"भिक्षुओ! ये पाँच वचनपथ (बात कहने के तरीके) हैं, जिनसे कि दूसरे तुमसे बात करते हुए कहते हैं :-
१. सामयिक या असामयिक,
२.यथार्थ या अयथार्थ,
३.स्नेहमय या कठोर,
४.सार्थक या निरर्थक,
५. मैत्रीपूर्ण चित्त या द्वेषपूर्ण चित्त से-
ये पाँच तरीके हैं बात करने के ।
यहाँ के हमें यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये-'चाहे दूसरे लोग मुझसे असामयिक बात ही क्यों न करें में उनसे सामयिक (प्रासङ्गिक) बात ही करूँगा'। 'चाहे दूसरे लोग मुझसे अयथार्थ बात ही क्यों न कर मैं तो उनसे यथार्थ बात ही करूँगा। चाहे दूसरे लोग मुझसे निरर्थक बात ही क्यों न करें मैं तो उनके सार्थक बात ही करूँगा। चाहे दूसरे लोग मुझसे पुरुष (कठोर) वाणी का ही व्यवहार क्यों न करें में तो उनसे स्नेहपूर्वक ही बात करूँगा।'
'चाहे दूसरे लोग मुझसे द्वेषपूर्ण व्यवहार ही क्यों न करें मैं तो उनसे मैत्रीपूर्ण वाग्व्यहार ही करूँगा। इस तरह मैं अपने चित्त को विकारयुक्त न होने दूंगा. न मुँह से कोई दुर्वचन बोलूंगा, मैत्रीभाव से सबका हितानुकम्पी होकर लोक में विचरण करूँगा विरोधियों के हृदय को मैत्रीभावना से आप्लावित करूँगा। आज से सबके प्रति अद्वेष भावना रखूंगा। भिक्षुओं तुम्हें इस तरह की शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये।
(१) पृथ्वीसमान चित्त से-
"भिक्षुओ! जैसे कोई पुरुष कुदाल और छाबड़ी लेकर आये और कहे- मैं इस पृथ्वी को अपृथ्वी' बना दूंगा (इसे नष्ट कर दूंगा)। यों कहकर वह (कुदाल से) यहाँ- वहाँ पृथ्वी को खोदे, मिट्टी इधर-उधर बिखेरे, यहाँ- वहाँ फेंके, यहाँ-वहाँ छोड़े, और कहता चले कि तू अपृथ्वी हुई! बस! अब तू अपृथ्वी हुई । तो भिक्षुओ! क्या तुम मानते हो कि वह पुरुष इस महापृथ्वी को अपृथ्वी कर देगा?।
"नहीं, भन्ते ।" "क्यों क्या कारण है?" "भन्ते वह महापृथ्वी गम्भीर है, अप्रमेय है, उसे इतनी सुगमता से अपृथ्वी नहीं बनाया जा सकता।
"इसी तरह, भिक्षुओ! ये पाँच वचन-पथ, जिनके द्वारा दूसरे तुमसे व्यवहार करेंगे भले ही वह सामयिक हो या असामयिक...पूर्ववत् ....। भिक्षुओ! वहाँ भी तुम्हें यों सीखना चाहिये- 'ये दूसरे कुछ भी कहते रहें, हमारा चित्त इनकी बातों से विकृत नहीं होगा, न इनके प्रति कोई पापमय इच्छा करेगा, या कठोर वाणी बोलेगा, हम तो इनके हितानुकम्पक ही रहेंगे, इनके प्रति मैत्री व्यवहार ही रखेंगे, द्वेषभाव नहीं। उन पुरुषों के साथ मैत्रीसहगत चित्त से ही व्यवहार करेंगे. पृथ्वीसमान चित्त से... व्यवहार करेंगे। भिक्षुओ! तुम्हें ऐसा सीखना चाहिये।
(२) आकाशतुल्य चित्त से-
"भिक्षुओ! जैसे कोई पुरुष लाक्षा या हलदी लेकर आये, नीला या मंजीठ रंग लेकर आये, और वह यह कहने लगे- 'मैं इस समग्र आकाश को रूपवान् बना दूंगा. इस में नाना प्रकार से आकार बना दूंगा।' भिक्षुओ! क्या तुम मानते हो कि वह पुरुष वस्तुतः ऐसा कर पायगा?
