास, कर्मकांडों के प्रति आसक्ति टूटेगी। विचिकित्सा एवं शीलव्रत-परामर्श से छुटकारा पाना तो कठिन है ही पर सत्काय दृष्टि का भेदन तो और भी कठिन है।
सत्काय दृष्टि अर्थात रोजमर्रा की भाषा में इसे आत्मबुद्धि या देहात्मबुद्धि कहते हैं। यह देह ही "मैं" हूं अथवा इस देह के भीतर नित्य, शाश्वत, ध्रुव ऐसा कोई सार-तत्व है यह बोध गहराई तक मानस में पैठ गया तो देहात्मबोध पुष्ट हो गया। अहंभाव पुष्ट हो गया। "मैं" का भाव पुष्ट हो गया तो फिर "मेरे" का भाव, ममत्वभाव भी दृढ़ होता जाएगा। यदि अहंभाव/ममत्वभाव समाप्त हो गया तो समझो अनात्मभाव आ गया। फिर "मैं ", "मेरे" के प्रति आसक्ति कम होती चली जाएगी। इस अनात्मबोध को हमारे दैनिक व्यवहार में प्रस्थापित करना बड़ा ही दुष्कर कार्य है।
कारण एक तो देहात्मभाव, अहंभाव कल्पनातीत गहरा है मानो शरीर के एक-एक अणु में, खून के एक-एक बूंद में समा गया है। दूसरे रोजमर्रा के व्यवहार में हमें मैं, मेरा, तू तेरा इन शब्दों (सर्वनाम/Pronoun) का अनिवार्यतः प्रयोग करना ही पड़ता है। दैनिक व्यवहार में की जाने वाली सभी शारीरिक एवं मानसिक क्रियाएं "मैं कर रहा हूं" यह भ्रम कैसे बना ही रहता है, यह समझें -
* मुझे अच्छा या बुरा लग रहा है - यह वेदना से संबंधित भ्रम है।
* मुझे याद आता है - यह संज्ञा से संबंधित भ्रम है।
* मैं मिठाई खाना चाहता हूं- यह छंद (इच्छा) से संबंधित भ्रांति है।
* मैं उस व्यक्ति से नफरत करता हूं - यह द्वेष से संबंधित भ्रांति है।
* मुझे और धन चाहिये - यह लोभ से संबंधित भ्रांति है।
इस प्रकार पहले से ही पुष्ट हमारा देहात्मबोध और पुष्ट होता चला जाता है। अतः अनात्मबोध विकसित करने के लिए हमें दीर्घ अवधि तक व्यवस्थित तरीके से प्रयासरत रहना ही होगा। अन्यथा हमारे लिए स्रोतापन्न अवस्था प्राप्त करना असंभव होगा और नरक के द्वार हमारे लिए खुले ही रहेंगे।
परंतु इसमें घबराने की कोई बात नहीं है। सतिपट्ठान सूत्र पर समीक्षाओं में पूज्य गुरुजी द्वारा यह बताया गया है कि अनात्मबोध की सही समझ, अनागामी से अरहंत बनने के बीच की अवधि में ही आती है। इससे पूर्व की अवस्थाओं में अनात्मबोध और देहात्मबोध साथ-साथ चलते हैं। इसका मतलब स्पष्ट है कि आंशिक रूप से विकसित अनात्मबोध से भी स्रोतापन्न अवस्था तक पहुंचना संभव है। विपश्यी साधक के लिए यह बात निश्चित रूप से ढाढ़स बढ़ाने वाली है। जैसे-जैसे अनात्मबोध विकसित होता जाएगा, देहात्मबोध अर्थात अहंभाव क्षीण होता चला जाएगा।
तो हम अनात्मबोध विकसित करने के लिए दीर्घावधि की सोची-समझी रणनीति पर चलें। पहले कम-से-कम बुद्धि के स्तर पर समझ तो लें कि अनात्म बोध क्या है ? बौद्धिक स्तर पर ही नहीं समझे तो फिर आगे का रास्ता ही बंद हो जाएगा। अनात्म बोध क्या है, यह समझने से पहले दो प्रकार के सत्य समझ लें।
दो प्रकार के सत्य :
1. व्यावहारिक सत्य, परम्परागत सत्य (Conventional Truth)
2. अंतिम सत्य, शाश्वत सत्य (Ultimate Truth)
दैनंदिन व्यवहार में हम यदि कहते हैं "यह टेबल है" यह व्यक्ति है, यह जानवर है, यह लड़का है, यह लड़की है आदि, तो यह व्यावहारिक सत्य है, झूठ या गलत कथन नहीं है। किन्तु प्रकृति में कोई चीज ऐसी नहीं है जो एक बार बनकर परिपूर्ण रूप से तैयार हो गई और अब इसमें कोई बदलाव नहीं आएगा, दूसरे शब्दों में वह शाश्वत नहीं है, ध्रुव नहीं है। भारत के महापुरुषों ने हजारों वर्ष पहले ही खोज निकाला था और आधुनिक विज्ञान भी इसकी पुष्टि करता है कि सारी भौतिक वस्तुएं नन्हें-नन्हें परमाणुओं से बनी हैं तथा तरंग-स्वरूप हैं। ये परमाणु प्रतिक्षण लाखों करोड़ों बार उत्पन्न होते हैं नष्ट होते हैं। भगवान बुद्ध द्वारा इन्हें अट्ठकलाप नाम दिया गया। सभी भौतिक पदार्थ सतत बदलने वाले अट्ठकलापों से बने हैं और अट्ठकलाप 28शाश्वत तत्वों से बने हैं जिनमें पृथ्वी, अग्नि, वायु व जल ये मुख्य चार शाश्वत तत्व हैं। सजीव प्राणी में भौतिक शाश्वत तत्वों के साथ 6 प्रकार के चित्त (विज्ञान) तथा 52 प्रकार की चित्तवृत्तियाँ जुड़कर एक मनोशारीरिक इकाई बन जाती है जो शीघ्र गति से उत्पन्न व नष्ट होती रहती है।
उपरोक्त तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में "व्यक्ति है" यह कथन व्यावहारिक सत्य भले ही हो, अंतिम या शाश्वत सत्य तो यह है कि व्यक्ति एक सतत, शीघ्रता से बदलने वाली मनोशारीरिक घटनाक्रम मात्र है। "टेबल है" यह एक भासमान सत्य है। अंतिम सत्य यह है कि वह सतत शीघ्रता से बदलने वाले परमाणुओं का एक भौतिक पुंज है।
अब अनात्म बोध को समझना आसान होगा।
अनात्म बोध दो शब्दों से बना हुआ है। अनात्म व बोध। पहले अनात्म को समझें, तत्पश्चात् बोध को। अनात्म का शाब्दिक अर्थ है - न आत्मा, जो आत्मा नहीं है। अतः आत्मा का अर्थ समझ लें तो अनात्म स्वयं स्पष्ट हो जाएगा। आत्मा का अर्थ है सार। आत्मा का अर्थ "मैं" या "स्व" भी किया जाता है। जैसे - आत्मसंतोष, आत्मकेंद्रित जीवन, आत्मबल आदि। एक नित्य, शाश्वत ध्रुव तत्व के अर्थ में भी आत्मा शब्द का प्रयोग होता है।
