पूर्ण भिक्षु को भगवान् का उपदेश ऐसा मैंने सुना है (कि) एक समय भगवान् (बुद्ध) श्रावस्ती के.... जेतवन में साधनाहेतु विराजमान थे। तब आयुष्मान् पूर्ण सायङ्काल ध्यानभावना से निवृत्त हो जहाँ भगवान् विराजमान थे वहाँ पहुँचे। पहुँच कर भगवान् को प्रणाम कर एक ओर बैठ गये। एक ओर बैठे उन्होंने भगवान् से यों निवेदन किया- "अच्छा हो, भन्ते ! भगवान् मुझे संक्षेप से ऐसा उपदेश करें कि जिसे सुन कर उसके सहारे मैं एकाकी, एकान्तसेवी (व्यपकृष्ट), प्रमादरहित, उद्योगशील एवं संयतेन्द्रिय (प्रहितात्मा) हो कर साधना कर सकूँ।"
"तो, पूर्ण ! सुनो, उसे चित्त में भली भाँति बैठा लो।" 'अच्छा भन्ते !" कहकर पूर्ण ने भगवान् को प्रत्युत्तर दिया। भगवान् यों बोले-
"पूर्ण ! चक्षुर्विज्ञेय रूप मनुष्य को इष्ट कान्त मनाप प्रियरूप कामोपसंहित एवं रजनीय होते हैं।
जब भिक्षु इनका अभिनन्दन, स्वागत (अभिवादन) एवं अध्यवसाय करता है, यों अभिनन्दन आदि करते
हुए उसको तृष्णा (नन्दी) उत्पन्न होती है। पूर्ण ! 'उस तृष्णा की उत्पत्ति (समुदय) से दुःख की उत्पत्ति होती है'-ऐसा मेरा मानना है।
"पूर्ण ! जिह्वाविज्ञेय रस इष्ट....दुख की उत्पत्ति होती है- ऐसा मेरा कहना है।
'और पूर्ण ! श्रोत्रविज्ञेय.... घ्राणविज्ञेय.... जिह्वाविज्ञेय.... कायविज्ञेय..... मनोविज्ञेय धर्म जो कि
इष्ट कान्त.... दु:ख की उत्पत्ति होती है- ऐसा मेरा मानना है।
'और पूर्ण! चक्षुर्विज्ञेय रूप इष्ट कान्त....हों तो भी यदि भिक्षु उनका अभिनन्दन, स्वागत एवं अध्यवसाय न करे तो वहाँ अभिनन्दन आदि न करने से तृष्णा उत्पन्न नहीं होती, तृष्णा की उत्पत्ति न होने से दुःख की उत्पत्ति भी नहीं होती-ऐसा मेरा मानना है।
"और, पूर्ण! श्रोत्रविज्ञेय शब्द....पूर्ववत्....दु:ख की उत्पत्ति नहीं होती-ऐसा मेरा मानना है।
"पूर्ण! तुम मेरे इस संक्षिप्त उपदेश से उपदिष्ट होने के बाद किस जनपद में (रहते हुए) साधना करोगे?"
"भन्ते, मैं आप के इस संक्षिप्त उपदेश के सहारे, शूनापरान्तक नाम का जो जनपद है उसमें, रहकर साधना करूँगा।"
"अरे पूर्ण ! शूनापरान्तक जनपदवासी मनुष्य तो बहुत क्रोधी (चण्ड) है, कठोर व्यवहार वाले हैं। पूर्ण! यदि वे शूनापरान्तक जनपदवासी तुम्हारे साथ कुवाच्य (गाली-गलौंज) या अपशब्द बोलेंगे तो तब पूर्ण ! तुम्हारे मन में (उनके प्रति) क्या भाव होगा?"
"भन्ते ! यदि शूनापरान्तकवासी कुवाच्य या अपशब्द बोलेंगे तो मैं अपने मन में यही सोचूँगा कि शूनापरान्तकवासी तो बहुत भद्र हैं कि इन्होंने मुझे कुवाच्य कह कर ही छोड़ दिया और मुझ पर हाथ से प्रहार (थप्पड़) नहीं किया।"
"पूर्ण! यदि वे तुम्हें थप्पड़ों से मारेंगे तब तुम्हारे मन में क्या विचार होगा?"
