तिरोकुट्टपेतवत्थु - अन्नप्राप्तिहेतु प्रेतों का अपने पूर्वगृहों में आना

"प्रेतगण (देहच्युति के बाद भी) अपने घरों की दीवारों पर, घरों के मिलनस्थलों पर या चौराहों पर अथवा ग्राम-द्वारों के स्तम्भों (इन्द्रकीलों) पर आ कर बैठते हैं।
"यद्यपि उन प्रेत प्राणियों के, पूर्वजन्म में कृत कर्मों के कारण, कुछ सम्बन्धी, किसी विशेष उत्सव के अवसर पर भी, जब उन के घरों में बहुत अधिक विशेष भोजन बनाया जाता है, उन प्रेतों का स्मरण नहीं करते।
"तथापि कुछ दयालु सम्बन्धिजन, ऐसे विशेष अवसरों पर, उन प्रेतों पर अनुकम्पा करते हुए समय पर, शुद्ध एवं उत्तम भोजन बना कर उन को यह संकल्प करते प्रदान करते हैं- 'यह हमारे ज्ञाति- (सम्बन्धि-) जनों के लिये हो, इस का उपयोग कर हमारे ज्ञातिजन सुखी रहें।'



"वे (जीवित) सम्बन्धिजन उपर्युक्त घरों की दीवारों पर, घरों के मिलनस्थलों पर या चौराहों पर अथवा ग्राम-द्वारों के स्तम्भों (इन्द्रकीलों) पर, यह विचार कर कि यहाँ हमारे मृतसम्बन्धी प्रेतगण आये होंगे- जा कर उन को आदरपूर्वक वह उत्तम भोजन अर्पित करते हैं तथा वे प्रेतजन उस की इस प्रकार कृतज्ञता प्रकट करते हैं- 'हमारे ये सम्बन्धी जन चिर काल तक जीवित रहें, जिन के कारण हम को यह उत्तम भोजन मिल रहा है। इस से दो कार्य एक साथ निष्पन्न हो गये- १. हमारा सत्कार भी हो गया और इन दाताओं का दान भी निष्फल नहीं हुआ॥'
"क्यों कि वहाँ (प्रेतलोक में) न कोई खेती होती है, न कोई गो पालन ही होता है, और न वहाँ किसी प्रकार का वाणिज्य (व्यापार) ही करने की स्थिति है तथा न कोई सोने चाँदी के माध्यम से क्रयविक्रय ही होता है। वे (प्रेतगण) तो यहाँ (जीवलोक) से देहपात के बाद वहाँ प्रेतलोक में इन सम्बन्धियों द्वारा किये गये दान से ही अपनी जीवनयात्रा पूर्ण करते हैं।
"जैसे उन्नत स्थल में हुई वर्षा का जल स्वभावतः नीचे की ओर ही जाता है, इसी प्रकार इस जीवलोक के सम्बन्धिजनों द्वारा किया हुआ दान ही उन प्रेतों के उपभोग में आ पाता है।
"तथा जैसे जलयुक्त मेघ समुद्र पर वर्षा करते हैं, इसी प्रकार इस जीवलोक के सम्बन्धिजनों द्वारा किया हुआ दान ही उन प्रेतों के उपभोग में आ पाता है।
"जीवलोक के सम्बन्धिजनों को अपने प्रेतजनों के प्रति यह सोचते हुए कि 'इन्होंने भी पहले मुझ को कुछ दिया था' या 'इन्होंने भी मेरे लिये कुछ किया था' या यहाँ के सम्बन्धिजनों के द्वारा उन प्रेत सम्बन्धिजनों के पूर्व कृत किसी उपकार का स्मरण कर उन प्रेतों को दान करना चाहिये।
"कोई भी कार्य आरम्भ करने वाला पुरुष पहले मात्सर्यरहित (मुक्तहस्त) हो कर दान करे, वह भले ही अपने ज्ञातिजन पूर्व प्रेतों के प्रति हो या स्थानीय देवताओं के प्रति॥
"जैसे– चारों दिक्पाल (चतुर्महाराजिक देवता) या यशस्वी लोकपाल-कुबेर, धृतराष्ट्र, विरूपाक्ष एवं विरूढक। इस (दान-) क्रिया से वे देवता भी पूजित हो जाते हैं और दाता का दान भी निष्फल नहीं जाता।