व्यवहार जगत में हम कहते हैं लकड़ी के टेबल का सार या आत्मा लकड़ी है। सोने के जेवरों का सार या आत्मा सोना धातु है। इसी उपमा का प्रयोग यदि मानव देह के संबंध में करें तो नाम-रूप पंचस्कंध (रूप, विज्ञान, संज्ञा, वेदना एवं संस्कार) व्यक्ति का सार या आत्मा है यह कहना होगा। व्यावहारिक दृष्टि से उपरोक्त कथन तो ठीक है किन्तु पारमार्थिक या अंतिम सच्चाई की दृष्टि से गलत होगा। क्योंकि अंतिम सत्य तो यह है कि चाहे लकड़ी हो, व्यक्ति हो या अन्य कोई सजीव निर्जीव वस्तु हो उसका रूप तो अष्टकलापों (परमाणुओं) से ही बना है जो अतिशीघ्र गति से उत्पन्न होते रहते हैं नष्ट होते रहते हैं। अतः लकड़ी, टेबल की आत्मा या सार नहीं हो सकती। अंतिम सच्चाई की दृष्टि से न तो लकड़ी का अस्तित्व है न ही टेबल का। अतः लकड़ी, टेबल की आत्मा नहीं है, अनात्म है तथा "टेबल" तो रंग, रूप, आकार, उपयोगिता के आधार पर पहचानने में सुविधा के हेतु से दी गई एक संज्ञा है, कल्पना (Concept) है।
इसी प्रकार, व्यक्ति भी अंतिम सच्चाई की दृष्टि में, शीघ्र गति से सतत उत्पन्न होने एवं नष्ट होने वाले नन्हें-नन्हें परमाणु (अष्टकलाप) तथा उससे अधिक सूक्ष्म एवं शीघ्र गति से उत्पन्न-नष्ट होने वाले चित्त स्कंध के संस्पर्श के कारण सतत भासमान होने वाली मनोशारीरिक इकाई है (बहुत आगे की अवस्थाओं में विज्ञान, संज्ञा, वेदना व संस्कार इन चारों चित्तस्कंधों का उदय-व्यय भी समझ में आता है)। उदय-व्यय की प्रक्रिया पर न तो साधक का स्वयं का कोई नियंत्रण है या स्वामित्व है, न किसी अन्य के आदेश या इच्छा से ये नियंत्रित होते हैं। कल्पनातीत शीघ्र गति से उत्पन्न-नष्ट होने वाले तरंग-स्वरूप परमाणुओं के पुंज में से किस परमाणु को पकड़कर साधक कहे कि यह मैं हूं या मेरा सार है। वास्तव में छह इंद्रियों के माध्यम से जीया जाने वाला यह जीवन, अनादि अनन्त काल से, संस्कारों के कारण चलती आ रही एक प्रक्रिया है, एक घटनाक्रम (Conditioned Phenomena) है, इसमें मैं-मेरा कहने को कुछ भी नहीं है, यह बोध ही अनात्म बोध है।
अब बोध शब्द को गहराई से समझें। ज्ञान और बोध सामान्यतः समानार्थी शब्द समझे जाते हैं। किन्तु अध्यात्म के क्षेत्र में, दोनों में फर्क है। ज्ञान का अर्थ जानकारी होना है। श्रुतमयी प्रज्ञा या चिन्तनमयी प्रज्ञा से प्राप्त ज्ञान है। अर्थात केवल बुद्धि के स्तर पर हुआ ज्ञान है। बोध का मतलब जड़ों तक पहुंचा हुआ ज्ञान, भावनामयी प्रज्ञा द्वारा अर्जित ज्ञान। शरीर के अणु-अणु तक, खून के एक-एक बूंद में अनुभूति पर उतरा ज्ञान।
ज्ञान का बोध में रूपांतरण कैसे होता है यह एक व्यावहारिक उदाहरण से समझें। हम चावल का भात बनाते हैं, उसके लिए चावल को पानी में पकाना पड़ता है मानों सिद्ध करना पड़ता है तभी खाने के काम में आएगा। कच्चे चावल हम पचा नहीं सकते, वे हमारे शरीर को पुष्ट नहीं कर सकते। वैसे ही बौद्धिक ज्ञान को हम सिद्ध करेंगे तभी वह बोध बनेगा। वह ज्ञान शरीर के अणु-अणु तक, अन्तर्मन की गहराइयों तक पहुंचेगा। इसलिए जब अनात्म का बौद्धिक ज्ञान शरीर, मन, वाणी में परिलक्षित होने लगेगा, तब हम कह सकते है कि अनात्म ज्ञान, बोध में रूपांतरित हुआ, अनात्म बोध पुष्ट हुआ और साधक सत्काय दृष्टि से निकल कर सम्मादिष्ट्ठि (Right View) में प्रतिष्ठापित हो गया।
सत्काय दृष्टि की मानस में स्थापना
अनात्म बोध के बारे में जानने के बाद अब हम सत्काय दृष्टि के बारे में भी कुछ और जानने का प्रयास करें। किसी भी व्यक्ति में सत्काय दृष्टि तीन स्तरों पर प्रतिष्ठापित होती है।
1. अनुशय भूमि : अर्थात अंतर्मन का गहनतम स्तर। यहाँ संस्कार प्रसुप्त अवस्था में कर्म बीज के रूप में प्रतिष्ठित रहते हैं तथा प्राणियों के जीवन प्रवाह के साथ-साथ (Life continuum) अनादि अनन्त जन्मों से चले आते रहते
2. पर्युत्थान भूमि : पर्युत्थान भूमि पर मानसिक कर्म घटित होते रहते हैं।
3. व्यतिक्रम भूमि : मन का वह स्तर है जिसमें तीन प्रकार के कायिक कर्म (हत्या, चोरी, व्याभिचार) तथा चार प्रकार के वाचिक कर्म (झूठ बोलना, कठोर बोलना, व्यर्थ की बकवास और चुगली) प्रेरित होते हैं।
जब अकुशल कर्म प्रेरक विषय आँख, कान आदि छह इंद्रियों से टकराते है तब प्रसुप्त संस्कारों का अनुशय भूमि से ऊपर उठकर, पर्युत्थान भूमि में अकुशल चेतना के रूप में उदय होता है तथा मानसिक कर्म की अवस्था आ जाती है। इस मनोकर्म की अवस्था का शमन नहीं किया गया (समता से) तो उत्पन्न चेतना पर्युत्थान भूमि लांघकर व्यतिक्रम भूमि में प्रवेश कर जाती है तथा अकुशल वाचिक कर्म या कायिक कर्म अथवा दोनो घटित हो सकते हैं।
साधकों को यह जानना आवश्यक है कि वास्तव में इंद्रियों का कोई भी विषय केवल कुशल या केवल अकुशल चेतना उत्पन्न करने वाला नहीं होता।
संस्कारों के प्रभाव के कारण संज्ञा (मन का एक खंड) विषय को पहचानने तथा अच्छा या बुरा मूल्यांकन का कार्य करती है तब वेदना के आधार पर सत्काय दृष्टि के कारण मुझे अच्छा लगा "और चाहिये" "और चाहिये" अथवा मुझे बहुत बुरा लगा "नहीं चाहिये" "नहीं चाहिये" (राग व द्वेष) की प्रतिक्रिया होती है। यदि संज्ञा की जगह प्रज्ञा जागृत रही तो किसी भी विषय का अच्छा या बुरा मूल्यांकन नहीं होता, केवल अनित्यता. अनात्मता, दुःख का बोध होता है और समता के कारण संस्कारों का उपशमन होता है।
त्रिस्तरीय सत्काय दृष्टि को परम पूज्य बर्मी भिक्षु लैडी सयाडो द्वारा उनकी किताब "बोधिपक्षीय दीपनी" में उल्लेखित माचिस की डिब्बी के दृष्टान्त द्वारा भी अच्छी तरह समझा जा सकता है।
