सुभद्द की प्रव्रज्या

उस समय कुसीनारा में रहने वाले सुभद्द नामक परिव्राजक ने सुना कि आज रात के पिछले याम के अंत में भगवान का महापरिनिर्वाण होगा। समय समीप आया देख कर, वह भगवान से धर्म सीखने के लिए चला आया।
आनन्द ने उसे रोका।

“बस करो, आवुस सुभद्द, भगवान को कष्ट मत दो। भगवान थके हैं।" तीन बार आनन्द ने उसे रोका। यह कथा-संलाप भगवान के कानों में पड़ा। कोई धर्मगंगा के किनारे अपनी प्यास बुझाने आया है और उसे रोका जा रहा है। करुणा की धर्मगंगा में बाढ़ आ गयी। भगवान ने अपनी रूपकाया की असुविधा की उपेक्षा कर आनन्द को आदेश दिया - “बस करो, आनन्द! सुभद्द को मत रोको, सुभद्द को तथागत का दर्शन पाने दो। जो कुछ सुभद्द पूछेगा, वह परम-ज्ञान की अपेक्षा से ही पूछेगा, मुझे कष्ट देने की अपेक्षा से नहीं। पूछने पर मैं जो अभिव्यक्त करूंगा, उसे वह शीघ्र ही जान लेगा।"
तब आयुष्मान आनन्द ने सुभद्द परिव्राजक से कहा - “जाओ, आवुस सुभद्द! भगवान तुम्हें आज्ञा देते हैं।” परिव्राजक सुभद्द भगवान के पास आया। पास जाकर भगवान का अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। वह भगवान से बोला - “हे गौतम! पूरण कस्सप, मक्खलि गोसाल, सञ्चय वेलट्ठपुत्त आदि अनेक तैर्थिक आचार्य अनेक प्रकार के दावे करते हैं, वे क्या सत्य हैं?"
"नहीं सुभद्द! जाने दो उन सब दावों को। सुभद्द! तुम्हें धर्म उपदेश करता हूं; उसे सुनो, अच्छी तरह मन में धारण करो।
सुभद्द!
जिस धर्मविनय में आर्य अष्टांगिक मार्ग नहीं है वहां पर न तो प्रथम श्रमण (सोतापन्न), न ही द्वितीय श्रमण (सकदागामी), न ही तृतीय श्रमण (अनागामी) और न ही चतुर्थ श्रमण (अर्हत) होते हैं। जिस धर्म-शासन में आर्य अष्टांगिक मार्ग का अभ्यास किया जाता है वहां पर सोतापन्न, सकदागामी, अनागामी तथा अर्हत होते हैं। सुभद्द, इस धर्मविनय में आर्य अष्टांगिक मार्ग का अभ्यास किया जाता है। इसलिए मेरे शासन में सोतापन्न, सकदागामी, अनागामी तथा अर्हत हैं।
सुभद्द!
अगर भिक्षु ठीक से विहार करें, ध्यान-भावना में रत रहें, तो यह लोक अर्हतों से शून्य न हो।”
“सुंदर, भंते! सुंदर, भंते! भंते! जैसे कोई उल्टे को सीधा कर दे, ढंके को उघाड़ दे, मार्ग-भूले को रास्ता बता दे अथवा अंधेरे में मशाल धारण करे जिससे आंख वाले चीजों को देख सकें। इसी प्रकार अनेक प्रकार से भगवान ने धर्म को प्रकाशित किया।
मैं भगवान, धर्म तथा संघ की शरण जाता हूं।
भंते! मुझे भगवान के पास प्रव्रज्या मिले, उपसंपदा मिले।"
“सुभद्द! जो कोई भूतपूर्व अन्यतैर्थिक (-दूसरे पंथ का) हो और इस धर्म में प्रव्रज्या, उपसंपदा चाहता हो; उसे चार मास परिवास (-परीक्षार्थ वास) करना होता है। चार मास के बाद, योग्यता देख कर उसे प्रव्रजित करते हैं, उपसंपन्न करते हैं।"
“भंते! यदि भूतपूर्व अन्यतैर्थिक इस धर्मविनय में प्रव्रज्या उपसंपदा पाने के लिए चार मास परिवास करता है, तो भंते! मैं चार वर्ष परिवास करूंगा। चार वर्षों के बाद संतुष्ट-चित्त भिक्षु मुझे प्रव्रजित करें।"
भगवान उसकी निष्ठा से प्रसन्न हुए और आयुष्मान आनन्द से कहा -
“आनन्द! सुभद्द को प्रव्रजित करो।"
“अच्छा, भंते!" कह कर सुभद्द परिव्राजक को आयुष्मान आनन्द ने कहा - “आवुस! सुलाभ हुआ तुम्हें, जो यहां शास्ता के सम्मुख अभिषिक्त हुए।”
सुभद्द परिव्राजक ने भगवान से प्रव्रज्या पायी, उपसंपदा पायी। उपसंपन्न होने के बाद अचिरकाल में ही आयुष्मान सुभद्द आत्मसंयमी होकर विहार करते हुए, जल्दी ही अनुत्तर ब्रह्मचर्य-फल को इसी जन्म में स्वयं जान कर, साक्षात्कार कर, प्राप्त कर विहरने लगे। सुभद्द अर्हतों में से एक हुए।
वह भगवान के अंतिम शिष्य हुए।
-दीघनिकाय (२.३.२१२-२१५), महापरिनिब्बानसुत्त
पुस्तक : भगवान बुद्ध के उपस्थापक "आनन्द"
विपश्यना विशोधन विन्यास