दक्षिणाविभङ्गसूत्र : भगवान् के निमित्त बनाया गया दुशाला






ऐसा मैने सुना (कि) एक समय भगवान् (बुद्ध) शाक्य प्रदेश स्थित कपिलवस्तु नगरी के न्यग्रोधाराम में साधनाहेतु विराजमान थे। वहाँ किसी समय महाप्रजापति गौतमी एक नवनिर्मित दुशाला लेकर जहाँ भगवान् विराजमान थे वहाँ पहुँच कर, भगवान् को प्रणाम कर एक ओर बैठ गयी। एक ओर बैठी महाप्रजापति गौतमी ने भगवान् से यों निवेदन किया- "भन्ते ! यह नया दुशाला आप के लिये मैने स्वयं काता है, स्वयं बुना है। अत: इसे, मुझ पर कृपा करते हुए, स्वीकार करें।" ऐसा कहे जाने पर भगवान् ने महाप्रजापति गौतमी को यों उत्तर दिया-
"गौतमी ! इसे आप सङ्घ को ही दे दें। सङ्घ को दान
करने से मेरा भी सम्मान हो जायगा, और सङ्घ का भी"। दूसरी बार भी....तीसरी बार भी महाप्रजापति
गौतमी ने....मेरा भी सम्मान हो जायगा, और सङ्घ का भी।

ऐसा कहे जाने पर, आयुष्पान् आनन्द ने भगवान् से यों निवेदन किया-
"भन्ते ! आप कृपा करके महाप्रजापति गौतमी द्वारा भेंट किया गया यह दुशाला स्वीकार कर लें।
भन्ते। यह महाप्रजापति गौतमी आपकी अभिभावक (-आपादिका) पालने पोषने वाली, आपकी माँ के देहपात के बाद आपको दूध पिलाने वाली है। यह आपकी मौसी है, इसने आपके साथ बहुत उपकार
किया है। आप ने भी, भन्ते, महाप्रजाति गौतमी का बहुत उपकार किया है; क्योंकि भन्ते! आपके ही कारण ये महाप्रजापति गौतमी बुद्ध की शरण में आयीं, धम्म की....सङ्घ की शरण में आयीं।
भगवान् (के उपदेश) के ही कारण महाप्रजापति गौतमी प्राणातिपात से, अदत्तादान से, कामभोगों के मिथ्याचार से, मृषावाद से, सुरा मैरेय मद्य आदि प्रमाद कराने वाले पदार्थों से विरत रहीं।
भगवान् के ही कारण, भन्ते ! ये महाप्रजापति गौतमी बुद्ध धर्म और सङ्घ के प्रति अत्यन्त श्रद्धा (=प्रसाद) युक्त हुई। उत्तम, आर्यजनप्रिय शील धर्मों से समन्वित हुई। और भन्ते ! आप के ही कारण ये दु:ख, दुःखसमुदय, दुःखनिरोध एवं दु:खनिरोधगामी मार्ग से निश्चिन्त (निक्कल) हुई। यों, भगवान् ने भी इन महाप्रजापति गौतमी के साथ बहुत उपकार किये हैं।

"बात यहाँ यह है आनन्द ! कि कोई प्राणी किसी न किसी अन्य प्राणी के उपदेश के सहारे ही बुद्ध का, धर्म का, सङ्घ का शरणागत होता है; परन्तु, आनन्द! उसके बदले यह जो (अपने से बड़ों के
प्रति) अभिवादन, प्रत्युपस्थान (=सेवा, टहल), हाथ जोड़ना, समीचीकर्म (मैत्रीपूर्ण आचरण), चीवर
पिण्डपात शयनासन भैषज्य-परिष्कार का देना है, उसे मैं इस प्राणी के प्रति किया गया प्रत्युपकार नहीं
कहता।

'आनन्द ! कोई प्राणी किसी प्राणी से सदुपदेश के सहारे प्राणातिपात,अदत्तादान, कामभोगों में मिथ्याचार, मृषावाद, सुरा मैरेय मद्य आदि प्रमाद कारणों से प्रतिविरत होता है, परन्तु उसके बदले में
अभिवादन.... भैषज्यपरिष्कार के देने से मैं प्रत्युपकार नहीं मानता।

"आनन्द! कोई प्राणी किसी प्राणी के सत्परामर्श के सहारे बुद्ध, धर्म एवं सङ्घ में....श्रद्धायुक्त होता है इसके बदले में इस प्राणी का उस प्राणी के लिये किये अभिवादन.... भैषज्यपरिष्कार-दान को मैं प्रत्युपकार नहीं मानता।

'आनन्द! कोई प्राणी किसी प्राणी के सत्परामर्श के सहारे दु:ख, दुःखसमुदय, दुःखनिरोध, दुःखनिरोधगामिनी प्रतिपदा के लिये निश्चिन्त होता है इस प्राणी का उस प्राणी के प्रति किये गये अभिवादन.... भैषज्यपरिष्कार के दानमात्र से प्रत्युपकार नहीं मानता।

🍂चौदह प्रातिपुद्गलिक दक्षिणाएँ🍂

"परन्तु, आनन्द ! ये चौदह प्रातिपुलिक (व्यक्तिगत) दक्षिणाएँ (दान) हैं। कौन सी चौदह?

