चिरं तिठ्ठतु सद्धम्मो



चार स्मृतिप्रस्थान - चिरस्थायी सद्धर्म का रहस्य
एक समय आयुष्मान आनन्द और आयुष्मान भद्द पाटलिपुत्त (पाटलिपुत्र) के कुक्कुटाराम में विहार करते थे। तब आयुष्मान भद्द आयुष्मान आनन्द के पास गये। पास जाकर आयुष्मान आनन्द का अभिवादन कर एक ओर बैठ गये।
आयुष्मान भद्द आयुष्मान आनन्द से बोले - “आवुस आनन्द! भगवान ने जो कुशल शील बतलाये हैं, वह किस अभिप्राय से?"
“साधु, साधु, आवुस भद्द! भली है आवुस भद्द की उमंग! भला है आवुस भद्द का प्रतिभान; जो यह कल्याणकारी प्रश्न पूछा।
“आवुस भद्द! भगवान ने जो कुशल शील बतलाये हैं, वे चार स्मृतिप्रस्थानों की भावना के लिए हैं।
"ये चार स्मृतिप्रस्थान हैं -
"भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा, विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं।
“भिक्षु (साढ़े तीन हाथ के काया-रूपी) लोक में राग और द्वेष को दूर कर, श्रमशील, स्मृतिमान और संप्रज्ञानी बन, काया में कायानुपश्यी होकर विहार करता है;
“वेदनासु वेदनानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा, विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं।
“(साढ़े तीन हाथ के काया-रूपी) लोक में राग और द्वेष को दूर कर, श्रमशील, स्मृतिमान और संप्रज्ञानी वन, वेदनाओं में वेदनानुपश्यी होकर विहार करता है;
“चित्ते चित्तानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा, विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं।
"(साढ़े तीन हाथ के काया-रूपी) लोक में राग और द्वेष को दूर कर, श्रमशील, स्मृतिमान और संप्रज्ञानी बन, चित्त में चित्तानुपश्यी होकर विहार करता है;
“धम्मे धम्मानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा, विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं।
“(साढ़े तीन हाथ के काया-रूपी) लोक में राग और द्वेष को दूर कर, श्रमशील, स्मृतिमान और संप्रज्ञानी बन धर्म में धर्मानुपश्यी होकर विहार करता है।
“आवुस भद्द! भगवान ने जो कुशल शील बतलाये हैं, वे इन चार स्मृतिप्रस्थानों को भावित करने के लिए ही हैं।"
“आवुस आनन्द! क्या हेतु है कि तथागत के परिनिवृत्त होने के बाद सद्धर्म चिरस्थायी नहीं होता? क्या हेतु है कि तथागत के परिनिवृत्त होने के बाद भी सद्धर्म चिरस्थायी होता है?"
“चतुत्रं खो, आवुसो, सतिपट्ठानानं अभावितत्ता अबहुलीकतत्ता तथागते परिनिब्बुते सद्धम्मो न चिरट्ठितिको होति।"
“आवुस! चार स्मृतिप्रस्थानों को भावित न करने से, बहुलीकृत न करने से तथागत के परिनिर्वृत्त हो जाने पर सद्धर्म चिरस्थायी नहीं होता।
“चतुत्रञ्च खो, आवुसो सतिपट्ठानानं भावितत्ता बहुलीकतत्ता तथागते परिनिब्बुते सद्धम्मो चिरट्ठितिको होति।"
“और आवुस! चार स्मृतिप्रस्थानों को भावित करने से, बहुलीकृत करने से तथागत के परिनिर्वृत्त हो जाने पर भी सद्धर्म चिरस्थायी होता है।"
“कौन-से चार?"
“आवुस! भिक्षु (साढ़े तीन हाथ के काया-रूपी) लोक में राग और द्वेष को दूर कर, श्रमशील, स्मृतिमान और संप्रज्ञानी बन, काया में कायानुपश्यी होकर विहार करता है;
“(साढ़े तीन हाथ के काया-रूपी) लोक में राग और द्वेष को दूर कर, श्रमशील, स्मृतिमान और संप्रज्ञानी बन, वेदनाओं में वेदनानुपश्यी होकर विहार करता है;
“(साढ़े तीन हाथ के काया-रूपी) लोक में राग और द्वेष को दूर कर, श्रमशील, स्मृतिमान और संप्रज्ञानी बन, चित्त में चित्तानुपश्यी होकर विहार करता है;
“(साढ़े तीन हाथ के काया-रूपी) लोक में राग और द्वेष को दूर कर, श्रमशील, स्मृतिमान और संप्रज्ञानी बन, धर्म में धर्मानुपश्यी होकर विहार करता है।
“आवुस! इन चार स्मृतिप्रस्थानों को भावित न करने से, बहुलीकृत न करने से तथागत के परिनिर्वृत्त हो जाने पर सद्धर्म चिरस्थायी नहीं होता।
और आवुस! इन चार स्मृतिप्रस्थानों को भावित करने से, बहुलीकृत करने से तथागत के परिनिर्वृत्त हो जाने पर भी सद्धर्म चिरस्थायी होता है।"
-संयुत्तनिकाय (३.५.३८७-३८८), सीलसुत्त, चिरट्ठितिसुत्त
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Premsagar Gavali

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