“यहाँ एक बात और ध्यान में रखनी चाहिये कि प्रेतों (मृत सम्बन्धियों) के लिये रोना, विलाप करना या अन्य किसी प्रकार से उनके प्रति शोक प्रकट करना आदि कर्म कभी नहीं करना चाहिये। इस से जीवित सम्बन्धिजनों की भौतिक उन्नति एवं स्थायिता होती है।
"तथा वह दान भी उन प्रेतों को (भिक्षु) संघ के माध्यम से दिया जाना ही उत्तम तथा चिरकालस्थायी होता है। तथा यही 'उचित विधि से किया हुआ दान' कहलाता है'।
"तुम्हारे द्वारा कृत इस दानक्रिया से तीन कार्य एक साथ निष्पन्न होंगे- १. तुम यह दान कर एक आदर्श ज्ञातिधर्म (सम्बन्धिजनों के प्रति कर्त्तव्य) स्थापित करोगे, तथा २. तथा इस दानक्रिया से तुम्हारे प्रेत सम्बन्धियों की विशिष्ट पूजा भी हो जायगी और साथ ही ३. इस दानक्रिया का भिक्षुओं को माध्यम बनाने से उन भिक्षुओं को भी भौतिक बल प्राप्त होगा, जिस से वे अपना मन धर्मसाधना में अधिक तन्मयापूर्वक लगा सकेंगे तो इसका अतिरिक्त पुण्य भी तुम को प्राप्त होगा"॥
तिरःकुड्यप्रेतवस्तु सम्पन्न ।
पेतवत्थु -> खुद्दकनिकाय -> सुत्तपिटक ।।
🙏🙏🙏
Note :- त्रिपिटक के सङ्गीतिकारों (अरहंत भिक्षुओं) द्वारा यह पेतवत्थुपालि ग्रन्थ खुद्दकनिकाय के अन्तर्गत सप्तम ग्रन्थ के रूप में माना गया है। इस ग्रन्थ में प्रेतों की कथाएँ संगृहीत हैं। इस ग्रन्थ में इन कथाओं के माध्यम से कर्मफल के सिद्धान्त का विशेष निरूपण किया है।
सङ्गीतिकारों ने शुभ या अशुभ कर्मों के फलस्वरूप पाँच प्रकार की गतियाँ (योनियाँ जन्म) मानी हैं। जैसे- १. जरायुज, २. अण्डज, ३. स्वेदज, ४. उद्भिज एवं ५. औपपातिक। या इनका भेद इस प्रकार भी किया गया है- १. देवयोनि, २. मनुष्ययोनि, ३. प्रेतयोनि, ४. पशुयोनि एवं ५. नागयोनि।
इनमें प्रथम देवयोनि शुभ कर्मों के फलस्वरूप ही प्राप्त होती है। मानव योनि शुभ-अशुभ कर्मों का मिश्रित रूप है। शुभ कर्मों के कारण, कुछ प्राणी मनुष्य योनि में जन्म लेकर सर्वथा सुखमय जीवन व्यतीत करते हैं तो कुछ लोग अपने कुछ शुभ कर्मों के कारण मनुष्य होकर भी अशुभ कर्मों के कारण अपना समस्त जीवन नाना कष्ट भोगते हुए अकिञ्चन ही रह जाते हैं और सामान्य भोजन, वस्त्र एवं आवास के लिये भी जीवनपर्यन्त पराश्रित रहते हैं। इन दो योनियों को छोड़कर शेष तीन योनियों में- प्रेतयोनि, पशुयोनि एवं नागयोनि में - प्राणी अपने उन उन अशुभ कर्मों के कारण ही पहुँचते हैं और वहाँ चिरकाल तक नरकतुल्य कष्ट भोगते हैं। देवयोनि एवं प्रेतयोनि - इन दो योनियों की गणना औपपातिक योनि में होती है। अस्तु ।
अशुभ कर्मों के कारण प्राप्त होने वाली इन योनियों के कष्टों का, दु:खों का विस्तृत वर्णन ही इस प्रेतवत्थु में उपलब्ध होता है। धर्मभीरु मनुष्य इन भयानक नारकीय कष्टों से भय मानता हुआ कोई अशुभ कर्म न करे – यही इस ग्रन्थ का उद्देश्य है।
भवतु सब्ब मगंलं !!
🙏🙏🙏

Premsagar Gavali

This is Adv. Premsagar Gavali working as a cyber lawyer in Pune. Mob. +91 7710932406

एक टिप्पणी भेजें

Please Select Embedded Mode To Show The Comment System.*

और नया पुराने