ऐसा मैने सुना है। एक समय भगवान् (बुद्ध) अङ्ग देश के आपण नामक कस्वे में साधनाहेतु विराजमान थे। वहाँ कभी भगवान् ने आयुष्मान् सारिपुत्र से यह "
पूछा- 'सारिपुत्र! जो तथागत में श्रद्धालु हैं क्या उस को तथागत में तथागतद्वारा प्रतिपादित धर्म में कोई शङ्का या सन्देह रह जाता है ?""भन्ते ! जो आर्यश्रावक तथागत या तथागत प्रतिपादित धर्म के प्रति श्रद्धालु है उसको उन में कैसे कोई शङ्का या सन्देह रह जायगा। भन्ते ! श्रद्धालु एवं प्रयत्नशील आर्यश्रावक से यही आशा की जाती है कि वह प्रयत्नवान् हो कर ऐसी साधना करेगा कि उस के अकुशल धर्मों का प्रहाण होने लगे तथा कुशल धर्मों का उत्पाद होने लगे।
वह स्थिर हो कर एतदर्थ प्रयत्नशील रहे, साधना की कठिनाइयों को सहने की क्षमता रखे। भन्ते ! इस
में जो उस का यह वीर्य है यही-'वीर्येन्द्रिय' है।
"ऐसी स्थिति में पहुँचने पर, भन्ते! उस से यह भी आशा की जा सकती है कि वह स्मृतिमान् रहेगा, बहुत समय पहले हुए किया हुआ कार्य या बोला हुआ वचन भी उस को स्मरण रहेगा। भन्ते ! ऐसी स्मृति ही उस की स्मृतीन्द्रिय है।
"तथा भन्ते! अब उस से यह भी आशा की जाती है कि वह व्यवसर्ग का आलम्बन कर, समाधि तथा चित्त की एकाग्रता प्राप्त कर लेगा। भन्ते ! यह समाधि ही उस की समाधीन्द्रिय है।
"तथा भन्ते ! उस से यह भी आशा की जा सकती है कि वह यह समझ लेगा कि यह संसार अनादि है। अविदया के बन्धन (नीवरण) में बँधे हुए को इस का पूर्व भाग जाना नहीं जाता। तृष्णासंयोजनों में जकड़े हुए, आवागमन के संवरण में पड़े प्राणियों को उसी अविदया के निरोध से वह शान्त पद-सभी संस्कारों का दब जाना, सभी उपाधियों से मुक्ति, तृष्णाक्षय, विराग, निरोध, निर्वाण-सिद्ध हो जाता है । भन्ते ! उस की यह प्रजा ही प्रज्ञेन्द्रिय है।
"भन्ते ! वह श्रद्धालु आर्य श्रावक यों प्रयत्न एवं उदयोग करते हुए, स्मृति रखते हुए, समाधिभावना करते हुए तथा ऐसा ज्ञान रखते हुए यह श्रद्धा करता है- 'मैंने जिन धर्मों को पहले सुना ही था उन्हें आज स्वयं साधना करते हुए अनुभव कर रहा हूँ। उन का
प्रज्ञापूर्वक अन्वीक्षण कर रहा हूँ।' भन्ते! उस की यह श्रद्धा ही श्रद्धेन्द्रिय है।"
'साधु! साधु सारिपुत्र ! जो आर्य श्रावक तथागत या तथागतप्रतिपादित धर्म के प्रति श्रद्धालु है...पूर्ववत्... (सारिपुत्रकथित पाठ की आवृत्ति कर लें) यह श्रद्धा ही श्रद्धेन्द्रिय है।"
संयुक्तनिकाय ।।