"तथागत अर्हत् सम्यक्सम्बुद्ध के निमित्त कोई दान देता है- यह पहली वैयक्तिक दक्षिणा हुई।
'प्रत्येकसम्बुद्ध के निमित्त दान देता है- यह दूसरी... ।
'तथागत के ज्ञानी (अर्हत्) शिष्य के निमित्त....यह तीसरी....।
'अर्हत्त्वफल के साक्षात्कार में लगे भिक्षु के निमित्त....यह चौथी....।
"आनागामी भिक्षु के निमित्त....यह पाँचवी....।
'अनागामी फल के साक्षात्कार में लगे भिक्षु के निमित्त....यह छठी....।
"सकृदागामी के निमित्त....यह सातवीं....।
'सकृदागामी फल के साक्षात्कार में लगे....यह आठवीं....।
"स्रोतआपन्न के निमित्त....यह नवी....।
"स्रोतआपत्ति फल के साक्षात्कार में लगे....यह दसवीं....।
"ग्राम (या सङ्घ) के बाहर रहने वाले वीतराग के....यह ग्यारहवीं....।
"शीलवान् पृथग्जन के निमित्त....यह बारहवीं.... ।
"दुःशील पृथग्जन के निमित्त....यह तेरहवी.... ।
'पशु-पक्षियों के निमित्त दान दिया जाता है- यह चौदहवीं वैयक्तिक दक्षिणा हुई।

"वहाँ, आनन्द! पशु-पक्षियों के निमित्त किये गये दान की सौ गुना दक्षिणा वापसी की आशा रखनी चाहिये । दुःशील पृथग्जन के निमित्त....हजार गुना....। शीलवान् पृथग्जन के निमित्त....एकलाख गुना....।ग्राम (या सङ्घ) के बाहर के वीतराग के निमित्त.... एक करोड़गुना....। स्रोतआपत्तिफल के साक्षात्कार में लगे भिक्षु के सकृदागामीफल अप्रमेय दक्षिणा की आशा रखनी चाहिये। फिर स्रोतआपन्न.... सकृदागामिफल के साक्षात्कार में लगे.... सकृदागामी, आनागामिफल के साक्षात्कार में लगे अनागामी....अर्हत्त्वफल के साक्षात्कार में लगे, अर्हत्.... प्रत्येकसम्बुद्ध, तथागत सम्यक्सम्बुद्ध के निमित्त किये गये दान की तो बात ही क्या है!

🍂सात सङ्घगत दक्षिणाएँ🍂

"आनन्द! सङ्घ के लिये की गयी ये सात दक्षिणाएँ हैं। कौन सी सात?
बुद्धप्रमुख दोनों (भिक्षुसङ्घ एवं भिक्षुणीसङ्घ) सङ्घों के लिये दान करना-यह पहली सङ्घगत दक्षिणा हुई।
बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद दोनों सङ्घों को दान देना- यह दूसरी.... ।
केवल भिक्षुसङ्घ को ही दान देना- यह तीसरी दक्षिणा....।
केवल भिक्षुणीसङ्घ को दान करना- यह चौथी....। इतने भिक्षु तथा इतनी भिक्षुणियों को दान देना- यह पाँचवीं....।
इतने भिक्षुओ को ही दान देना- यह छठी.... ।
इतनी भिक्षुणियों को ही दान देना- यह सातवीं सङ्घ के उद्देश्य से की गयी दक्षिणा हुई।

'आनन्द! आगामी (भविष्यत्) काल में ऐसे भी भिक्षु होंगे जो नाममात्र के एवं केवल काषायवस्त्रधारी होंगे, परन्तु उनका चरित्र दूषित होगा, पापमय आचरण होगा। उन दुःशील भिक्षुओ के सङ्घ को जो दान मिलेगा, आनन्द ! उस दान को भी मैं असङ्ख्य, अप्रमेय दक्षिणा वाला कहता हूँ। आनन्द! मैं किसी भी तरह से सङ्घ के लिये किये गये दान का महत्त्व व्यक्तिगत दक्षिणा से कम नहीं आँकता। अपितु सङ्घ के लिये किया गया दान ही अधिक महत्त्वशाली होता है।