माचिस की डिब्बी में अग्नि तीन स्तरों पर उपस्थित है। बंद डिबी में सब तीलियों को मिलाकर एक प्रकार की अग्नि है जो सामान्य स्थिति में प्रसुप्त (Latent) है। एक तीली को डिब्बी के नायट्रस पृष्ठभाग पर रगड़ने पर उत्पन्न अग्नि, जो तीली को जलाए रखती है - दूसरे प्रकार की अग्नि है। तथा जलती तीली से कचरे के ढेर को छूने पर पूरा कचरा जलने लगता है वह अग्नि का तीसरा स्तर है। यह तीसरी अग्नि व्यतिक्रम के सत्काय दृष्टि के समान है। जो अग्नि तीली को जलाती है वह पर्युत्थान भूमि के सत्काय दृष्टि के सदृश है, जो कोई विषय मन से टकराने पर अभिव्यक्त होती है। तीलियों से भरी माचिस की डिब्बी में प्रसुप्त अग्नि अनुशय भूमि स्तर की सत्काय दृष्टि के सदृश है जो अनन्त जन्मों से प्राणी के जीवन प्रवाह के साथ-साथ प्रसुप्त स्थिति में चल रही है।
माचिस की डिब्बी में प्रसुप्त अग्नि विस्फोट के साथ आग की लपटों में तब तक अभिव्यक्त नहीं होगी जब तक तीलियों को नायट्रस पृष्ठभाग पर रगड़ा न जाय। ठीक इसी प्रकार अनुशय स्तर की सत्काय दृष्टि प्रसुप्त अवस्था में ही रहती है जब तक तथाकथित अकुशल विषय मनोद्वार पर नहीं टकराते । अकुशल विषयों का स्पर्श होने पर अनुशय स्तर की सत्काय दृष्टि विचलित हो कर पर्युत्थान भूमि पर अभिव्यक्त होती है तथा वहां उसका शमन नहीं होने पर व्यतिक्रम अर्थात प्रकट स्तर पर अभिव्यक्त होती है।
जो व्यक्ति व्यतिक्रम तथा पर्युत्थान भूमि पर नियंत्रण करते हुए, अपने विचार तथा कायिक, वाचिक कर्म कुशल रखता है उसे व्यवहार जगत में अच्छा आदमी माना तो जाता है, तथापि उसे यदि अनुशय भूमि के बारे में अनभिज्ञता रहे या जानकारी रहते हुए भी अनुशय भूमि पूर्णतः नष्ट नहीं हो पाई हो तो उसका सत्काय दृष्टि पर नियंत्रण अस्थायी रहेगा, और इस जन्म में या आने वाले जन्मों में, कभी न कभी भारी उथल पुथल के फलस्वरूप, सत्काय दृष्टि की पकड़ उत्तरोत्तर मजबूत होकर, उसकी अपाय गति को प्राप्त होने की संभावना प्रबल होगी।
अतः सत्काय दृष्टि के निर्मूलन हेतु शील, समाधि व प्रज्ञा का सक्रिय एवं सहवीर्य (with profound and strenuous effort) अभ्यास बहुत आवश्यक है। शील पालन से वितिक्कम भूमि पर, समाधि से पर्युत्थान भूमि पर तथा प्रज्ञा से अनुशय भूमि पर सत्काय दृष्टि का निर्मूलन संभव है।
परम पूज्य बर्मी भिक्षु लैडी सयाडो द्वारा लिखित उनकी किताब "उत्तम पुरुष दीपनी" (Manual of Excellent Man) में अनात्म बोध के विकास के लिए रूपस्कंध तथा चार चित्तस्कंधों के सात-सात पहलुओं पर विशेष ध्यान देने की सलाह दी गई है। प्रत्येक स्कंध के सातों पहलुओं पर विस्तार से विवरण भी दिया गया है।
यह सातों पहलू हैं -
1. स्कंध की व्याख्या एवं पहचान
2. स्कंध का समुदय
3. स्कंध का निरोध
4. निरोध की ओर ले जाने वाला मार्ग
5. स्कंध से प्राप्त सुख
6. स्कंध से तादात्म्य में निहित दुःख
7. स्कंध से छुटकारा (निस्सरण)
रूप स्कंध के सात पहलू
1. रूप की व्याख्या एवं पहचान
हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार महाभूतों (धातु) तथा उनके 24 गुण-धर्म-स्वभाव से संजात अष्टकलापों से बना है, जो रूप या काया कहलाता है। ये अष्टकलाप या परमाणु कल्पनातीत शीघ्र गति से उत्पन्न-नष्ट होते रहते हैं। पृथ्वी धातु का गुण फैलना, आकाश को घेरना है और भारीपन, हल्कापन, ठोसपन यह उसकी पहचान है। अग्नि धातु का क्षेत्र तापमान का पूरा क्षेत्र है। शरीर में शीतल से शीतल लेकर गर्म से गर्म अवस्था का अनुभव कर अग्नि धातु को पहचाना जा सकता है। इसी प्रकार हलन-चलन, कंपन का सारा क्षेत्र वायु धातु की पहचान है। जल धातु का क्षेत्र है नमी द्वारा बांध करके रखना, इकट्ठा करके रखना। चारों धातु तथा उनके कारण, सतत उत्पन्न-नष्ट होने वाले परमाणुओं को शरीर में बांधे रखना, जल धातु के कारण ही संभव है।
विपश्यना करते हुए साढ़े तीन हाथ की काया में, संवेदनाओं के आधार पर इन चार धातुओं को गहराई में अनुभव करना आ गया तो रूप स्कंध के अंतिम सत्य (Ultimate reality) से पहचान होगी तथा शरीर के प्रति, मैं-मेरे के प्रति आसक्ति टूटती चली जाएगी।
2. रूप का समुदय एवं 3. निरोध
सामान्य व्यक्ति का मानस इन परमाणुओं के संस्पर्श के कारण राग, द्वेष आदि की सतत प्रतिक्रिया करता है एवं संस्कारों का संवर्धन ही करते रहता है। मृत्यु के समय का चित्त वर्तमान शरीर को छोड़कर नये जीवन के साथ जुड़ता है, जो नयी जीवन धारा का प्रथम चित्त (पटिसंधि विज्ञान) होता है और इसी के साथ नये जीवन का शरीर भी, बीज रूप में (अतिसूक्ष्म) उत्पन्न होता है, अंकुरित होता है तथा समय पाकर विकसित होने लगता है। इस प्रकार एक जीवन के बाद अगला जीवन, अगले के बाद फिर नया जीवन ऐसा अनन्त काल तक चलते ही रहता है। माने भवचक्र चलते रहता है।
किंतु विपश्यी साधक प्रतिक्षण होने वाली संवेदनाओं के प्रति सजग एवं समतामय रहकर, नये संस्कार बनाता नहीं एवं पुरानों का क्षय करते जाता है। जब सारे संस्कार जड़ से उखड़ जाते हैं तब आने वाली मृत्यु आखिरी मृत्यु होती है, जीवन धारा का निरोध हो जाता है।
4. निरोध की ओर ले जाने वाला मार्ग
भगवान गौतम बुद्ध द्वारा प्रतिपादित आर्य अष्टांगिक मार्ग पर चलते हुए विपश्यना का सम्यक अभ्यास ही निरोध की ओर ले जाता है।
5. रूप से प्राप्त सुख
यह रूप या भौतिकता के आस्वाद पर आधारित सुख है। जब कोई सुंदर वस्तु या चेहरा आँख से स्पर्श करता है तब देखने पर सुखद संवेदना एवं आनंद का अनुभव होता है। कोई मधुर आवाज कान से टकराती है तब सुनने पर सुखद संवेदना एवं आनंद का अनुभव होता है। इसी प्रकार जीम पर रसानुभूति, शरीर को स्पर्शानुभूति, नाक पर सुगंध टकराने पर घ्राणानुभूति द्वारा सुख एवं आनंद की प्राप्ति होती है। यही रूप या भौतिकता से प्राप्त तथाकथित सुख है जो आसक्ति ही पैदा करता है और दुःख का कारण भी बनता है।
