ऐसा मैंने सुना है (कि) एक समय भगवान् (बुद्ध) राजगृहस्थित, बालरोगविशेषज्ञ जीवक वैद्य द्वारा निर्मापित, आम्रवन में साधनाहेतु विराजमान थे। उस समय जीवक वैद्य जहाँ भगवान् विराजमान थे, वहाँ पहुँचे; वहाँ पहुँच, भगवान् को प्रणाम कर, एक ओर बैठ गये।
एक ओर बैठे वैद्य जीवक भगवान् से यों बोले - "भन्ते! सुना है- 'लोग आपको मांस-भोजन कराने के उद्देश्य से प्राणियों का वध करते हैं और आप जानते बूझते उस मांस का भोजन कर लेते हैं, उसे स्वीकार कर लेते हैं ? भन्ते! जो लोग यह कहते हैं- 'हमने यह मांसभोजन श्रमण गौतम के लिये बनाया है, वे (बुद्ध) इस बात को जानते हुए भी उसे स्वीकार कर लेते हैं।' भन्ते! क्या वे लोग आपके विषय में सत्य कहते हैं, या मिथ्या कहकर आप पर झूठा उपालम्भ तो नहीं लगाते? क्या वे धर्मानुसार ही बात करते हैं? इससे किसी धर्मानुसार वचन-अनुवचन की निन्दा तो नहीं होती?"
"जीवक! जो लोग यह कहते हैं- श्रमण गौतम... स्वीकार कर लेते हैं'; वे मुझ पर झूठा आरोप लगाते हैं, वे मेरे बारे में सच्चाई नहीं कहते, न हुई बात ही कहते हैं । जीवक! मैं तीन बातों से मांस को 'अभोज्य' मानता हूँ-
(१) अपने लिये मांस कटते हुए देखना, (२) अपने लिये मांस कटते हुए सुनना तथा (३) वैसा (अपने लिये कटने का) सन्देह (शङ्का) होना - जीवक! इन तीन बातों से युक्त मांस को मैं अभोज्य' (=अग्राह्य) मानता हूँ।
किन्तु जीवक! इन तीन बातों से युक्त किसी भी मांस को मैं अपने लिये भोज्य' मानता हूँ- (१) अपने लिये कटते हुए मांस को न देखना (२) न सुनना तथा (३) न वैसा (अपने लिये कटने का) सन्देह होना।
जीवक! इन तीन बातों से युक्त मांस को मैं भोज्य’ मानता हूँ।


"जीवक! यहाँ कोई भिक्षु किसी गाँव या कस्बे के पास रहकर साधना करता है। वह मैत्रीसहगतचित्त से एक तरफ जाता है, उसी तरह दूसरी, तीसरी, चौथी तरफ भी जाता है। इस तरह -सब तरफ निर्वैर, दयामय, विपुल मैत्रीयुक्त भावना से समय वह ऊपर नीचे, आगे पीछे, आड़े टेढ़े- लोक में विचरण करता है। उसको कोई गृहपति या उसका पुत्र वहाँ पहुँचकर उसे दूसरे दिन के लिये, भोजनहेतु निमन्त्रित करे । वह भिक्षु यदि चाहे तो निमन्त्रण स्वीकार कर लेता है।
वह उस रात्रि के बीतने के बाद, दूसरे दिन पूर्वाह्नकाल में पहनकर, पात्र चीवर ले. उस गृहपति या गृहपतिपुत्र के घर पहुँचता है, पहुँचकर प्रज्ञप्त आसन पर बैठता है। उसको गृहपति या गृहपतिपुत्र अच्छे अच्छे खाद्य पदार्थ परोसता है। उस समय उस भिक्षु को यह नहीं होता- 'अच्छा हो कि यह गृहपति या गृहपतिपुत्र मुझे अच्छे-अच्छे खाद्य पदार्थ परोसे'! उसे यह भी नहीं होता- अच्छा हो कि यह गृहपति या
गृहपतिपुत्र आगे भी मुझे ऐसे ही अच्छे अच्छे खाद्य पदार्थ परोसा करें। वह उस खाद्य पदार्थ (पिण्डपात) को विना किसी लोभ, लालच या आसक्ति के शरीरयात्रानिर्वाहमात्र के लिये, सावधान हो ग्रहण करता है।
तो क्या समझते हो, जीवक! उस समय उस भिक्षु को आत्मपीड़ा, परपीडा या उभयपीड़ा का ध्यान आने की बात (उसके) मन में उठेगी?"
"नहीं, भन्ते।"
"जीवक! तो वह भिक्षु उस समय अनवद्य (=निष्पाप) आहार ही ग्रहण करता है न?"
"हाँ भन्ते! मैंने सुना था कि 'ब्रह्मा मैत्रीविहार की साधना करते थे। किन्तु मैंने आपको साक्षात् देख लिया; आप भी मैत्रीविहार के साधक हैं।"
"जीवक! जिस राग, द्वेष या मोह से साधारणजन हिंसा में व्याप्त होते हैं. वह राग, द्वेष या मोह तथागत का समूल नष्ट हो चुका है, कटे सिर वाले ताड़ जैसा अभावयुक्त और भविष्य में उत्पन्न होने के लिये अयोग्य हो चुका है। जीवक! यदि तुमने मेरे लिये उपर्युक्त बातें यही सोचकर कही हैं तो ठीक है, इस विषय में मैंने तुम्हें अपनी वास्तविक स्थिति बता दी।
"हाँ, भन्ते! यही सोचकर मैंने आपके विषय में उक्त बातें कही थीं।"


“जीवक! यहाँ कोई भिक्षु कोई गाँव या कस्बे के पास जाकर करुणापूर्ण चित्ते से... मुदितापूर्ण चित्त से..... उपेक्षापूर्ण चित्त से.... समग्र लोक में विचरण करता है। उसको कोई गृहपति या गृहपतिपुत्र पूर्ववत् ..... आपके विषय में उक्त बातें कही थीं।"


“जीवक! जो कोई व्यक्ति तथागत या तथागतश्रावक के उद्देश्य से प्राणिवध करता है. वह पाँच स्थानों से अपुण्य कमाता है।
(१) जो वध के लिये प्राणी लाने की आज्ञा देता है, वह इस प्राणिवध की आज्ञा के कारण अपुण्यभाक होता है।
(२) जो इस प्राणी को, गला बाँध कर मारते- पीटते हुए वधस्थान तक लाता है, वह प्राणी को वध स्थान पर लाने के कारण पाप का भागी होता है।
(३) और जो प्राणिवध की आज्ञा देता है, वह तीसरा भी पापभागी है।
(४) मारे जाते समय प्राणी जिस दुःख या पीड़ा से कराहता है, उसका वह कराहना भी उन लोगों के लिये पाप ही उत्पन्न करता है।
(५) वह व्यक्ति भी पाप का ही भागी होता है, जो वह (प्राणिवध द्वारा पकाया) मांस तथागत या तथागतश्रावक को परोसता है।
जीवक! इस तरह जो प्राणी तथागत.... पाँच स्थानों से अपुण्य कमाता है।
ऐसा कहने पर वे बालरोगविशेषज्ञ जीवक वैद्य भगवान् से यों बोले- "आश्चर्य है, भन्ते! अद्भुत है, भन्ते! भिक्षु शास्ता से अनुमोदित व अनिन्द्य आहार ही ग्रहण करते हैं। अच्छा कहा, भन्ते! आपने बहुत अच्छा कहा...पूर्ववत् .. मुझे आज से यावज्जीवन अपना शरणागत उपासक समझें ।।"
जीवकसूत्र समाप्त
मज्झिमनीकाय ।।