जन्माष्टमी एक महान पर्व है । किसी भी महान व्यक्ति का जन्म दिवस मनाते हुए हमें अपने भीतर धर्म जगाने का काम करना चाहिए । उत्सव केवल बाहरी धूमधाम से पूरा नहीं होता, वह अपनी जगह होता रहे, पर सही मायने में उत्सव की सफलता इस बात में है कि उस महापुरुष की शिक्षा हमारे जीवन में उतरे, उसका आदर्श हमारे जीवन में उतरे । हम श्री कृष्ण को ईश्वर मानते हैं और ईश्वर मानते हुए प्रार्थना करते :
हे प्रभु आनंद दाता ज्ञान हमको दीजिए, शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिए ।
लीजिए हमको शरण में हम सदाचारी बने, ब्रह्मचारी धर्म रक्षक वीर व्रतधारी बने ।।
यह सुंदर उद्देश्य है, आदर्श उद्देश्य है। पर यह भाव कि हमारे लिए आप कुछ कर दो । मेरे में हजार अवगुण हो तो भी आप मुझे तार दो, यह गलत हो गया, जो मेरे में अवगुण है वह मुझे ही दूर करने हैं किसी अन्य के सहारे बैठें रहेंगे तो बैठे ही रह जाएंगे । यह जो एक बात चल पड़ी हैं कि मुझसे कुछ नहीं होता, तुम ही करोगे, तुम्हारे किए ही होगा । यह धर्म के सही स्वरूप को जरा हल्का करने वाली बात हुई । जब कोई कहता है -
प्रभु जी मेरे अवगुण चित न धरो, समदर्शी प्रभु नाम तिहारो, मुझ पर कृपा करो ।
एक लोहा पूजा में राखत, एक घर बधिक परो, पारस जरा ना भेद करत है, कंचन करत खरो ।।
अर्ताथ है प्रभु, जब पारस दोनों को सोना बना देता है, तो आप क्यों भेदभाव करते हैं। मुझमें दुर्गुण है तो रहने दीजिए ना, आप तो मुझे तार दीजिए । यह धर्म का अवमूल्यन हो गया, धर्म चाहता है कि हर व्यक्ति अपने श्रम से, परिश्रम से, पराक्रम से, अपने आपको सुधारें । किसी की कृपा अवश्य चाहिए, कृपा यही कि ठीक रास्ता दिखा दे, काम तो हमें स्वयं करना होगा । उस ऊंची आस्था पर स्वयं पहुंचना होगा । कृष्ण कहते हैं - मुझको कैसा भक्त चाहिए ? जो सद्गुणों को अपने अंदर ले आए वही सही मायने में भक्त, नहीं तो कैसा भक्त, भीख मांगने से भक्त नहीं होता, अपने दुर्गुणों को दूर करके उसमें सदगुण भर ले तो भक्त हुआ । कृष्ण कहते हैं - योमद भक्त स मे प्रिय, ऐसा भक्त मुझे प्रिय है जो -
अनपेक्क्ष: सुचिरदक्क्ष: उदासीनो गतव्यतः । सर्वारम्भ परित्यागी योमद भक्त समे प्रिय: ।।
ऐसा भक्त स में प्रिय है । अनपेक्ष: -जिसकी सारी अपेक्षाऐं पूरी हो गई, अब कोई अपेक्षा नहीं है । सारी तृष्णाएँ दूर हो गई हैं, अब कोई तृष्णा नहीं है, सारी तृष्णाओं का क्षय हो गया, शुद्ध हो गया जिसका हृदय पवित्र हो गया, चित्त को शुद्ध करने की विद्या में जो दक्ष हो गया, वही अपने चित्त को शुद्ध करेगा और कोई दूसरा नहीं करेगा । उदासीन आज की भाषा में कहे तो बहुत उदास हो गया, वह उदास नहीं, बल्कि समता में स्थापित हो गया, तो सारी व्यथाए दूर हो गई , दुख दूर हो गया , कैसे हो गया ? आरंभ होने नहीं देता, संधि के प्रति सजग रहता है, जानता है चित् धरा पर कहीं राग की संधि ना हो जाए, द्वेष की ना हो जाए, मोह की ना हो जाए । किसी भी तरह की अशुद्धता की संधि ना हो जाए, आरंभ ही ना होने दे -अनारम्भी । और फिर उसके लिए रास्ता बताया, केवल उपदेश देवे तो कमी रह गई उपदेश में, उपदेश देवें फिर उपदेश को क्रियान्वित करने का रास्ता भी देवें तो कल्याण की बात हुई। जो रास्ता दिया वह हम भूल गए, यह हमारी कमी, जो पुरातन रास्ता था विपश्यना का वही दिया। क्या सिखाया ?