6. रूप या भौतिकता में निहित दुःख तथा 7. उससे छुटकारा
मानवी रूप लेकर जन्मना दुःख है। चूंकि जन्म से लेकर मृत्यु तक शरीर को बनाए रखने के लिए, उसके विकास के लिए भौतिक आहार की आवश्यकता, उसे पाने के लिए अविरत परिश्रम दुःखदायी है। आहार के अलावा कपड़ा, मकान भिन्न-भिन्न भौतिक सुख सुविधाओं को जुटाना तो दुःखदायी है ही परन्तु भौतिक सुख-सुविधाएं मिली भी तो उनसे प्राप्त सुखों को स्थायी रूप से बनाए रखने में असमर्थता, उन तथाकथित सुखों की अनित्यता क्षणभंगुरता दुःख ही तो है। फिर व्याधि, जरा, मरण तो दुःखदायी हैं ही। इसके बावजूद रूप के प्रति, भौतिक वस्तुओं के प्रति आसक्ति बढ़ती ही जाती है जो दुःख ही लाती है। यह आसक्ति सत्काय दृष्टि के कारण ही है चूंकि व्यक्ति का यह दृढ़ विश्वास रहता है कि यह मेरा शरीर है, देखने सुनने आदि का सुख-दुःख मेरे शरीर मन को होता है। अतः भौतिकता से प्राप्त सुख की अनित्यता, क्षणभंगुरता का तथा उसी से प्राप्त दुःख की प्रचुरता एवं सातत्य का बोध होने पर, सत्काय दृष्टि से छुटकारे का महत्व समझ में आता है।
चित्त के चार स्कंधों पर विचार
रूप स्कंधों के सातों पहलुओं पर विचार किया वैसा ही चित्त के विज्ञान, संज्ञा, वेदना तथा संस्कार इन चार स्कंधों को जानने का प्रयास करना निर्वाण प्राप्ति के लिए आवश्यक है। वेदना, संज्ञा एवं संस्कार तीनों का समुदय, विषयों के स्पर्श के कारण होता है अतः स्पर्श इन तीनों के लिए एक अति महत्वपूर्ण कारक है। विज्ञान भी बिना संस्कार के कार्य नहीं कर सकता। किसी क्षण में बना संस्कार अगले क्षण का चित्त बन जाता है। इस प्रकार चारों स्कंधों का समुदय अन्योन्याश्रित याने एक दूसरे पर आश्रित है। फिर भी विज्ञान शेष तीनों स्कंधों का नायक है क्योंकि विज्ञान है, तो ही स्पर्श है। जब हम कहते है कि कोई विषय संबंधित इंद्रिय पर (sense base) टकराता है तो यह विज्ञान की वजह से ही संभव होता है।
मनोपुबंगमा धम्मा मनो सेवा मनोमयाः – सभी कर्मो के पूर्व मन (विज्ञान स्कंध) उत्पन्न होता है। अतः मन ही श्रेष्ठ है, प्रमुख है, प्रधान है।
चित्त के चार स्कंधों की कार्यप्रणाली निम्न दृष्टान्त से समझी जा सकती है। मान लो कोई रसीला फल है एक विषय (sense object) के रूप में। इस फल को विज्ञान प्राप्त करता है। स्पर्श द्वारा (फस्स) उसका रस निकालने पर वेदना उसे चखती है और अच्छा-बुरा महसूस करती है, संज्ञा नोट करती है कि खट्टा है, मीठा है आदि तथा राग-द्वेष की प्रतिक्रिया करते हुए चेतना (संस्कार) कायिक-वाचिक कार्य के लिए शरीर के संबंधित अवयवों को प्रेरणा देती है।
पूज्य गोयन्का गुरुजी द्वारा लिखित "प्रवचन सारांश" के अनुसार -
चित्त के चार मोटे-मोटे स्तंभ, चार मोटे-मोटे हिस्से हैं। उन दिनों की भाषा में चित्त के पहले खंड को विज्ञान, दूसरे को संज्ञा, तीसरे को वेदना और चौथे खंड को संस्कार कहा गया।
उन दिनों विज्ञान का अर्थ था केवल जानना। अंग्रेजी में अनुवाद करें तो इसे कॉन्शसनेस कह सकते हैं। ये जो आंखें हैं, नाक है, जीभ है, कान हैं, त्वचा है - ये इंद्रियां अपने आप में बिल्कुल निर्जीव हैं। जब तक चेतना का यह विज्ञान-खंड इनके साथ नहीं लगता, तबतक ये काम नहीं कर सकतीं।
इसके साथ विज्ञान खंड के जुड़ते ही जानकारी होती है किसी वस्तु की, पदार्थ की, गंध की, रस की, शब्द आदि की। बस, केवल जानकारी होती है। जैसे ही जानकारी हुई, चेतना का दूसरा खंड संज्ञा उत्पन्न होता है, जिसका काम पहचानने का है। यह पहचान अबतक के अनुभवों के आधार पर, याददाश्त के आधार पर, होती है। पहचान होती है तो मूल्यांकन होता है। शब्द आए तो पहचाना - ये प्रशंसा के हैं, ये गाली के हैं। जैसे ही पहचाना और मूल्यांकन कर लिया, चेतना का तीसरा खंड उत्पन्न होता है, जिसे वेदना कहा गया। वेदना अर्थात् संवेदना - सुखद भी होती है दुःखद भी। जैसे ही दुखद या सुखद संवेदना होती है तुंरत उसके प्रति प्रतिक्रिया होती है, जिसे संस्कार कहा गया। यह चेतना का चौथा खंड है।
सुखद संवेदना हुई। प्रिय लगी। उसके प्रति राग जागा। दुःखद संवेदना हुई। अप्रिय लगी। उसके प्रति द्वेष जागा। आंख, नाक, कान, जीभ, त्वचा और मन - ये जो हमारी छ: इंद्रियां हैं, इन पर ज्योंही संबंधित विषय टकराते हैं, त्योंही त्वरित गति से जानने, पहचानने, मूल्यांकन करने, संवेदनशील होने और संस्कार बनाने का कार्य होता है। सदैव यही करते रहते हैं - राग के संस्कार बनाते हैं, द्वेष के संस्कार बनाते हैं। इसी आदत के बाहर निकलना है। ठीक तरह से समझ लेना चाहिए कि कर्म-संस्कार के बीज कहां बनते हैं, कैसे बनते हैं ? चित्त का पहला हिस्सा विज्ञान जो जानने का काम करता है, वह कर्म का बीज नहीं बनता। इसी प्रकार चित्त का दूसरा हिस्सा संज्ञा जो पहचानने का काम करता है, वह भी बीज नहीं बनता। चित्त का तीसरा हिस्सा वेदना भी बीज नहीं बनता। चित्त का चौथा हिस्सा संस्कार जो प्रतिक्रिया करता है, वही बीज बनता है। कोई भी संपर्क चाहे आंख से हो, नाक से हो, कान से हो, जीभ से हो, त्वचा से हो अथवा मन से हो, उसका प्रभाव शरीर पर होगा ही, और तब प्रतिक्रिया होगी, संस्कार बनेगा। यह संस्कार शरीर की संवेदना के आधार पर ही बनेगा।
