ऐसा मैने सुना है। एक समय भगवान् (बुद्ध) श्रावस्ती के पूर्वाराम के, मृगारमातृप्रासाद में साधनाहेतु विराजमान थे। उस समय किसी दिन सायङ्काल भगवान् समाधि से उठ कर पश्चिम की ओर पीठ किये धूप ले रहे थे।
उसी समय आयुष्मान् आनन्द, भगवान् को प्रणाम कर उन के शरीर को हाथों से दबाते हुए यों बोले- “आश्चर्य है, भन्ते ! अद्भुत है, भन्ते ! अब आप के शरीर की कान्ति पूर्ववत् नहीं रह गयी, आप के शरीर के सभी अवयव शिथिल पड़ गये। इतना ही नहीं,
समस्त शरीर में झुर्रियाँ भी पड़ गयी हैं, शरीर आगे की ओर झुक गया है, ये इन्द्रियाँ भी पूर्वापेक्षया विकृत ही होती जा रही हैं, जैसे-चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा एवं कायेन्द्रिय।"
"हाँ, आनन्द ! ऐसा ही होता है जब यौवन (जवानी) पर बुढापा, आरोग्य पर रोग एवं जीवन पर मृत्यु आरूढ हो जाती है। उस समय किसी के शरीर की कान्ति पूर्ववत् (युवावस्थातुल्य) नहीं रह जाती, सभी गात्र शिथिल हो जाते हैं, उन में झुर्रियाँ पड़ जाती हैं, शरीर भी आगे की ओर झुक जाता है। सभी इन्द्रियों में, जैसे-चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा एवं काय-इन सभी में पहले की अपेक्षा से अब विवर्णता (विरूपता) दिखायी देने लगती है।"
भगवान् ने यह कहा। अथ च, गाथाओं के माध्यम से यों बोले-

ताव मनोरमं बिम्बं, जराय अभिमद्दितं ।।"

अर्थात
अरी ओ वृद्धावस्था ! तुझे धिक्कार है ! तुम शरीर की सुन्दरता को नष्ट कर देती हो। कोई भी शरीर तभी तक सुन्दर लगता है जब तक कि वह तुम्हारे द्वारा अभिमर्दित न कर दिया जाय (मसल न डाला जाय)॥

न किञ्चि परिवज्जेति, सब्बमेवाभिमद्दती" ति ॥

अर्थात
अधिक से अधिक जो सौ वर्ष जीवित रहता है, वह भी एक न एक दिन मृत्यु द्वारा गृहीत हो ही जाता है। वह (मृत्यु) किसी को नहीं छोड़ती। सभी को एक न एक दिन मसल देती है, पीस डालती है'।
जराधर्मसूत्र समाप्त।
संयुक्तनिकाय ।।।