श्रद्धा जागे। शुद्ध ज्ञान की गरिमा लिए हुए श्रद्धा जागे। सत्कर्म करने की उमंग लिए हुए श्रद्धा जागे। उल्लास लिए हुए श्रद्धा जागे। अंधश्रद्धा नहीं, खूब समझदारी वाली श्रद्धा जागे । धर्म के प्रति श्रद्धा जागती है तो कहता है -“धम्म सरणं गच्छामि" -धर्म की शरण ग्रहण क रताहूं। कौन-सा धर्म? हिंदू धर्म नहीं, बौद्ध धर्म नहीं, जैन धर्म नहीं, ईसाई धर्म नहीं, सिक्ख धर्म नहीं, मुस्लिम धर्म नहीं। धर्म जो अनंत है। अप्पमाणो धम्मो - अपरिमित होता है तो धर्म होता है। सबका होता है तो धर्म होता है। हिंदू-धर्म केवल हिंदुओं का हो करके रह जायगा, बौद्ध-धर्म केवल बौद्धों का हो करके रह जायगा। इसी प्रकार जैन-धर्म, ईसाई-धर्म, मुस्लिम-धर्म एक वर्ग-विशेष का होकर के रह जायगा। एक समूह-विशेष का होकर के रह जायगा। धर्म तो सबका और धर्म की शरण माने धर्म वह जो मैं अपने भीतर धारण कर रहा हूं। ‘गच्छामि', धर्म के रास्ते गमन कर रहा हूं। चल रहा हूं तो धर्म शरण देगा। तो ही सही माने में शरण है। क्या होता है सार्वजनीन धर्म, सार्वदेशिक धर्म, सार्वकालिक धर्म ? उसको भी मापने के लिए अपने मापदंड हैं।
स्वाक्खातो भगवता धम्मो सन्दिट्ठिको अकालिकोएहिपस्सिको ओपनेय्यिको पच्चत्तं वेदितब्बो विझूहीति।
__'स्वाक्खातो', सुआख्यात है। अच्छी तरह समझाया गया है। कोई उलझन नहीं है उसमें कि ऊपर-ऊपर से उसका ऐसा अर्थ है और इसके भीतर एक गूढ़ अर्थ है जो कोई-कोई समझ पाते हैं । अरे भाई, तो वह गूढ़ अर्थ क्या काम आया जिसे कोई-कोई समझ पाये? धर्म तो सबके लिए होता है ना! पढ़ा-लिखा हो, अनपढ़ हो, शहरी हो, गांव काहो, क्या फर्क पड़ता है ? समझना चाहिए ना? तो बड़ी सरल-सरल भाषा में, जो सब लोग समझ सकें ,इस प्रकार समझाया गया हो, तो 'स्वाक्खातो', सुआख्यात है। कोई पहेलियां नहीं बूझनी है । बड़ा स्पष्ट, बड़ा स्पष्ट।
'सन्दिट्ठिकों, धर्म है तो सांदृष्टिक होगा। आंखों के सामने जो सच्चाई आ रही है, उसी के सहारे-सहारे, स्वयं अपनी अनुभूति पर जो सच्चाई उतर रही है, बस, उसी के सहारे-सहारे चलेगा। आदि सचु जुगादि सचु, है भी सचु, नानक होसी भी सचु। सच के ही सहारे-सहारे; सारे सचखंड की यात्रा सच के सहारे-सहारे होगी तब ‘सन्दिट्टिको। कल्पनाएं नहीं। सत्य के सहारे-सहारे चलेगा तो आगे जाकर के परम सत्य तक पहुँच जायगा। किसी कल्पना के सहारे चलेगा तो कहीं किसी बड़ी कल्पना में उलझ कर रह जायगा, कल्याण नहीं होगा, मंगल नहीं होगा। तो 'सन्दिट्टिको।
'अकालिको, उसका फल आने में काल नहीं लगता माने समय नहीं लगता। अभी धारण करो, अभी फल; अभी धारण करो, अभी फल। इस क्षण परिणाम आ रहे हैं कि नहीं? कोई कहे, धारण तो अब करो, पर परिणाम मरने के बाद आयेगा तो कहीं कुछ गड़बड़ है। मरने के बाद परिणाम आएंगे सो आएंगे, वह अलग बात, लेकि न अब क्या परिणाम आ रहे हैं? अगर अभी मेरा सुधार नहीं हो रहा, अभी विकारों से जरा-जरा भी मुक्ति नहीं हो रही। और कोई समझे कि मरने के बाद मुक्ति हो जायगी। किसी की कृपा से मुक्त हो जाऊंगा। अरे, धोखा ही धोखा है भाई! वर्तमान सुधरता है तो भविष्य अपने-आप सुधर जाता है। लोक सुधरता है तो परलोक अपने आप सुधर जाता है। वर्तमान को सुधारना ही धर्म है। लोक को सुधारना ही धर्म है। इस जीवन को सुधारना ही धर्म है। आगे की चिंता करने की हमें जरूरत नहीं। इस क्षण को सुधारें, अगला क्षण तो इस क्षण की ही संतान है। वर्तमान को सुधारें, भविष्य तो वर्तमान की ही संतान है, आप ही सुधर जायगा। तो ‘अकालिको।
