[ दान, शील, निष्क्रमण, वीर्य, प्रज्ञा ये पांच ।
क्षांति, मैत्री, अधिष्ठान, सत्य, उपेक्षा ये कुल दस ॥ ]
दस पारमिताएं हैं जिन्हें हर एक को अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए पूरा करना अनिवार्य है। अंतिम लक्ष्य है अहंकार, ममकार से शून्य होना । दस पारमिताएं ऐसे गुण हैं जिन्हें बढ़ाकर, पूरा कर मनुष्य अपने अहं को मिटा सकता है और अहं को मिटाकर ही मनुष्य मुक्ति या मोक्ष या निर्वाण के निकट पहुंचता है। विपश्यना शिविर में इन दस पारमिताओं को विकसित करने का अवसर मिलता है।
नैष्क्रम्य अर्थात निष्क्रमण
पहली पारमिता है नैष्क्रम्य अर्थात निष्क्रमण । जो व्यक्ति भिक्षु या भिक्षुणी बनता है वह गृहस्थ का जीवन त्याग कर बनता है, उसके पास अपना कुछ भी नहीं होता। उसे अपना भोजन भी भिक्षा मांगकर करना होता है। यह सब कुछ किया जाता है अपने अहंकार, ममकार को मिटाने के लिए। यह गुण एक गृहस्थ कैसे विकसित कर सकता है? ऐसे शिविरों में आकर उसे, इसे विकसित करने का अवसर प्राप्त होता है।
चूंकि यहां उसे दूसरे के दान पर निर्भर रहना पड़ता है। जैसा भोजन मिला, जैसी रहने की जगह मिली और जैसी अन्य सुविधाएं मिली उन्हें स्वीकार कर वह संन्यास या नैष्क्रम्य का गुण विकसित करता है। यहां जो भी प्राप्त होता है उसका वह सदुपयोग करता है और बहुत परिश्रम कर अपने चित्त को निर्मल बनाता है, सिर्फ अपने हित के लिए नहीं बल्कि उस अनजान व्यक्ति के लिए भी जिसने उसके लिए दान दिया।
शील
दूसरी पारमिता है शील | सब समय शिविर के दौरान तथा दैनंदिन जीवन में पांच शिक्षापदों का पालन कर वह इस गुण को विकसित करता है। गृहस्थ जीवन में शील पालन करने में बहुत-सी कठिनाइयां आती हैं। लेकिन यहां विपश्यना के दौरान शील भंग करने का अवसर ही नहीं आता, क्योंकि यहां बड़ा ही व्यस्त कार्यक्रम है और यहां का अनुशासन बड़ा ही कड़ा । बात-चीत करने में शीलभंग का अवसर आ सकता है। इस कारण प्रथम नौ दिनों के लिए मौनव्रत धारण किया जाता है इस तरह कम से कम शिविर के दौरान किसी को शीलपालन करने में कठिनाई नहीं होती।
वीर्य
तीसरी पारमिता है वीर्य की। वीर्य का अर्थ प्रयत्न होता है। दैनंदिन जीवन में जीविकोपार्जन के लिए मनुष्य प्रयत्न करता है परंतु यहां जो प्रयत्न किया जाता है वह चित्त शुद्धि के लिए तथा स्मृतिमान और सम्प्रज्ञ रहने के लिए किया जाता है। यह सम्यक प्रयत्न है जो मुक्ति की ओर ले जाता है।
प्रज्ञा
चौथी पारमिता है प्रज्ञा की पारमिता। बाहरी दुनिया की जो प्रज्ञा है वह पुस्तकें पढ़कर या दूसरों की बातें सुनकर प्राप्त की जाती है। यह सिर्फ चिंतन मनन से प्राप्त प्रज्ञा है। सच्ची प्रज्ञा पारमिता वह है जो अपने अन्दर विकसित होती है। ध्यान करते समय स्वानुभव से प्राप्त अनित्य, दुःख तथा अनात्म के आत्म- निरीक्षण से प्राप्त प्रत्यक्ष ज्ञान ही प्रज्ञा है। सत्य के इस प्रत्यक्ष अनुभव से मनुष्य दुःख से मुक्त हो जाता है।
क्षांति
पांचवी पारमिता क्षांति की पारमिता है। क्षांति का अर्थ सहिष्णुता है। ऐसे शिविर में जहां किसी को समूह में रहना पड़ता है, हो सकता है उसे दूसरे व्यक्तियों के कार्य-कलाप अच्छे न लगें और वह चिड़चिड़ा अनुभव करे। लेकिन शीघ्र ही उसे यह बोध होता है कि दूसरा जो कुछ कर रहा है वह निर्बोध है, जान-बूझकर नहीं कर रहा है या रोगी है। यह सोचकर उसकी चिड़चिड़ाहट जाती रहती है और उस व्यक्ति के प्रति उसके मन में प्रेम और करुणा उमड़ती है। इस तरह वह व्यक्ति क्षांति विकसित करने के पथ पर आरूढ़ हो जाता है।
सत्य
छठी पारमिता है सत्य की पारमिता । शील पालन कर कोई वाचसिक धरातल पर सत्य बोलने के ब्रत का पालन करता है। लेकिन सत्य बोलना सिर्फ ऊपरी-ऊपरी नहीं होना चाहिए, बल्कि इसका अभ्यास एक गहरे अर्थ में करना चाहिए। मार्ग पर उठाया गया एक-एक कदम सत्य पर आधारित होना चाहिए, चाहे सत्य स्थूल हो या सूक्ष्म या परम सत्य । यहां कल्पना की गुंजाइश नहीं है। वर्तमान में जो सच्चाई है, प्रत्यक्ष अनुभूत हो रही है, उसी के साथ सदा रहना चाहिए।