"भन्ते ! तब भी मैं उनके विषय में यही सोचूँगा कि ये फिर भी अच्छे है; क्योंकि इन्होंने मुझे थप्पड़ मार कर ही छोड़ दिया, और इन्होंने मुझे पत्थरों से नहीं मारा। भन्ते ! मेरे मन में यही होगा।"
"....यदि वे पत्थरों से तुम पर प्रहार करेंगे तब....?"
"भन्ते ! यदि वे मुझ पर पत्थरों से प्रहार करेंगे तब भी.... इन्होंने मुझको लाठियों से नहीं पीटा।
भगवन् !...."यदि वे तुम्हें लाठियों (दण्ड) से पीटने लगेंगे तब....?"
"भन्ते ! यदि वे मुझ पर लाठियों से प्रहार करेंगे तब भी.... उन्होंने मुझ पर शस्त्र से प्रहार नहीं किया....।"
'पूर्ण! यदि वे तुम पर शस्त्र से प्रहार करेंगे तब....?"
'भन्ते! यदि वे मुझ पर शस्त्र से प्रहार करेंगे तब भी....इन्होंने मुझ पर तीक्ष्ण शस्त्र से प्रहार कर मुझे मार नहीं दिया।....?"
"पूर्ण! यदि वे तुझ पर तीक्ष्ण शस्त्र से प्रहार कर तुम्हारे जीवन को ही समाप्त करने का प्रयास करें, तब....?"
'भन्ते!....तब मेरे मन में यह होगा कि भगवान् के कुछ श्रावक अपने जीवन से किसी कारण निराश होकर, ऊब कर, घृणा कर, अपने शरीर को नष्ट करने हेतु अपने लिये शस्त्रपात का उपाय खोजते रहते हैं, मुझे तो यह उपाय अनायास मिल गया, अत: इसकी मुझे प्रसन्नता ही है।
"साधु, पूर्ण! साधु । इस तरह तो तुम पूर्ण ! उस शूनापरान्तक जनपद में भी शम-दमयुक्त रहते हुए सकुशल साधना कर ही सकते हो। अब तुम जैसा उचित समझो।"
तब आयुष्मान् पूर्ण भगवान् के वचनों का अभिनन्दन कर, आसन से उठ, भगवान् को अभिवादन एवं प्रदक्षिणा कर, शयनासन, सम्हाल, पात्र-चीवर ले, जिधर शूनापरान्तक प्रदेश था, उधर चारिकाहेतु चल पड़े। क्रमश: चारिका करते हुए वे, जहाँ शूनापरान्तक जनपद था, वहाँ पहुँचे। पहुँच कर आयुष्मान् पूर्ण उस जनपद में साधनाहेतु विचरण करने लगे।
वहाँ आयुष्मान् पूर्ण ने उस वर्षावास की अवधि में ही पाँच सौ उपासकों को ज्ञान-लाभ कराया, पाँच सौ उपासिकाओं को भी ज्ञान दिया और उन्होंने स्वयं भी, उसी वर्षावास की अवधि में, तीनों विद्याओं का साक्षात्कार किया। इसके बाद आयुष्मान् पूर्ण परिनिर्वृत हो गये।
तब बहुत से भिक्षु, जहाँ भगवान् साधनाहेतु विराजमान थे, वहाँ पहुँचे। वहाँ पहुँच कर भगवान् को प्रणाम कर एक ओर बैठे गये। एक ओर बैठे उन भिक्षुओं ने भगवान् को यह समाचार सुनाया कि-
"भन्ते ! अभी आप ने कुछ समय पूर्व जिस आयुष्मान् पूर्ण को संक्षिप्त उपदेश किया था वह मर (कालङ्कत) हो गया है। भन्ते ! उसकी क्या गति या क्या भविष्य (अभिसम्पराय) होगा?"
"भिक्षुओ! पूर्ण कुलपुत्र पण्डित, सत्यवादी, धर्मानुसार आचरण करने वाला था। उसने धर्माचरण
करते हुए मुझे भी कोई पीड़ा नहीं दी। भिक्षुओ ! पूर्ण कुलपुत्र तो परिनिर्वाण को प्राप्त हो चुका है!"
भगवान् ने यह कहा। सन्तुष्ट हो भिक्षुओं ने भगवान् के भाषण का अभिनन्दन किया।
पूर्णाववादसूत्र समाप्त॥
मज्झिमनीकाय