"नहीं, भन्ते । “ऐसा क्यों?" "इसलिये कि आकाश तो नीरूप है. दर्शनरहित है. उसको रूपवान् बनाना सम्भव नहीं है। केवल उसे ऐसा करते हुए महान् कष्ट ही होगा।""इसी तरह भिक्षुआ. तुम्हें यही सीखना चाहिये कि दूसरे भले ही तुम से असामयिक, निरर्थक सम्भाषण करते रहें तुम उनसे सामयिक उचित एवं धर्मानुकूल सम्भाषण करते हुए अपनी वाणी पर आकाशतुल्यचित्त से संयम रखोगे ।
(३) गङ्गासम चित्त से-
“भिक्षुओ! जैसे कोई पुरुष जलता हुआ तृणपुञ्ज लेकर आये और ऐसा कहे- मैं इस जलते हुए तृणपुञ्ज से इस समग्र गङ्गानदी के जल को तपा डालूँगा' तो क्या तुम मानोगे कि वह ऐसा कर पायेगा! "नहीं, भन्ते।” “सो क्यों?? "क्योंकि, भन्ते! वह गङ्गा नदी अथाह जल से भरी है, उसका इस अल्प तृणपुञ्ज से क्या बनने-बिगड़ने वाला है! हाँ! वह इस व्यर्थ के कार्य में अपने शरीर को कष्ट भले ही दे ले। "इसी तरह भिक्षुओ! तुम्हें तो अपने इन पाँचों वचनपथों को सुपरिशुद्ध ही रखना चाहिये, भले ही दूसरे लोग तुम्हारे साथ कैसा भी व्यवहार करते रहें।....!
(४) भस्त्रासम चित्त से-
"भिक्षुओ! जैसे कोई अच्छी तरह मर्दित (कमाई गयी), चिकनी की गयी, रूई की तरह मृदु, जिसका खुरदरापन या भरभरापन मिटा दिया गया हो, ऐसी कोई बिल्ली के चमड़े से नयी भस्त्रा (धोंकनी) हो । वहाँ कोई पुरुष आये और कहे कि मैं इस भस्त्रा को पुनः खुरदरी बना दूँगा, इसका मुलायमपन मिटा दूँगा। तो क्या भिक्षुओ! वह आदमी ऐसा कर सकता है?"
"नहीं, भन्ते। ऐसा क्यों?" "क्योंकि वह भस्त्रा पहले के लोगों द्वारा परिश्रम करके इतनी चिकनी बना दी
गयी है कि उसका चिकनापन मिटाना बहुत कठिन है। भले ही वह कितना ही कष्ट क्यों न उठाये!"
"इसी तरह, भिक्षुओ! तुम लोगों को भी इन पाँच वचनपथों में सावधान ही रहना चाहिये, भले ही दूसरे लोग तुम्हारे साथ कैसा भी अनुचित व्यवहार करते रहें । तुम्हें अपना चित्त पापमय बनाकर दूसरों के प्रति कटु, अनुचित, वचनों का प्रयोग नहीं करना चाहिये। और यह अभ्यास करना चाहिये कि दूसरे तुम से कितनी ही कठोर, कर्कश, कटु वाणी का व्यवहार क्यों न करें तुम्हें तो उनके साथ मृदु और संयत वाणी का ही व्यवहार करना है, मैत्री भावना से ही सब के साथ व्यवहार करना है। हमें इस मार्जारचर्म से बनी भस्त्रा के समान मृदु ही रहता है।....!
५.क्रकच (आरा) का दृष्टान्त
"भिक्षुओ! भले ही तुम्हें चोर लुटेरे दोनों और मूठ लगे आरे से चीर डालें, फिर भी उन लोगों के प्रति तुम्हारा मन दूषित नहीं होना चाहिये, और उन पर यही मनोभावना रखना चाहिये कि वह उनके प्रति कटुवाणी निष्ठुर वचनों का प्रयोग न करे? पापयुक्त व्यवहार न करे। मैत्रीभावना ही रखे।
"भिक्षुओ! तुम्हें अपने चित्त पर, वाणी पर, इस क्रकच (आरा) के दृष्टान्त को सामने रखते हुए, प्रतिक्षण निग्रह रखना चाहिये और इसे किसी भी क्षण अल्पमात्र भी नहीं विस्मृत करना चाहिये।
भिक्षुओ! क्या तुम चाहते हो कि वे वचनपथ तुम्हारा पीछा करते रहें, जिन्हें तुम थोड़ा- बहुत भी स्वीकार नहीं करते?" "नहीं, भन्ते!"
