इसके पूर्व वह सैंतीस बोधिपक्षीय धर्मों को परिपुष्ट करता है। इन सैंतीस बोधिपक्षीय धर्मों का सार चार
आर्यसत्य है। इन चार आर्यसत्यों का सार आठ अंग वाला आर्यमार्ग है। इस आठ अंगवाले आर्यमार्ग का संक्षेप शील, समाधि और प्रज्ञा के तीन महत्वपूर्ण शिक्षापदों में निहित है। शील और समाधि आचरण से संबंधित हैं तथा प्रज्ञाजन्य 'विपश्यना' विद्या से।
कोई व्यक्ति शील, समाधि और प्रज्ञा में पूर्णतया प्रतिष्ठित हो जाता है, विपश्यना में पारंगत हो जाता है, तो ही विद्याचरणसंपन्न कहलाता है। विद्याचरण में भी विद्या यानी प्रज्ञामयी विपश्यना प्रमुख प्रधान है क्योंकि कोई व्यक्ति शील और समाधि संपन्न हो जाय, परंतु प्रज्ञा-विपश्यना संपन्न न हो, तो भवमुक्त अवस्था प्राप्त नहीं कर सकता। वैसे तीनों का अपना
अपना महत्व है। ये तीनों शुद्धधर्मरूपी तिपाई के तीन पाये हैं। तीनों एक दूसरे को सहारा देते हैं। एक दूसरे के उपकारक हैं, पूरक शील पालन किए बिना सम्यक समाधि का अभ्यास नहीं हो सकता।
सम्यक समाधि सदा स्वानुभूतिजन्य सत्य पर आधारित होती है, समता पर अवलंबित होती है। जिसे किसी प्रकार की मिथ्या समाधि का अभ्यास
करना हो यानी रागजन्य, द्वेषजन्य अथवा मोहजन्य काल्पनिक मान्यताओं के किसी आलंबन पर चित्त एकाग्र करना हो, उसके लिए शील की भूमिका
अनिवार्य नहीं होती। सम्यक समाधि महज चित्त की एकाग्रता नहीं है, अपितु "कुसलचित्तस्स एकग्गता" है।
शील, सदाचार का आधार होगा, तो ही चित्त कुशल होगा और ऐसे कुशल चित्त की एकाग्रता ही सम्यक समाधि होगी। समाधि सम्यक न हो, बल्कि अविद्या के घने अंधकार से आच्छादित हो, तो प्रज्ञा जगाने का काम आरंभ ही नहीं किया जा सकता, उसे परिपुष्ट करना तो बहुत दूर की बात है। जब शील शुद्ध हो, समाधि सम्यक हो, तब प्रज्ञा सरलता से जाग उठती है और निरंतर अभ्यास द्वारा परिपुष्ट हो जाती है।
प्रज्ञा जैसे जैसे पुष्ट होती जाती है, वैसे-वैसे शील का पालन सरल होता जाता है, वैसे-वैसे समाधि गहन होती जाती है। जैसे-जैसे शील और समाधि पुष्ट होते हैं, वैसे-वैसे प्रज्ञा अधिक बलवती होती जाती है। इस तरह तीनों एक दूसरे को बल प्रदान करते हैं। प्रज्ञा में अचल हुआ स्थितप्रज्ञ, शील और समाधि में भी अनायास ही अचल हो जाता है।
विद्या-संपन्न
विद्या का एक अर्थ इद्धि यानी ऋद्धि यानी सिद्धि भी है, जिसे प्राप्त कर बुद्ध सही माने में सिद्ध पुरुष होते हैं।
ये आठ विद्याएं अर्थात सिद्धियां हैं;-
(१) विपश्यना ज्ञान विद्या-
विपश्यना यानी विशेष रूप से देखने की विद्या । इससे नाम और रूप को अलग-अलग करके देख-जान लिया जाता है, एक दूसरे का पारस्परिक संबंध पूर्णतया स्पष्ट हो जाता है, जिससे कि ज्ञान-दर्शन विशुद्ध हो जाता है।
(२) मनोमय ऋद्धि ज्ञान विद्या-
इससे अपने इस शरीर से भिन्न, सभी अंग-प्रत्यंग और इंद्रियों से सर्वांग संपूर्ण एक अन्य मनोमय भौतिक शरीर का निर्माण किया जा सकता है।
(३) विविध ऋद्धि ज्ञान विद्या-
इससे एक से अनेक हो जाना, अनेक से फिर एक हो जाना; अंतर्धान होना, प्रकट होना; दीवार-प्राकार, पर्वत आदि को बिना छुए उनके आर-पार निकल जाना, जैसे शून्य में से निकल गया हो; पृथ्वी में ऐसे गोते लगाना, जैसे जल में लगा रहा हो; जल की सतह पर ऐसे चलना, जैसे ठोस धरती पर चल रहा हो; आकाश में पालथी मार कर ऐसे उड़ना, जैसे कोई
पक्षी उड़ रहा हो; सूर्य और चांद को अपने हाथ से छूना, थपथपाना; सशरीर ब्रह्मलोक की यात्रा करना; आदि अनेक ऋद्धियां होती हैं।
(४) दिव्य-श्रोत ज्ञान विद्या-
इससे मनुष्यों और देवों के, समीप और दूर के बोल सुने जा सकते हैं।
(५) पर-चित्त ज्ञान विद्या -
इससे अन्य प्राणियों के चित्त और चैतसिक अवस्थाओं को अपने चित्त से जाना जा सकता है।
(६) पूर्व-जाति-स्मरण ज्ञान विद्या -
इससे पचास, सौ, हजार, लाख ही नहीं प्रत्युत अनेक कल्पों के अनगिनत जन्मों की घटनाओं का स्मरण किया जा सकता है।
(७) दिव्य-चक्षु ज्ञान विद्या-
इससे यह देखा जा सकता है कि पूर्व काल के किन कर्मों के कारण कौन प्राणी कैसी सुगति या दुर्गति को प्राप्त हुआ है, कोई व्यक्ति किन कर्मों के कारण कहां, कैसी स्थिति में जन्म ले रहा है?