जब संवेदना को देखना आ जाएगा तो उसके प्रति न राग पैदा करेंगे, न द्वेष पैदा करेंगे, न मोह पैदा करेंगे। केवल द्रष्टाभाव से उसे देखेंगे। संवेदना सुखद हो या दुःखद, वह नश्वर है, भंगुर है। उसे द्रष्टाभाव से देखना है। घंटे भर की साधना में एक क्षण भी ऐसा आया तो अभ्यास करते-करते वही एक क्षण अनेक क्षण बन जायेंगे। अनेक सेकेंड बन जायेंगे, अनेक मिनट बन जायेंगे। ऐसी स्थिति भी आयेगी ही, जबकि जो कुछ हो रहा है उसको जानेंगे और जानकर प्रतिक्रिया नहीं करेंगे। राग नहीं पैदा करेंगे, द्वेष नहीं पैदा करेंगे। यों पलट जायेगा स्वभाव राग और द्वेष के कर्म बांधने का।
आंख, नाक, कान, जीभ व त्वचा के अलावा मन स्वयं भी एक इंद्रिय है। जिसमें विचार, कल्पनाएं, भावनाएं आदि उत्पन्न होती रहती हैं। मन का भी अपना विज्ञान होता है। इस प्रकार छ: प्रकार के विज्ञान अपनी अपनी इंद्रियों पर टकराने वाले विषय को जानने का काम करते हैं।
विज्ञान का समुदय एवं व्यय
प्रत्येक प्रकार के विज्ञान को उत्पन्न होने के लिए चार कारकों की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए चक्षु विज्ञान उत्पन्न होने के लिए
1. चक्षु वस्तु याने आंख के पीछे का संवेदनशील अंग।
2. रूप या कोई दर्शनीय वस्तु (आलंबन या विषय)।
3. प्रकाश - प्रकाश न हो तो देखना संभव नहीं होगा।
4. मनसिकार - यह एक प्रकार की चित्तवृत्ति है जो विषय से संबंधित मानसिक प्रक्रिया को दिशा देती है तथा उसे कुशल/अकुशल बना देती है।
यह चारों कारक उपस्थित हों तो चक्षु विज्ञान उत्पन्न होगा। यह प्रक्रिया इन चार कारको के लगातार उपस्थिति में यंत्रवत होती रहेगी। इन चार के अलावा और किसी कारक की आवश्यकता नहीं है। इसी प्रकार कान से संबंधित विज्ञान उत्पन्न होने के लिए - श्रोत्र-वस्तु, शब्द, आकाश एवं मनसिकार।
नाक के विज्ञान के लिए - घ्राण-वस्तु, गंध, वात एवं मनसिकार।
जीभ के विज्ञान के लिए - जिह्वा-वस्तु, रस, आप (नमी) एवं मनसिकार।
स्पर्श के विज्ञान के लिए - काया-वस्तु, स्पर्श विषय, आघात एवं मनसिकार।
मन के विज्ञान के लिए - हृदय -वस्तु, विचार, मनोद्वार एवं मनसिकार।
जिस प्रकार पेड़ के विकास में बीज, धरती एवं पानी का योगदान होता है, उसी प्रकार मानसिक प्रक्रिया में, मनसिकार 'बीज' के समान, चक्षु श्रोत्रादि इंद्रियां 'धरती' के समान तथा विषय 'पानी' के समान हैं।
यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि कोई विषय संबंधित इंद्रियों से टकराने पर तत्काल शीघ्र गति से लगातार उत्पन्न-नष्ट होने वाले असंख्य सूक्ष्म तरंगों के प्रवाह के रूप में विज्ञान उत्पन्न होता है। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति चांद की ओर देख रहा है तो चांद की प्रतिमा, आंखों पर टकराने से चक्षु विज्ञान जागता है। जब तक चांद का आंख से स्पर्श होता रहेगा तब तक वह कहेगा, मैं चांद को देख रहा हूं। यदि देखनेवाला आंखें दूसरी ओर घुमा ले या आंखें मूंद ले अथवा विषय और आंखों के बीच में कोई पर्दा आ जाए तो चक्षु विज्ञान समाप्त होकर उसे चांद दिखना बंद हो जाएगा। पुनः आंखें खोलने पर या परदा हट जाने पर चक्षु विज्ञान पुनः जागेगा। इसी प्रकार आवाज का कान से स्पर्श होने पर श्रोत्र विज्ञान जागेगा, सुनने की प्रक्रिया शुरू होगी व आवाज समाप्त होने पर श्रोत्र विज्ञान समाप्त होगा। इसी प्रक्रिया से संबंधित विषयों के स्पर्श होने पर अन्य इंद्रियों के विज्ञान भी जागेंगे तथा स्पर्श की समाप्ति पर समाप्त होंगे। ये सारी प्रक्रियाएं विशिष्ट परिस्थितियों के रहते यंत्रवत होती रहती हैं किन्तु सत्काय दृष्टि के कारण व्यक्ति सोचता है, मैं देख रहा हूं, मैं सुन रहा हूं आदि।
विज्ञान निरोध की ओर ले जाने वाला मार्ग
भगवान बुद्ध द्वारा प्रतिपादित आर्य अष्टांगिक मार्ग पर चलते हुए विपश्यना का सम्यक और निरन्तर अभ्यास चित्त निरोध की ओर ले जाता है। "सतिपट्टान सुत्त" में पूज्य गोयन्काजी बताते हैं कि -
काम शुरू करते समय साधक रूप, विज्ञान, संज्ञा, वेदना एवं संस्कार इन पांच उपादान-स्कंधों का विभाजन मोटे-मोटे रूप में ही कर पाता है। बहुत ऊंची अवस्था में ही इन्हें टुकड़े-टुकड़े करके देखने में समर्थ होता है - विज्ञान अलग, संज्ञा अलग, वेदना अलग, संस्कार अलग। इनके टुकड़े-टुकड़े होने का काम अनागामी से अरहंत अवस्था के बीच शुरू होता है, और सही मायने में 'अनात्म' का आशय भी तभी समझ में आता है, वर्ना अनुपश्यना का काम भी होता रहता है और अपनापे का धोखा भी चलता रहता है। साधक विज्ञान को ही अपनी आत्मा मान कर चलता है - देखो, यह 'मैं हूं, 'मैं देख रहा हूं, “मैं सुन रहा हूं, 'मैं' सूंघ रहा हूं, 'मैं' चख रहा हूं, 'मैं स्पर्श कर रहा हूं, 'मैं चिंतन कर रहा हूं, यह "मैं ही हूं। यह विज्ञान कायम रहता है।
बहुत आगे की अवस्था में यह स्पष्ट रूप से मालूम होने लगता है कि 'विज्ञान' भी एक नहीं है; छ: हैं अलग अलग, जिनका एक दूसरे से कोई संबंध नहीं है। चक्षुविज्ञान केवल चक्षुविज्ञान का काम करता है; श्रोत्रविज्ञान केवल श्रोत्रविज्ञान का; ऐसे ही घ्राणविज्ञान, जिह्वाविज्ञान आदि भी। हर इंद्रिय का अपना ज्ञान होता है, अपना विज्ञान; और वही सिर उठा कर बताता है कि उस इंद्रियविशेष पर क्या घटना घटी है। इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं बतलाता है। और साधक यह भी देखता है कि इन अवस्थाओं में जाते-जाते चक्षुविज्ञान निरुद्ध हो जाता है, श्रोत्रविज्ञान निरुद्ध हो जाता है, और ऐसे ही अन्य विज्ञान भी। इस प्रकार देखना बंद हो जाता है, सुनना बंद हो जाता है, और ऐसे ही सूंघना, चखना आदि भी। यदि विज्ञान सदा कायम रहने वाला होता, तो भला ऐसी स्थिति क्यों पैदा होती?
