शुद्ध धर्म की पावन भूमि - "धम्मगिरी" (इगतपूरी)

 हमने धम्मगिरी को नहीं, धम्मगिरी ने हमे चुना है - गुरुजी

धम्मगिरी की आधारशिला कैसे रखी गई
“5 दिसंबर, 1973 को एक शादी में शामिल होने के लिए पुणे के समीप वार्शी जा रहा था। ट्रेन में बैठे 'नवभारत टाईम्स' में छपे एक लेख पर नजर टिक गयी। इसमें विपश्यना एवं पू. गुरुजी के बारे में विशेष जानकारी छपी थी। इससे पहले भी इगतपुरी के एक-दो साथी विपश्यी साधकों से इसके बारे में कुछ सुना था।





“मुझे एक पुराना रोग था। नाक की हड्डी बढ़ने से सांस लेने में कठिनाई एवं सिर-दर्द की शिकायत रहती थी। दो वर्ष पूर्व ऑपरेशन भी कराया था परंतु पिछले आठ-दस महीने से तकलीफें पुनः बढ़ गयी थीं। इगतपुरी के मेरे एक साधक मित्र ने बार-बार शिविर में जाने का आग्रह किया था परंतु मैं व्यापारी और अकेला आदमी, काम-धंधा बंद करके दस दिन के लिए शिविर में जाऊं, यह बात असंभव जैसी लगती थी। परंतु होना कुछ और ही था।
बढ़ते रोग को देखकर डॉक्टरों ने हड्डी का गहरा आपरेशन करने की सलाह दी जिसके लिए पंद्रह दिन अस्पताल में भर्ती होना पड़ेगा। मैं सोचने लगा, साधना के लिए दस दिन निकालना असंभव लग रहा था और अब पंद्रह दिन दुकान बंद करनी पड़ेगी, जबकि इसमें केवल नाक की हड्डी ही नहीं, जेब भी कटेगी। फिर क्यों न दस दिन शिविर में ही चला जाऊं?
“अखबार में छपी सूचना अगले दिन, याने 6 दिसंबर को ही, देवलाली में आरंभ होनेवाले शिविर के आमंत्रण दे रही थी, जबकि मैं सालेजी के लड़के की शादी में शामिल होने वार्शी जा रहा था। कैसे करूं? बहुत उधेड़बुन के बाद पुण्य की विजय हुई और मन-ही-मन शिविर में जाने का फैसला करके साले के यहां विवाहस्थल पर न जाकर सीधे शिविर-स्थल पर जाने का कार्यक्रम बनाया, वह भी ससुरालवालों की अनुमति लिए बिना ही, क्योंकि जानता था कि ऐसी अनुमति आसानी से नहीं मिल सकती। रातों-रात यात्रा करके सीधे देवलाली पहुँचा तो पता लगा कि शिविर शाम को आरंभ होगा। अतः बिस्तर आदि लेने के लिए अपने घर इगतपुरी चला आया। घर पर वयोवृद्ध पू. पिताजी ने शिविर के लिए अनुमति दे दी।
“दोपहर की गाड़ी देवलाली जाने के लिए इगतपुरी स्टेशन जा रहा था कि अचानक एक कार देवलाली का रास्ता पूछती मिली। बातचीत के दौरान पता चला कि मुंबई के उद्योगपति श्री रंगीलभाई मेहता अपने पुत्र एवं मैनेजर सहित विपश्यना शिविर में ही जा रहे थे। मुझे भी साथ ले लिया। मैं सोचने लगा देखो, धर्म यहीं से सहायता करने लगा है।
“शाम को निश्चित समय पर शिविर आरंभ हुआ। आनापान देते हुए पू. गुरुजी गोयन्काजी ने सांस के आवागमन पर ध्यान केंद्रित करने को कहा। परंतु नाक के ऑपरेशन एवं नेजल-ड्राप्स की सैकड़ों बोतलें उपयोग कर लेने के कारण सांस महसूस नहीं होती थी। दूसरे दिन दोपहर को पू. गुरुजी से उपाय पूछा तो उन्होंने इसी प्रकार कोशिश करते रहने की सलाह दी।