🍂चार दक्षिणाविशुद्धियाँ🍂

"आनन्द! ये चार दान (दक्षिणा) की विशुद्धियाँ हैं। कौन सी चार?
(१) आनन्द! एक ऐसा दान होता है जो दायक (दाता) की ओर से तो शुद्ध होता है परन्तु प्रतिग्राहक की ओर से अशुद्ध। (अर्थात् उसका दाता तो सदाचारमय होता है परन्तु उसे लेने वाला कुपात्र)
(२) और आनन्द ! दूसरा दान वह होता है जिसका देने वाला सुपात्र हो परन्तु लेने वाला कदाचारी हो।
(३) और आनन्द! तीसरा दान वह होता है जिसके दाता, आदाता-दोनों ही दुराचारसम्पन्न हों।
(४) और चौथा दान वह होता है जिसके दाता, आदाता-दोनों ही सत्पात्र (शीलवान्) हों।

१. "कैसे, आनन्द ! कोई दान दाता की ओर से शुद्ध होता है और प्रतिग्राहक (लेने वाले) की तरफ से अशुद्ध होता है ? यहाँ, आनन्द ! यदि दाता शीलवान् हो, कल्याणधर्मा हो परन्तु उन दान को लेने वाले दुःशील हों, पापधर्मा हों तो, आनन्द ! ऐसा दान दाता की ओर से ही शुद्ध कहलाता है, लेनेवाले की ओर से नहीं।

२. "और कैसे, आनन्द! कोई दान लेने वाले की ओर से तो शुद्ध कहलाता है परन्तु देने वाले की ओर से नहीं? यदि, आनन्द ! दाता दुःशील एवं पापी हो ओर लेने वाला सुशील एवं कल्याणधर्मा हो तो ऐसा दान लेने वाले की ओर से.... ।

३."और, आनन्द! कौन दान न लेने वाले न देने वाले दोनों ही तरफ से शुद्ध नहीं होता? यहाँ, आनन्द ! दाता भी यदि दुःशील एवं पापी हों, और लेने वाले भी दुःशील एवं पापी हों तो ऐसा दान उभयपक्ष (दोनों ओर) से अशुद्ध कहलाता है।

४. "और, आनन्द ! कौन दान देने वाले और लेने वाले दोनों ही तरफ से शुद्ध होता है ? यहाँ, आनन्द ! यदि दाता और आदाता (प्रतिग्राहक)-दोनों ही शीलवान्, एवं कल्याणधर्मा हो तो, आनन्द! ऐसा दान उभयथा शुद्ध हुआ । "आनन्द ! इस तरह ये चार दान-शुद्धियाँ कहलाती हैं।"

भगवान् यों बोले। यह कह कर भगवान् ने इसी बात का गाथाओं के माध्यम से यों स्पष्टीकरण किया-

"जो दाता स्वयं शीलवान् है, जिसने देय धन धर्मपूर्वक अर्जित किया है, दानविधि भी प्रसन्न मन से करता है, और वह उस दान के प्रति आगामिकाल में सत्फल की आशा रखता हुआ श्रद्धा रखता है, ऐसा दान दाता की ओर से शुद्ध कहलाता है॥१॥

परन्तु जो दाता स्वयं दुःशील हो, उसका देय धन भी धर्मोपार्जित न हो और वह उस दान के प्रति आगामिकाल में सत्फल की आशा न रखता हुआ अश्रद्धापूर्वक किसी सुशील को दान करता है। ऐसा दान लेने वाले (प्रतिग्राहक) की तरफ से शुद्ध कहलाता है॥२॥

"जो स्वयं दुःशील, पापी हो और वैसों को अधर्मोपलब्ध धन अश्रद्धापूर्वक दान किया हो, और न उसे उस दान के प्रति आगामि काल में सत्फल की आशा या श्रद्धा है। ऐसा दान कोई विशेष फल नहीं
देता- ऐसा मैं कहता हूँ॥३॥

'और जो दाता स्वयं शीलवान् एवं कल्याणधर्मा होते हुए ऐसों को ही धर्मोपार्जित धन प्रसन्नतापूर्वक, आगामि काल में सत्फल की आशा में श्रद्धा रखता हुआ दान करता है, ऐसा दान अत्यधिक सुफल देने
वाला होता है-ऐसा मेरा कहना है॥४॥

"जो स्वयं वीतराग है तथा ऐसों को ही धर्मोपार्जित धन प्रसन्नतापुर्वक भविष्य में उसके फल में श्रद्धा रखता हुआ दान करता है वह दान सब दानों में श्रेष्ठ है॥५॥

दक्षिणाविभङ्गसूत्र समाप्त॥
मज्झिमनीकाय।

Premsagar Gavali

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