निर्वाण की डुबकी लगते ही सारी बात एकदम स्पष्ट हो जाती है कि सब कुछ 'अनात्म' है ('सब्बे धम्मा अनत्ताति)। जिस 'विज्ञान' को कोई 'मैं मानता है, उसका भी कोई अस्तित्व नहीं है। नाम और रूप के क्षेत्र में जो संस्कार बनते हैं, जो कुछ भी बनता है, वह सब अनित्य है (सब्बे संखारा अनिच्चाति)। ये सभी संस्कार अनित्य होने के कारण दुःख लाने वाले होते हैं (सब्बे संखारा दुक्खाति)। यह अवस्था आते-आते आत्मभाव टूटने लगता है, अहंकार टूटने लगता है। जितना-जितना अहंभाव टूटता है, मुक्ति के मार्ग पर उतनी-उतनी प्रगति होती चली जाती है।
वेदना का स्वभाव, समृदय एवं व्यय
चित्त के चार स्कंधों में से वेदना स्कंध वह भाग है जो विषय का ज्ञानेन्द्रियों से स्पर्श होने पर शरीर में संवेदना उत्पन्न करता है। यह संवेदना असुखद-अदुःखद (Neutral) ही रहती है किन्तु संज्ञा द्वारा विषय की पहचान एवं "अच्छा" या "बुरा" के मूल्यांकन के पश्चात तत्काल यही संवेदना सुखद या दुःखद संवेदना में बदल जाती है और मुझे अच्छा लगा "और चाहिये" "और चाहिये" अथवा खराब लगा "नहीं चाहिये" "नहीं चाहिये" ऐसी प्रतिक्रिया संस्कार स्कंध द्वारा होती है। चूंकि हमारी छह ज्ञानेन्द्रियां है यथा आंख, कान, नाक, जीभ, त्वचा एवं मन अतः संवेदना के छह स्रोत होते हैं।
यह ध्यान देने योग्य बात है कि किसी विषय का संबंधित इंद्रिय से स्पर्श होते ही वेदना-तरंगों का शीघ्र गति से उत्पन्न-नष्ट होने वाला प्रवाह शुरू हो जाता है। जैसे आंख का किसी रंग रूप वाली वस्तु से स्पर्श होने पर वेदना तरंगों का प्रवाह शुरू हुआ। प्रवाह तरंग-स्वरूप है, याने लगातार उत्पन्न होकर नष्ट हो रहा है किन्तु समाप्त नहीं होता। इस स्थिति में सामान्य व्यक्ति कहेगा "मै देख रहा हूं" और उसे सुखद या दुःखद संवेदना महसूस होगी। आंख बंद करने पर, दृष्य वस्तु दृष्टि से ओझल होने पर या आंख एवं वस्तु के बीच कोई परदा या अन्य रुकावट आते ही वह तरंग प्रवाह समाप्त हो जाएगा और व्यक्ति कहेगा "मुझे वस्तु अब नहीं दिखती।" उस वस्तु के कारण उत्पन्न संवेदना को पुनः अनुभव करना हो तो उसी वस्तु का पुनः आंख से स्पर्श होना आवश्यक होगा।
यही यांत्रिक प्रक्रिया, कान से आवाज, नाक से गंध, जीभ से रस, त्वचा से स्पर्शव्य पदार्थ और मन से चिंतन टकराने पर होती रहती है। विपश्यी साधकों को इसी के कारण शरीर पर संवेदनाओं के उदय-व्यय की अनुभूति होती है। वास्तव में ये सारी यांत्रिक प्रक्रियाएं विषयों का इंद्रियों से स्पर्श होने पर उत्पन्न मनोशारीरिक घटनाएं (Psychophysical phenomena) मात्र हैं "फस्सपच्चया वेदना" ही है। किन्तु सत्काय दृष्टि के कारण सामान्य व्यक्ति "मैं सुन रहा हूं", "सूंघ रहा हूं", "चख रहा हूं" आदि मानकर राग-द्वेष की प्रतिक्रिया करता है, और फलस्वरूप सत्काय दृष्टि को पुष्ट बनाते जाता है।
वेदना निरोध की ओर ले जाने वाली साधना
भगवान बुद्ध द्वारा प्रतिपादित आर्य अष्टांगिक मार्ग पर चलते हुए विपश्यना का सम्यक अभ्यास ही वेदना-निरोध की ओर ले जाता है।
वेदना से प्राप्त सुख तथा निहित धोखा
रूप स्कंध पर विचार के समय यह जान लिया था कि यह सुख, आस्वाद पर आधारित सुख है। जब कोई सुंदर वस्तु या चेहरा आंख से स्पर्श करता है तब सुखद संवेदना एवं आनंद का अनुभव होता है। यह अनुभव संवेदना के कारण ही संभव होता है। संवेदना चाहे सुखद हो या दुःखद, है तो अनित्य ही, फिर भी मनुष्य स्वभाव है कि वह सुखद अनुभव आजीवन बनाए रखना चाहता है और अनित्य जानते हुए भी दुःखद अनुभव से तत्काल निजात पाना चाहता है। दोनों बातें उसके वश में नहीं है, यह दुःखदायी है। सत्काय दृष्टि के कारण संवेदनाओं के प्रति यही तृष्णा राग-द्वेष आदि संस्कारों का संवर्धन कर भवचक्र का बंधन मजबूत ही करती है। यह बहुत बड़ा धोखा है।
वेदनापच्चया तण्हा, तण्हापच्चया उपादानं,
उपादानपच्चया भवो, भवपच्चया जाति,
जातिपच्चया जरामरणं, सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा।
वेदना से छुटकारा
छुटकारे का साधन आप के पास ही है। कोई भी संवेदना तब तक अपाय कारक नहीं हो सकती जब तक अभिभूत होकर उसके प्रति आप तृष्णा या गहरी आसक्ति नहीं जगाते। विपश्यना शिविरों में शरीर पर होने वाली सुखद दुःखद आदि सभी संवेदनाओं को अनित्य बोध के आधार पर समता भाव से, द्रष्टा भाव से अनुभव कर तृष्णा की जगह, प्रज्ञा जगाना सिखाते हैं। इस प्रकार संवेदनाओं से अभिभूत होने से बचा जाता है जिससे नये संस्कार नहीं बनते और पुराने उखड़ते जाते हैं। खीणं पुराणं नव नत्थि संभवं। यही छुटकारे का साधन है।
संज्ञा की पहचान, समुदय एवं व्यय
संज्ञा - मानस का वह खण्ड है जो स्मरण रखने का, वस्तु घटना या स्थिति को विशिष्ट नाम से पहचानने का तथा उसके मूल्यांकन का कार्य करता है। यह कार्य बचपन से ही प्रारंभ हो जाता है जब बच्चा अपनी मां को, पिता को पहचानने लगता है। फिर अपने स्वयं के अलग अस्तित्व तथा नाम का बोध उसे मां बाप की सहायता से होता है। इस प्रकार उत्तरोत्तर दिन, रात, दिशाओं का तथा भिन्न-भिन्न वस्तुओं का ज्ञान अर्जित करने लगता है।
इस प्रकार छहों ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान वृद्धि के साथ वह अच्छी-बुरी वस्तु, स्थिति, घटना, कर्त्तव्य आदि का ज्ञान भी ग्रहण करने लगता है, जिसमें उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि, संस्कृति, परम्पराएं, प्रशिक्षण आदि का योगदान महत्वपूर्ण होता है।
इंद्रियों का विषयों से स्पर्श होने पर जैसा वेदना तरंगों का प्रवाह शरीर में प्रारंभ हो जाता है, उसी प्रकार संज्ञा के तरंगों का प्रवाह भी शीघ्र गति से उत्पन्न-नष्ट होने लगता है तथा पुराने अनुभव के आधार पर विषय की पहचान एवं मूल्यांकन का कार्य पूर्ण होकर राग-द्वेष की प्रतिक्रिया होने लगती है। वेदना तरंगों के समान ही संज्ञा तरंगें भी उत्पन्न-नष्ट होती रहती हैं किन्तु समाप्त नहीं होतीं। संज्ञा का निरोध तो अरहन्त अवस्था प्राप्त होने पर ही संभव होगा।
संज्ञा के निरोध की ओर ले जाने वाला मार्ग
भगवान गौतम बुद्ध द्वारा प्रतिपादित आर्य अष्टांगिक मार्ग पर चलते हुए विपश्यना का सम्यक अभ्यास ही निरोध की ओर ले जाने वाला मार्ग है। विपश्यी साधक का प्रयास यही होना चाहिए कि अनित्य बोध पुष्ट करते करते सुनिश्चित करें कि चाहे जिस प्रकार की संवेदना हो, चाहे जिस कारण से हो, समता ही जागे। वेदनापच्चया तण्हा के बजाय वेदनापच्चया प्रज्ञा होकर संस्कारों का क्षय होता रहे।