इस प्रकार तीन दिन यूं ही गुजरे पर सांस की जानकारी नहीं हो पायी। चौथे दिन विपश्यना के समय कहीं-कहीं कुछ संवेदनाएं जरूर महसूस हुईं परंतु उसके बाद पुनः सब कुछ बंद । न सांस महसूस हो, न संवेदना । छठे दिन पू. गुरुजी से मिलकर फिर से विपश्यना देने का आग्रह करने लगा। उन्होंने समझाया, 'भाई, जैसे सांस सदा आती-जाती रहती है, वैसे ही संवेदना भी होती रहती है। सिर्फ उसे देखने, जानने का प्रयास जारी रखो। मन का संतुलन बनाये रखो। सफलता मिलेगी ही।' मन ही मन सोचने लगा यहां तो अपनी बात कोई मानता ही नहीं। जो चीज मुझे महसूस ही नहीं होती, उसे कैसे देखू? एक बार फिर से विपश्यना दे देते तो गुरुजी को क्या फर्क पड़ता? इससे तो अच्छा अस्पताल में छह दिन कट गये होते। अभी भी चलो, शेष चार दिन तो बच जायेंगे। लेकिन शिविर के बीच में जाना भी उचित नहीं था। अतः उनके सुझाव को स्वीकार कर प्रयत्न करता रहा । परिणाम मिला। आठवें दिन जरा सांस संवेदना भी महसूस होने लगी। मन में उत्साह बढ़ा।
“संयोगवश उसी दिन शाम को पता चला कि पू. गुरुजी ने आश्रम के लिए लोनावला में कोई जगह देखी थी जो किसी कारणवश तय नहीं हुई। बस, इतना सुनते ही मन में क्या-क्या विचार आये, कैसे बताऊं? इतनी अच्छी धर्मगंगा क्यों न इगतपुरी में बहे ? कहीं और न चली जाय। इसी उधेड़बुन में नौवां दिन बीता। नहीं रहा गया तो माननीय ट्रस्टीजी से आश्रम के बारे में बात करनी चाही। शिविर व्यवस्था के काम में अत्यधिक व्यस्त होने पर उन्होंने बाद में बात करने का आश्वासन दिया। दसवें दिन लगभग दस बजे शिविर समाप्त होने पर सब लोग साधनाकक्ष (तंबू) के बाहर जा रहे थे, पर मेरा मन मुझे वहां से जाने नहीं दे रहा था। मैं सीधे पू. गुरुजी के पास पहुँचा। आश्रम के बारे में जानकारी लेना चाहता था परंतु बातचीत में बहुत निपुण न होने के कारण सोचा पहले इन्हें घर पर पदार्पण का निमंत्रण देकर वहां बात करेंगे।
उनका कार्यक्रम शीघ्र मुंबई लौटने का था। मैंने रास्ते में पांच मिनट रुकने का आग्रह किया। पू. गुरुजी ने कहा, 'ऐसे पांच-पांच मिनट सबके घर रुकू तो कहां पहुंच पाऊंगा?' नम्रभाव को पहचानते हुए किसी प्रकार उन्होंने 'हां' भरी परंतु कहा, 'देखना, कहीं पांच मिनट की जगह पांच घंटे न लग जायं।' सतर्क रहने का मैंने आश्वासन दिया।
"मन में अतीव प्रसन्नता लिए हुए बाहर निकला। इगतपुरी का मौसम वर्षभर बहुत सुहावना रहता है। न अधिक गर्मी, न अधिक ठंड। बरसात में तीन महीने पहाड़ियों पर से जैसे दूध के झरने बहते हैं। ऐसे में धर्म की यह पावन गंगा यहीं से क्यों न प्रवाहित हो? यही सारे भाव मनपर चल रहे थे।
जहां एक ओर इतनी बड़ी प्रसन्नता हो रही थी, वहीं दूसरी ओर एक हिचक भी थी कि पता नहीं पू. गुरुजी इगतपुरी को पसंद करेंगे या नहीं? एक बात और भी थी कि गुरुजी के पास तो कार है, कहीं वे जल्दी न निकल जायं। अतः बिना भोजन किये ही जल्दी वहां से निकल कर इगतपुरी पहुँचना चाहता था। यही सारे द्वंद्व लिए हुए भोजनशाला में पहुँचकर मेरे साथी श्री रंगीलभाई मेहता को सारी बातें बतायीं तो उन्होंने आश्वासन दिया कि भोजन कर लें, फिर सब लोग
उनकी कार में साथ ही चलेंगे और जल्दी पहुँच जायेंगे।
“सब काम यथासमय हुए। घर पर चायपान के समय पू. गुरुजी से जगह व आश्रम के बारे में चर्चा चली। मैंने कहा कि यदि आपके पास समय हो तो एक-दो स्थान यहां भी दिखाऊं? सहमति मिलने पर पहले जो एक-दो स्थान दिखाये वह उन्हें पसंद नहीं आये। फिर कुछ सोचकर उनसे ही पूछा कि आप किस तरह का स्थान पसंद करेंगे? उन्होंने बताया कि शहर के बीच में न हो और न ही इतनी दूर हो कि वहां बिजली, पानी, टेलीफोन और यातायात की कठिनाई हो। इस चर्चा के बाद जो जगह ध्यान में आयी वह आज की