भिक्षुओ! इसलिये तुम स्वहित के लिये उस क्रकचोपम दृष्टान्त को मन में रखो। इसी से तुम्हारा स्थायी हित होगा।"
स्मृत्युत्पादनमात्र ही भगवान् का कर्तव्य है
इसके बाद भगवान् ने भिक्षुओं को बुलाया। भगवान् ने कहा- कुछ भिक्षुओं ने एक समय मेरे चित्त को प्रसन्न किया। मैंने उन भिक्षुओं को यों उपदेश किया- "भिक्षुओ! मैं (चौबीस घण्टों में) एक बार ही भोजन कर, कोई पीड़ा या किसी रोग का अनुभव नहीं करता। मैं उससे शरीर में हल्कापन, शक्ति व आराम से काम करने की स्थिति अनुभव करता हूँ।
भिक्षुओ! इसी तरह तुम भी एक बार ही भोजन करते हुए ध्यान भावना में लगो, इससे तुम्हें शरीर में नीरोगता, हल्कापन, शक्ति, काम करने की इच्छा अनुभूत होगी भिक्षुओ! मुझे उन भिक्षुओं को लम्बे- चौड़े उपदेश की आवश्यकता नहीं पड़ी। मेरा काम तो उन्हें उनका कर्त्तव्य स्मरण दिलाना भर था। और यह बात, भिक्षुओ! मेरे इस स्वल्प उपदेश मात्र से हो गयी।
"भिक्षुओ! जैसे समतलभूमियुक्त चौराहे पर कोई अच्छे घोड़े से जुता रथ हो उसमें चाबुक लगा हो। उस पर कोई कुशल सारथि, जो कि रथ चलाने में निपुण हो, आ बैठे. बाँये हाथ में घोड़ों की रास (रश्मि) और दाहिने हाथ में चाबुक लेकर जैसा चाहे जिधर चाहे उधर चलने के लिये जोड़ों को इशारा (संकेत) करे । और वे घोड़े उधर ही चलें, उधर ही घूमें; इसी तरह भिक्षुओ! मेरा उन भिक्षुओं को संकेत मात्र था, न कोई लम्बा-चौड़ा उपदेश, न कोई भाषण। बस! मैंने उनका कर्त्तव्य स्मरण कराया और वे अपने काम में लग गये। इस लिये भिक्षुओ! तुम्हें भी अपना चित्त अकुशल धर्मों को छोड़ने के लिये सन्नद्ध करना चाहिये, कुशल धर्मों की तरफ बढ़ने का प्रयास करना चाहिये। यों, तुम्हारी मेरे कहे इस धर्म-विनय में प्रवृत्ति होगी, तुम आगे बढ़ोगे, तुम्हें इसमें विपुलता मिलेगी।
"भिक्षुओ! जैसे किसी ग्राम या कस्बे के बाहर समीप ही कोई बड़ा शालवन हो। वह नाना वृक्षों से सघन हो, वहाँ कोई पुरुष आवे जो वन का हित चाहता हो, उसे और अच्छा देखना चाहता हो । वह उस वन में वृक्षों की टेढ़ी-मेढ़ी टहनियों को काटकर अलग कर दे, वन को साफ-सुथरा बना दे और वृक्षों की सीधी टहनियों की रक्षा करे, उन्हें आगे बढ़ने का अवसर दें। इस तरह भिक्षुओ! वह शालवन और भी सुन्दर लगने लगेगा, बढ़ेगा, पूर्वापेक्षया विशाल हो जायगा । इसी प्रकार भिक्षुओ! तुम्हें अकुशल धर्मों का त्याग कर, कुशल धर्मों की तरफ बढ़ना चाहिये । इसी से तुम्हारी उन्नति होगी।
भगवान् ने ऐसा कहा। प्रसन्नमन भिक्षुओ ने भगवान् के कथन का अभिनन्दन किया।