(८) आस्रवक्षय ज्ञान विद्या-
इससे यह ज्ञान दर्शन हो जाता है कि-
(क) यह आस्रव है यानी चित्त का मैल है,
(ख) यह इसकी उत्पत्ति है,
(ग) यह इसका निवारण है, और
(घ) यह इसके निवारण का उपाय है।
इसे देखते-देखते चित्त की नितांत आस्रव-विमुक्त अवस्था साक्षात कर ली जाती है। इन आठों ऋद्धि-विद्याओं में पहली अर्थात विपश्यना-ज्ञान-विद्या और आठवीं अर्थात आस्रवक्षय-ज्ञान-विद्या अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि पहली के अभ्यास द्वारा आठवीं विद्या सिद्ध होती है, तभी कोई व्यक्ति भव-संसरण से सर्वथा मुक्त होता है। शेष सारे अभिज्ञान, सारी ऋद्धियां समाधिजन्य हैं। अतः बिना विमुक्त हुए व्यक्तियों को भी उपलब्ध हो सकती हैं, भले कुछ कम मात्रा में उपलब्ध हों।
किसी सम्यक संबुद्ध का यह अभिज्ञान बल औरों की तुलना में कहीं अधिक होता है । सम्यक संबुद्ध की
पारमी संख्या में तिगुनी और परिमाण में कई गुना अधिक होती है। इसी कारण उनकी ये अभिज्ञान विद्याएं बृहत्तम होती हैं। ये आठों अभिज्ञान किसी सम्यक संबुद्ध को विद्या-संपन्न बनाते हैं।
चरणसंपन्न
चरण पंद्रह हैं-
बहुश्रुत, वीर्यवान,
(१) शील में पूर्णतया प्रतिष्ठित होना,
(२) इंद्रियों को संयमित करना,
(३) भोजन में मात्रज्ञ होना,
(४) जागरणशील होना,
(५) से (११) श्रद्धा, ह्री, अपत्रप से युक्त होना,
स्मृतिवान, प्रज्ञावान होना,
(१२) से (१५) चारों रूपावचर ध्यानों में परिपक्व होना।
इन पंद्रह धर्मों को धारण करने वाला व्यक्ति शील, समाधि और प्रज्ञा के क्षेत्र में कदम-कदम विचरण करता हुआ निर्वाण की ओर बढ़ता इसलिए ये चरण कहलाते हैं। इनमें पुष्ट होने वाला व्यक्ति चरण-संपन्न कहलाता है।
चरण वस्तुतः मुक्ति-पथ के पथिक के चरण हैं और विद्या है उसकी आँखें। दोनों की संपन्नता उसकी सम्यक संबोधि को परिपूर्णता तक पहुँचाती है, उसे सभी दुःखों से विमुक्त कराती है।
"यं वत्तं परिपूरेन्तो, सीलम्पि परिपूरति ।"
जो व्रत को परिपूर्ण करता हुआ शील को परिपूर्ण करता है।
"विसुद्धसीलो सपञो, चित्तेकग्गम्पि विन्दति ॥"
(वह) विशुद्ध शीलवान, सप्रज्ञ व्यक्ति चित्त-एकाग्रता अनुभव करता है।
"अविक्खित्तचित्तो एकग्गो, सम्मा धम्मं विपस्सति ।"
- अविक्षिप्त, एकाग्रचित्त हुआ व्यक्ति सम्यक प्रकार से धर्म की विपश्यना करता है।
"सम्पस्समानो सद्धम्मं, दुक्खा सो परिमुच्चति ॥"
(चूळव० ३८२, अन्तेवासिकवत्तकथा, तस्सुद्दान)
सम्यक रूप से सद्धर्म की विपश्यना करता हुआ वह दुःखों से पूर्णतया मुक्त हो जाता है।
दुःखों से नितांत विमुक्त हुए तथागत की विद्यासंपदा उन्हें सर्वज्ञता से परिपूर्ण करती है और चरणसंपदा महाकरुणा से। सर्वज्ञ होने के कारण तथागत लोगों की वास्तविक स्थिति को, उनके गुण दोषों को भली-भांति जान लेते हैं और महाकारुणिक होने के कारण उन्हें दोषों से दूर होने और गुणों में परिपुष्ट होकर मुक्त होने का मार्ग ज्ञापित करते हैं।
पुस्तक: तिपिटक में सम्यक संबुद्ध (भाग-2)
विपश्यना विशोधन विन्यास