धर्म का एक और गुण - ‘एहिपस्सिकों, आओ, देखो, तुम भी देखो। रहा नहीं जाता। जब कोई व्यक्ति विपश्यना के किसी शिविर में आता है, पांचवां दिन होते-होते, छठवां दिन होते-होते, किसी-किसी को सातवां दिन होते-होते रहा नहीं जाता। मन में। ऐसे विचार उठने लगते हैं - अरे, ऐसा कल्याणकारी मार्ग है! इसे । तो मेरी मां भी करे रे! इसे तो मेरा पिता भी करे। मेरा पति करे, मेरी पत्नी करे, मेरा पुत्र करे, मेरी पुत्री करे, मेरा अमुक मित्र करे। अरे, वह मित्र बड़ा दुखियारा है। उसके यहां एक ऐसी दुर्घटना हो गयी। वह अगर कर ले तो दुःखों के बाहर हो जायगा। फिर होश आता है, अरे, यह तो शिविर पूरा होने के बाद कहेगेना! अब तो सांस को देखना है, शरीर के भीतर होने वाली संवेदनाओं को देखना है। फिर अपने काम में लग जाता है। फिर नहीं रहा जाता। थोड़ी देर के बाद फिर वही – 'एहिपस्सिको, अरे वह भी आकर के देखे! वह भी करके देखे, वह भी करके देखे। 'आशुफलदायी है ना, तत्काल फलदायी है ना! जब स्वयं को तत्काल फल मिलने लगा, धर्म का रस चखने लगा, भीतर की शांति जरा-जरा-सी भी आने लगी तो जी चाहता है ऐसी शांति औरों को भी मिले। विकारों से विमुक्त होने का ऐसा मार्ग औरों को भी मिले, “एहिपस्सिको,एहिपस्सिको।” दस दिन पूरा होने पर तो रहा नहीं जाय। परिवार के उस सदस्य से कहे, उस सदस्य से कहे, अपने इस मित्र से कहे, उस मित्र से कहे। अरे, तू भी करके देख, तू करके तो देख! इसी को कहा धर्म का यह गुण – 'एहिपस्सिको।
‘ओपनेय्यिकों, कदम-कदम अंतिम लक्ष्य तक ले जाने वाला। जैसे कोई राजमार्ग है। ऋजु माने सीधा राजमार्ग, जो अंतिम लक्ष्य तक सीधा ले जायगा। कोई अंधी गली नहीं है कि वहां से वापस मुड़ के आना पड़े। एक-एक कदम लक्ष्य की ओर ले जाये जा रहा है। धर्म के मार्ग पर थोड़ा भी किया हुआ अभ्यास, मेहनत, परिश्रम व्यर्थ नहीं जाता; जा ही नहीं सकता। जितना किया उतना फल आएगा ही। आदि में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी, अंत में कल्याणकारी आरंभ करते ही कल्याण शुरू हो गया। शील का काम शुरू किया। शील पालन करने लगा, कल्याण होना शुरू हो गया। समाधि का अभ्यास करने लगा, अरे, और कल्याण होने लगा। प्रज्ञा जगाने लगा तो कहना ही क्या, और कल्याण होने लगा; और कल्याण होने लगा। और कहीं निर्वाण का साक्षात्कार कर लिया तो कल्याण ही कल्याण। आदमी बदल गया। भले कुछ क्षणों के लिए ही निर्वाणिक अवस्था का अनुभव करके फिर इंद्रिय-जगत में आया, बदल गया, संत हो गया। तो कल्याण ही कल्याण,कदम-कदम कल्याण, कदम-कदम कल्याण।
'पच्चत्तं वेदितब्बो विजूहीति', प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर सच्चाई का दर्शन कर सकता है, करना ही चाहिए समझदार व्यक्ति को। किसी को अपने अंधेपन में किन्हीं काल्पनिक मान्यताओं के साथ इतना गहरा चिपकाव हो कि काम ही न करे,तो कोई क्या करे? अन्यथा जो काम करेगा, अंतर्मुखी होकर सच्चाई को देखने लगेगा तो उसी का कल्याण होने लगेगा। हर समझदार व्यक्ति को अपने भीतर धर्म का दर्शन करना ही चाहिए।