संज्ञा से प्राप्त सुख-दुःख तथा धोखा
संज्ञा का काम जानना, स्मरण रखना एवं मूल्यांकन करना है। इन गुणों के कारण व्यवहार जगत में किसी कला या विषय विशेष की ओर व्यक्ति का झुकाव एवं ग्रहणशक्ति बढ़कर वह एक कुशल कलाकार, कुशल वैज्ञानिक, श्रेष्ठ खिलाड़ी आदि बन सकता है किन्तु इसके फलस्वरूप अति अहंकारी, हठधर्मी बनने का धोखा भी बढ़ जाता है जो अन्ततोगत्वा दुःख का कारण बन सकता है।
इंद्रियों के विषय शाश्वत नहीं रहते अतः उनसे उत्पन्न संवेदनाएं भी अनित्य होती हैं। अतः सुखद अनुभूतियां होने पर प्राप्त सुख भी शीघ्र समाप्त हो जाता है। फलस्वरूप सुख का एहसास भी जाता रहता है। वेदना से प्राप्त सुख-दुःख के समान ही संज्ञा का सुख-दुःख भी व्यक्ति के वश में नहीं है, यही दुःख है।
संस्कार स्कंध - व्याख्या एवं पहचान
संस्कार एक बहुआयामी शब्द है, इसके कई अर्थ हैं। छाप (impression), उपचार, प्रशिक्षण, कर्म (वर्तमान जीवन अथवा पूर्व जन्म के) आदि। विपश्यी साधक संस्कार को मानस के चार स्कंधों में से (विज्ञान, संज्ञा, वेदना व संस्कार) चौथा याने प्रतिक्रिया करने वाले स्कंध (खण्ड) के अर्थ में जानता है। वास्तव में व्यक्ति के 6 इंद्रियों पर (ज्ञानेन्द्रिय) विषय टकराने पर जो प्रतिक्रिया होती है वह मानस पर एक अमिट छाप छोड़ती है, यही संस्कार है।
10 दिवसीय शिविरों में पूज्य गुरुजी मानस के बारे में बताते समय, इस बात का उल्लेख करते हैं कि 121 प्रकार के चित्त तथा 52 प्रकार की चित्तवृत्तियां होती हैं। संज्ञा एवं वेदना छोड़कर शेष 50 चित्तवृत्तियों को ही संस्कार कहा जाता है। चित्तवृत्ति चित्त के साथ-साथ उत्पन्न होती है, चित्त के साथ नष्ट होती है, दोनों का विषय एक होता है तथा दोनों का इंद्रिय (आयतन) भी एक होता है।
संस्कार - समुदय एवं व्यय
चित्त (विज्ञान) एक रूपरहित अति सूक्ष्म स्पंदन है जो इंद्रियों पर टकराने वाले विषयों को केवल जानने का (पहचानने का नहीं) काम करता है (only aware of sense objects) वह अपने आप में 'विषय' अच्छा है या बुरा यह निश्चित नहीं कर सकता। यही काम चित्तवृत्तियां करती हैं। किसी क्षण में चित्त कुशल है, अकुशल है अथवा किरीय (functional) है यह चित्त के साथ उत्पन्न चित्तवृत्तियों पर निर्भर करता है। जब कोई विषय संबंधित इंद्रियों पर टकराने पर कुशल अथवा अकुशल चित्त का उदय होता है तब कुछ कुशल अथवा अकुशल चित्तवृत्तियां भी साथ-साथ जागती है। उपस्थित चित्त तथा चित्तवृत्तियों के समूह को एकजुट रखकर शारीरिक, वाचिक अथवा मानसिक कर्म सम्पन्न करने का कार्य "चेतना" (Volition) नामक चित्तवृत्ति करती है। वह प्रक्रिया काफी पेचीदा (complicated) है, परंतु एक दो उदाहरणों द्वारा इसे समझना आसान होगा।
कोई विषय टकराने पर उत्पन्न चित्त एवं चित्तवृत्तियों के समूह में मानो चित्त अध्यक्ष, चेतना - सचिव तथा शेष चित्तवृत्तियों सदस्य के रूप में काम करते हैं। किसी भी कंपनी में या समूह में, सचिव को स्वयं का कार्य तो करना ही पड़ता है और साथ-साथ सभी सदस्यों के काम पर निगरानी रखकर, सबको साथ लेकर कार्य सम्पन्न करना पड़ता है। चेतना जितनी सबल, उतना कर्म सबल और चेतना दुर्बल तो कर्म भी दुर्बल होगा।
चेतना के कार्य को एक और उदाहरण से समझें। भाप के इंजन से हम भलीभांति परिचित हैं। उसमें बॉयलर में उत्पन्न भाप की शक्ति से ही, विभिन्न कलपुर्जे, सुसंगति से प्रचालित होने पर इंजन अपना कार्य कर सकता है। हमारा शरीर भी इंजन जैसा ही है। हृदयवस्तु/मनोद्वार (जो चित्त का स्रोत है) भाप पैदा करने वाले बॉयलर के समान है। चेतना भाप की शक्ति की तरह, शरीर के भिन्न अवयवों को एवं मन को, वायु धातु के माध्यम से प्रचालित करती है। उदाहरण के लिए क्रोध से संबंधित चेतना, शरीर के अवयवों को तथा मन को इस प्रकार प्रेरणा देगी जिससे चेहरे के हावभाव तथा हाथ आदि से क्रोध अभिव्यक्त होगा। ज्यादा शक्तिशाली चेतना हो तो व्यक्ति गाली देगा या मारपीट करेगा। क्रोध की बजाय बहुत श्रद्धा मन में जागी हो तो दान करने की चेतना जागेगी, चेहरे पर प्रसन्नता होगी मन में मोद जागेगा। इस प्रकार कुशल-अकुशल कर्मो के पीछे कुशल-अकुशल चेतना की शक्ति कार्यरत होती रहती है।
जो लोग चेतना के कार्य से अनभिज्ञ हैं उनके मन में सत्काय दृष्टि या देहात्म बोध के कारण, सारी क्रियाएं मैं कर रहा हूं या मेरे अंदर कोई अलग आत्मा या सारतत्व इन क्रियाओं के लिए कारणीभूत हो रहा है यह मिथ्या भाव दृढ़ होते जाता है।
संस्कारों से प्राप्त सुख, निहित धोखा तथा छुटकारा
भौतिकता (materiality), वेदना तथा संज्ञा से प्राप्त सुख दुःख आदि पर पहले ही विस्तार से विचार किया गया है। उस पर पुनः गौर करने पर जीवन, दुःख ही है यह समझते देर नहीं लगेगी। व्यवहार जगत में जिसे हम सुख कहते है वह भी दुःख ही है क्योंकि अनित्य है। तथाकथित सुख अनन्तकाल तक टिकाये रखना या शारीरिक-मानसिक दुःखों से तत्काल छुटकारा पाना दोनों बातें किसी के वश में नहीं हैं। यह दुःखदायी है। सुखद दुःखद संवेदनाओं के प्रति यह तृष्णा संस्कारों के कारण ही है। जीवनभर प्रतिक्षण राग-द्वेष के संस्कारों का सामान्य व्यक्ति संवर्धन ही करते रहता है तथा भवचक्र का बंधन मजबूत करते रहता है। और इसका कारण अविद्या ही है। यह शरीर मैं हूं, चित्त भी मैं ही हूं सुख-दुःख मुझे ही होते हैं, यह मिथ्या दृष्टी (सत्काय दृष्टि) ही अविद्या है, बेहोशी है, विमूढ़ता है।
पटिच्चसमुष्पाद समझाते समय पूज्य गोयन्का गुरुजी बताते हैं
"अविज्जा-पच्चया संखारा, संखार-पच्चया विज्ञाणं, विज्ञाण-पच्चया नामरूपं,
नामरूप-पच्चया सळायतनं, सळायतन-पच्चया फस्सो, फस्स-पच्चया वेदना,
वेदना-पच्चया तण्हा, तण्हा-पच्चया उपादानं, उपादान-पच्चया भवो. भव-पच्चया जाति, जाति-पच्चया जरामरणं-सोक-परिदेव-दुक्ख-दोमनस्सुपायासा सम्भवन्ति । एवमेतस्स केवलस्स, दुक्खक्खन्धस्स समुदयो होति।"
देख लिया कि किस प्रकार यह दुःख का पहाड़ खड़ा होता है। सारा खेल समझ में आ गया। यह अविद्या, यह बेहोशी ही दुःख का मूल कारण है। इस अविद्या को जड़ से काटें :