'धम्मगिरि' है।

“उस समय यहां तक आने के लिए कार के लायक रास्ता नहीं था। फिर भी श्री रंगीलभाई ने ऊबड़- खाबड़ रास्ते को पारकर पू. गुरुजी को यहां तक लाने का साहसपूर्ण कार्य किया। यहां पहुंचकर पू. गुरुजी ने इधर-उधर निगाह दौड़ायी और दो मिनट बाद ही इस जगह के लिए स्वीकृति दे दी। उस वक्त मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। इतने में एक भाई बोल उठा, 'वह देखो, बगल में अग्निसंस्कार हो रहा है, मुर्दा जल रहा है'। एकाएक मेरी खुशियों पर जैसे तुषारपात हो गया। पर दूसरे ही क्षण पू. गुरुजी मुस्कराकर बोले, 'अच्छा है न भाई! हर साधक के अंदर हर क्षण अनित्यता का भाव उद्दीप्त करता रहेगा।'
इतना सब होते होते पांच घंटे हो गये । पू. गुरुजी के मुँह से निकले शब्द सचमुच खाली नहीं गये। पांच मिनट की जगह पांच घंटे लग ही गये। जाने के पूर्व उदारचेता श्री रंगीलभाई मेहता ने जमीन-मालिक का नाम-पता नोट किया और मुँह-मांगे दाम पर जमीन खरीद कर ट्रस्ट को दान कर दी।
“16 दिसंबर, 1973 का यह दिन मेरे जीवन का सबसे अधिक प्रसन्नता का दिन था । धर्म प्राप्त होने के साथ-साथ मन की मुराद भी पूरी हुई थी। इसके बाद से नियमित साधना करते हुए यथासंभव धर्मसेवा के काम में लगा हूं। नाक की हड्डी का ऑपरेशन कराने की आवश्यकता कभी नहीं हुई और न ही किसी प्रकार की गोली या नेजल-ड्राप्स का ही सेवन किया। यही नहीं, मुक्तिदायक धर्म का मंगलमार्ग मिल गया। मन में अब यही भाव हैं कि इस कल्याणकारिणी विद्या से बहुतों का मंगल हो । सारे प्राणी सुखी हों। सबकी स्वस्ति-मुक्ति हो!"
- भोजराज ताराचंद संचेती
(इगतपुरी)
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- एक साधक के उद्गार
“विद्यापीठ के प्रारंभिक दिनों की बात है। धम्मगिरि पर पेड़ लगाने के लिए गड्ढे खोदे गये थे। पथरीली जमीन के खड्डों को मिट्टी-खाद आदि से भरना था। अपनी ही जमीन के एक कोने में पर्याप्त मिट्टी थी जिसे कि ट्रक से ऊपर लानाथा। परंतु आश्चर्य की बात कि इगतपुरी के संबंधित शासकीय अधिकारियों ने मिट्टी निकालने से मना कर दिया। वन विभाग की ओर से पेड़ लगाने को इतना प्रोत्साहन दिया जाता है, फिर भी अधिकारियों ने किसी दलील पर ध्यान नहीं दिया।
“अधिकारियों की इस धौंसपट्टी का सबक सिखाने के लिए जिला कलेक्टर को एक लंबा-चौड़ा शिकायती पत्र लिखा ही था कि संयोगवश पू. गुरुजी मुंबई से आ गये। सारी बात बताते हुए उन्हें पत्र दिखाया। पत्र पढ़ने के बाद वे मुस्कराये, तो लगा कि शाबाशी देंगे। परंतु उन्होंने पूछा, 'इस क्षेत्र को छोड़ कर अपनी जमीन के किसी अन्य हिस्से में मिट्टी नहीं है?' हमने कहा, 'हां, उत्तर की ओर भी है।' 'तो वहीं से लाओ न! जो अपनी ओर पेट्रोल छिड़कते हों, उन पर पानी ही डालना चाहिए, चिंगारी नहीं। भले उनकी टाउन- प्लानिंग की योजना झूठी साबित हो रही हो, पर अपना काम चल जाता हो तो लड़ाई करने से क्या फायदा?' पू. गुरुजी के संत-सुलभ मैत्री प्रज्ञापूर्ण व्यवहार-कौशल्य को देखकर मन शांत और गद्गद हो गया।"
पुस्तक : विपश्यना लोकमत भाग-2
विपश्यना विशोधन विन्यास ।।
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