अधिष्ठान
सातवीं पारमिता अधिष्ठान की है। अधिष्ठान का अर्थ दृढ़संकल्प है। जब कोई विपश्यना शिविर में बैठता है तो दृढ़ संकल्प करता है कि वह शिविर पूरा करके ही उठेगा, बीच में नहीं छोड़ेगा। शिक्षा पदों के पालन करने का दृढ़ संकल्प करता है, आर्य मौन पालन करने का, अनुशासन में रहने का दृढ़ संकल्प करता है।
जब विपश्यना दी जाती है तो वह दृढ़ संकल्प करता है कि सामूहिक साधना के दौरान वह एक घंटे तक बिना आंख खोले तथा बिना हाथ और पैर को खोले एक आसन में पूरे एक घंटे तक साधना करेगा। बाद में यह पारमिता बड़े महत्त्व की होती है। जब कोई निर्वाण का साक्षात्कार करने के निकट होता है तो उसे बिना, हिले-डुले निर्वाण की प्राप्ति तक बैठे रहने के लिए दृढ़ संकल्पित होना चाहिए।
मैत्री
आठवीं पारमिता है मैत्री की पारमिता। मैत्री का अर्थ है शुद्ध और निःस्वार्थ प्रेम । अतीत में किसी ने दूसरों के प्रति प्रेम और सद्भाव रखने की कोशिश की लेकिन यह सिर्फ चेतन चित्त के स्तर पर संभव हुआ। अचेतन मन में पुराना वैर ज्यों का त्यों रहा । जब किसी का सारा मन, चेतन तथा अचेतन मन विकारों से रहित हो जाता है तब उसे पूरे शुद्ध मन से दूसरे के सुख की कामना करनी चाहिए। यह सच्चा प्रेम है। यह अपना हित तो करता ही है, दूसरों का भी करता है।
उपेक्षा
नौवीं पारमिता उपेक्षा पारमिता है। कोई स्थूल तथा अप्रिय संवेदनाओं को अनुभव करते हुए ही तटस्थ नहीं रहता, शरीर के उन अंगों का निरीक्षण करते हुए, जहां कोई संवेदना नहीं मिलती तब भी तटस्थ नहीं रहता बल्कि तब भी तटस्थ रहता है जब सारे शरीर में उसे सूक्ष्म एवं प्रिय संवेदनाएं अनुभूत होती हैं। हर स्थिति में वह जानता है कि उस क्षण का अनुभव अनित्य है और यह उत्पन्न हुआ है जाने के लिए। ऐसा अनुभव कर वह तटस्थ रहता है, उपेक्षा भाव जगाता है।
दान
अंतिम पारमिता दान की पारमिता है। गृहस्थ के लिए तो यह धर्म पथ पर चलने के लिए प्रथम आवश्यक कदम है। गृहस्थ का यह कर्त्तव्य है कि वह सम्यक रूप से आजीविका अर्जित कर अपने और उस पर निर्भर रहने वाले औरों का भरण-पोषण करे। लेकिन अपने अर्जित धन पर वह जब लोभ पैदा करता है तो वह अहंकार विकसित करता है। इसलिए अपनी कमाई का एक भाग दूसरे की भलाई में अवश्य दिया जाना चाहिए।
अगर वह ऐसा करता है तो वह अहंकार पैदा नहीं करेगा, चूंकि वह समझता है कि धनार्जन सिर्फ अपने लिए नहीं औरों के लिए भी किया जाता है। दूसरों की चाहे जिस तरह से हो, सहायता करने की उसकी चेतना जगती है। और वह स्वानुभव से यह समझने लगता है कि औरों की सबसे बड़ी सहायता वही होती है जो उसे दुःख से मुक्त करता है।
ऐसे शिविरों में पारिमिताएं पूरा करने का स्वर्णिम अवसर मिलता है। जो कुछ भी किसी को यहां प्राप्त है वह दूसरों का दिया गया दान है। न तो रहने-खाने का पैसा लगता है और न तो विद्या सिखाने की फीस देनी पड़ती है। बदले में यहां दूसरों के लिए दान देने का अवसर मिलता है। दान मनुष्य की आर्थिक शक्ति के अनुपात में कम या अधिक हो सकता है।
स्वभावतः एक धनी व्यक्ति अधिक दान देने की इच्छा करेगा, लेकिन शुद्ध चेतना से दी गयी छोटी राशि भी दान पारमिता विकसित करने में बहुमूल्य होगी। बदले में कुछ भी पाने की, बिना आशा रखे कोई इस चेतना से दान देता है कि उसकी तरह दूसरे भी धर्म से होने वाले लाभ को प्राप्त करें और दुःख से मुक्त हों।
यहां आपको सभी दस पारमिताओं को विकसित करने का सुअवसर प्राप्त होता है। जब आप इन सभी दस पारमिताओं को पूरा कर लेंगे तो अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति कर लेंगे। इन्हें थोड़ा-थोड़ा विकसित करने का अभ्यास करते रहें। धर्म पथ पर प्रगति करते रहें, सिर्फ अपने कल्याण और मुक्ति के लिए नहीं, बल्कि बहुतों के कल्याण तथा मुक्ति के लिए।
सभी दुःखी प्राणियों को शुद्ध धर्म मिले और वे सभी मुक्त हों।
श्री सत्य नारायण गोयनका जी
पुस्तक: प्रवचन सारांश ।
विपश्यना विशोधन विन्यास ।।
भवतु सब्ब मंगलं !!