"अविज्जाय त्वेव असेस विराग-निरोधा संखार-निरोधो, संखार-निरोधा विज्ञाण-निरोधो, विज्ञाण-निरोधा नामरूप-निरोधो, नामरूप-निरोधा सळायतन-निरोधो, सळायतन-निरोधा फस्स-निरोधो, फस्स-निरोधा वेदना-निरोधो, वेदना-निरोधा तण्हा-निरोधो, तण्हा-निरोधा उपादान-निरोधो, उपादान-निरोधा भव-निरोधो, भव-निरोधा जाति-निरोधो, जाति-निरोधा जरामरणं-सोक-परिदेव-दुक्ख-दोमनस्सुपायासा निरुज्झन्ति । एवमेतस्स केवलस्स, दुक्खक्खन्धस्स निरोधो होति ति।"
कारण का निवारण समझ में आ गया। कितना भी बड़ा दुःखों का पहाड़ क्यों न खड़ा कर लिया हो, सारा-का सारा समाप्त हो जाएगा। अविद्या को जड़ से उखाड़ना सीखें। कैसे उखाड़ें ? दुःख को देख लिया। दुःख के कारण को देख लिया, अविद्या की शृंखला देख ली। जीवित हैं तो नाम-रूप की धारा चलेगी ही। इंद्रियां भी अपना काम करेंगी ही। स्पर्श भी होगा ही। संवेदना भी होगी ही। और जब-जब संवेदना होगी, पुराने स्वभाव के कारण तृष्णा जागेगी। सुखद होगी तो राग की, दुःखद होगी तो द्वेष की। बस, यहीं रोक लगानी होगी। वेदना तो हो, लेकिन वदना-पच्चया तण्हा' के स्थान पर 'वेदना-पच्चया पञ्ञा हो, प्रज्ञा जागे। हर वेदना के साथ प्रज्ञा जागेगी तो अविद्या के कारण जो 'दुःख-चक्र' चल रहा था, वह पलट जायेगा धर्म-चक्र' में।
क्या है धर्म-चक्र ? जब-जब वेदना जागे, हर वेदना प्रज्ञा जगाए - अनित्य है, नश्वर है। देख तो सही इसे। राग मत पैदा कर। द्वेष मत पैदा कर। हर संवेदना के साथ जितनी देर प्रज्ञा जागती है, नए संस्कार नहीं बनते। इतना ही नहीं, पुराने संस्कार भी कटने लगेंगे।
"खीणं पुराणं नव नत्थि संभवं" : नया नहीं बनने पायेगा और पुराना क्षीण हो जायेगा।
हर विपश्यना-साधक को बुद्धि के स्तर पर तो खूब समझ में आ जाता है कि - भवचक्र क्या है ? दुःख चक्र क्या है ? किन्तु आवश्यकता तो अनुभव के स्तर पर जानकर उसे सतत व्यवहार में उतारने की है। इसके अभाव में होता यह है कि जिस प्रकार शराब से होने वाला नुकसान भली भाँति जानते हुए भी, शराबी का व्यसन छूटता ही नहीं, उसी प्रकार अधिकांश साधक साधना करते हुए भी, राग-द्वेष की आदत से बाहर निकल नहीं पाते। इसका कारण भी अंतर्मन की गहराइयों तक पैठ कर चुका देहात्म बोध याने सत्काय दृष्टि है। पूज्य लैडी सयाडो द्वारा उनकी "उत्तम पुरुष दीपनी" में एक प्रयोग करने का सुझाव दिया गया है। कुछ संशोधन के साथ वह प्रस्तुत है।
"आपके मन में किसी खाद्य वस्तु के लिये अत्यधिक लोभ जागा है यह बात आप समझ भी गये है और उसे प्राप्त करने के लिए मान लो आप किसी दुकान पर लंबी कतार में खड़े हैं और वह पदार्थ खत्म होने की संभावना है तो इस समय आप अपनी बेचैनी को महसूस करने की कोशिश करें। यदि आप आंखें खुली रहते हुए संवेदनाओं को महसूस कर सकते हैं तो उन संवेदनाओं का उदय-व्यय महसूस करें। अब मान लो आपको वह वस्तु मिल चुकी है। आप देखेंगे कि वह बेचैनी तो पदार्थ मिलते ही समाप्त हो जाती है, खाने के उपरान्त लोभ भी समाप्त हो जाता है। यह प्रयोग आप पूरी भावना से यदि करेंगे तो भावनाओं को, विकारों को, जागरूकता के साथ देखने का तरीका समझ में आएगा। दैनंदिन व्यवहार में ऐसे अनेक प्रसंग आते रहते हैं। इससे जागरूक रहकर उत्पन्न चेतना को देखने की आदत बन जाएगी"।
एक प्रयोग और किया जा सकता है। "आपके मन में कभी वासना जागी हो तो उस समय आप अपनी संवेदनाओं को देखें। कैसी सुखद तरंगें पूरे शरीर में व्याप्त हैं। वासना पूर्ति का अवसर तो नहीं है। उन सुखद संवेदनाओं को तटस्थ भाव से, समता से देखने का प्रयास करें। आप देखेंगे कि वासनामय चेतना 10 या 15 मिनट में बदल गई तथा आपका ध्यान किसी अन्य बात पर चला गया है। रात में कोई डरावना सपना देखकर नींद खुल गयी है, तो भय के कारण उत्पन्न संवेदनाओं को व दिल की तेज धड़कनों को देखें। कुछ समय बाद भय समाप्त हो जाएगा, अन्य चेतना जागेगी।
इस प्रकार के प्रयोग करने के अवसर दैनिक जीवन में अनेकों बार आते हैं। उन अवसरों का सही लाभ उठाते रहने पर, आपके ध्यान में यह बात आ जाएगी कि "कुछ परिस्थितियों के रहते कुछ मनोशारीरिक घटनाक्रम चलने लगता है। उन परिस्थितियों के समाप्त होते ही वह घटनाक्रम बंद हो जाता है।" इसके साथ यदि यह भी समझ में आ जाए कि इसमें व्यक्तित्व का कोई योगदान नहीं है तथा उन परिस्थितियों के पुनः उत्पन्न होने पर उस घटनाक्रम की पुनरावृत्ति होगी। यह सब एक यांत्रिक प्रक्रिया है, तो सम्यक दर्शन (सम्मादिट्ठी) होने लगा। अर्थात सत्काय दृष्टि का बंधन ढीला पड़ने लगा। इस प्रकार ध्यान के साथ दैनिक व्यवहार में भी जागरूकता आने से भगवान बुद्ध के अंतिम संदेश की सत्यता का अनुभव दृढ़ होता जाएगा इसमें संदेह नहीं है।
"वयधम्मा संखारा अप्पमादेन संपादेथ'
भोपाल 15 अप्रेल 2014
अनात्म बोध पर कुछ वाचन सामग्री आपके अवलोकनार्थ संलग्न कर रहा हूं। पूज्य गोयन्का गुरुजी एवं बर्मी भिक्षु लैडी सयाडो द्वारा लिखित साहित्य में, अनात्म बोध पर बहुत उपयुक्त जानकारी उपलब्ध है किन्तु वह बिखरी हुई है। उस बिखरी जानकारी को संकलित कर, उसे एक सिलसिले (sequence) में रखने का मेरा यह सीमित प्रयास है। इस लेख का लक्ष्य ऐसे गंभीर पुराने साधक है. (और इनकी संख्या काफी बड़ी है, जिन्होंने सतिपट्ठान सहित विपश्यना के 5 से अधिक शिविर कर लिये हैं, और जिन्हें अनात्म बोध पर हिंदी में विस्तार से जानने एवं मार्गदर्शन की तलाश है। यह जानकारी सही तथा त्रुटीरहित हो जाय और तत्पश्चात पुराने साधकों को आसानी से उपलब्ध हो, ऐसी मेरी मन्शा है।
आपसे नम्र निवेदन है कि प्रस्तुत सामग्री में कोई त्रुटी हो, अथवा इसे और उपयुक्त बनाने हेतु आपके कोई सुझाव अथवा टिप्पणी हो, तो कृपया मुझे सूचित करने की कृपा करें। आपको कष्ट दे रहा हूं इसके लिए क्षमस्व ।
जिस साहित्य से यह जानकारी एकत्रित की गई है उसकी सूची भी प्रस्तुत है।
सादर प्रणाम एवं मंगल कामनाओं के साथ,
भवदीय
रमेश पंडित (वरिष्ठ, सहा. आचार्य)
मोबाईल – 09425689376
पता - डी-2/291, दानिश नगर होशंगाबाद रोड़, भोपाल-462026
List of Books Reffered :
1. Manuals of Dhamma - Ledi Sayadaw
2. Manual of Excellent Man - Ledi Sayadaw
3. Manual of Abhidhamma - Narad Mahathera
4. Abhidhamma in Daily Life - UKo Lay
5. प्रवचन सारांश - स. ना. गोयन्का
6. महासतिपट्ठान सुत्त - स. ना. गोयन्का