धर्म के ये गुण हैं। इस मापदंड से धर्म मापा जाता है कि सार्वजनीन है ना, सबके लिए है ना! कहीं कोई जांत-पांत का भेदभाव तो नहीं? कहीं कोई वर्ण-गोत्र का भेदभाव तो नहीं? कहीं इस संप्रदाय, उस संप्रदाय का भेदभाव तो नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि पहले मेरे संप्रदाय में दीक्षित हो जाओ, तब यह धर्म तेरा कल्याण करेगा। पहले मेरे सांप्रदायिक बाड़े में बँध जाओ, तब यह धर्म तेरा कल्याण करेगा ।अरे, किस बाड़े में बँधे भाई ? बाड़े तोड़ने के लिए धर्म होता है । सार्वजनीन धर्म होता है, खूब समझ में आये, खूब समझ में आये।
इसी प्रकार श्रद्धा जागे, संघ के प्रति श्रद्धा जागे तो कहता है - सङ्घ सरणं गच्छामि। फिर व्यक्ति की नहीं, व्यक्ति के गुणों की शरण है। कौन संघ होता है -
सुप्पटिपन्नो भगवतो सावक सङ्घो, उजुप्पटिपन्नो भगवतो सावक सङ्घो, आयप्पटिपन्नो भगवतो सावक सङ्घो, सामीचिप्पटिपन्नो भगवतो सावक सङ्घो, यदिदं चत्तारि पुरिसयुगानि अट्ठपुरिसपुग्गला एस भगवतो सावक सङ्घो।
-जो ऋजुमार्ग पर चल रहा है, सही मार्ग पर चल रहा है, ज्ञान के मार्ग पर चल रहा है, समुचित मार्ग पर चल रहा है और यों चलते-चलते जिस दिन निर्वाण का साक्षात्कार कर लिया - मुक्ति की जो चार अवस्थाएं हैं उनमें से कम से कम पहली अवस्था तो प्राप्त कर लिया, वह स्रोत में तो पड़ गया, मुक्ति के स्रोत में तो पड़ गया । ऐसा व्यक्ति संघ हो गया। कोई हो । गृहस्थ हो या भिक्षु हो । कोई हो । शील, समाधि, प्रज्ञा में प्रतिष्ठित होकर ही निर्वाण का साक्षात्कार होगा। निर्वाण का साक्षात्कार होगा माने इंद्रियातीत परम सत्य का साक्षात्कार होगा।
पच्चीस सौ वर्षो में या यों कहे दो हजार वर्षो में अपने देश की क्या दशा हुई? यह निर्वाण शब्द का अर्थ ही भुला बैठे। मुझे याद है, बर्मा से पहले-पहल आया, दो-चार शिविर दिये होंगे। कोई एक भाई शिविर में आया। अच्छा काम किया उसने। आकर अपनी कृतज्ञता प्रकट की, तो कह दिया मैंने कि तुझे जल्दी से जल्दी निर्वाण प्राप्त हो। बड़ा घबराया। निर्वाण प्राप्त हो! अरे, गुरुजी, हमें आप कोई आशीर्वाद दीजिए। मैं तो अभी बहुत जीना चाहता हूं। आपने यह क्या कह दिया, निर्वाण प्राप्त हो! अरे, देश ने निर्वाण शब्द का सही अर्थ ही खो दिया। अब तो यहां निर्वाण का मतलब मृत्यु याने हमने उससे कहा,तू जल्दी से जल्दी मृत्यु प्राप्त कर । अरे, इसी जीवन में जीते-जी निर्वाण का साक्षात्कार होता है। विद्या ही खो दी ना देश ने, तो क्या समझे? इसी जीवन में, भले ही क्षणभर के लिए हुआ, निर्वाण का साक्षात्कार हुआ, अनार्य से आर्य बन गया। दुर्जन से सज्जन बन गया, संत बन गया, तो संघ बन गया।
क्रमश:
~सत्यनारायण गोयन्का
March 2005 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित
(जी-टीवी पर क्रमश: चौवालीस कड़ियों में प्रसारित पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों की चौतीसवीं कड़ी का पहला भाग)