जो विमूढ़ हैं, अज्ञानी है वो विपश्यना नहीं कर सकते । जिनके ज्ञान चक्षु खुल गए वो विपश्यना कर सकते हैं । विपश्यना करेंगे तो ज्ञान चक्षु खुलेंगे, ज्ञान चक्षु खुलेंगे तो और विपश्यना करेंगे, गहराइयों में जाते चले जाएंगे। क्या ज्ञान चक्षु ? प्रज्ञा के चक्षु, अपने ज्ञान के चक्षु । प्रत्यक्ष ज्ञान के चक्षु, प्रत्यक्ष ज्ञान से जो अनुभूति हुई वो प्रज्ञा, वो चक्षु खुले तो सारी बात समझ में आए। क्या समझ में आए ?
अनुभूति से समझ में आए । उत्क्रमण हुआ, मानस का एक हिस्सा खड़ा होता है । अरे क्या हुआ? आंख के दरवाजे पर क्या हुआ ? कान के दरवाजे पर क्या हुआ ? नाक के दरवाजे पर क्या हुआ ? जीभ के दरवाजे पर क्या हुआ? शरीर के दरवाजे पर क्या हुआ ? मन के दरवाज़े पर क्या हुआ ? जैसे ही इन छ: इंद्रियों के दरवाजे पर कुछ खटपट हुई, यह हिस्सा अपना सर उठाता है, जिसे पुरानी भाषा में विज्ञान कहा । आज की अंग्रेजी में कॉन्शियसनैस कहें । कुछ हुआ, बस इसका इतना ही काम है, अरे कुछ हुआ, इतनी सूचना दे दी, इतने में दूसरा हिस्सा रुकता है और देखता है क्या हुआ रे ? कान पर शब्द आए रे, कैसे शब्द आये रे ? आंख से रूप दिखा, कैसा दिखा रे ? आदि-आदि। ।अपनी पुरानी याददाश्त के सहारे, अपने पुराने अनुभव या पूर्व संस्कारो के आधार पर, पहचानता है की शब्द आया तो प्रशंसा का आया या गाली का आया, और मूल्यांकन भी करता है तो प्रशंसा का आया तो बहुत अच्छा, गाली का आया तो बहुत बुरा । मूल्याँकन कर दिया तो एक प्रवाह चला, सुखद संवेदनाओं का एक प्रभाव चला, बड़ा सुखद लगा तो लगा उसका सुख भोगने और लगा राग जगाने । अगर मूल्यांकन किया कि तो ये बहुत तो बुरा हैं, तो दुखद संवेदनाओं का एक प्रवाह चला भीतर, तो उसका दुख: भोगता है, द्वेष पैदा करता है ओर ये संवेदनाएं सुखद-दुखद, यह बाहर की घटनाएं सुखद-दुखद होती ही रहती हैं और यह गहरा स्वभाव बना लिया तो क्या होता है ? अब वो स्वभाव बढ़ते जा रहा है, कई गुना बढ़ते जा रहा है। राग है तो राग ही राग, द्वेष है तो द्वेष ही द्वेष । तो दुखों: से कैसे बाहर निकलेगा, कैसे विकारों से बाहर निकलेगा ? भोगने की आदत बना ली क्यों कि आदत पड़ गई । जब तक भोक्ता भाव है तब तक बाहर नहीं निकल सकता । अपने दुखों: का संवर्धन ही कर रहा है जहां-जहां पर कोई ऐसी अवस्था आती हैं राग भरी आती है, यह बहुत अच्छा हैं तो उसका अभिनन्दन करता हैं । आज इस बात को लेकर अच्छा लगा या कल उस बात को लेकर बुरा लगा, आज इस बात को लेकर राग जगाया कल उस बात को लेकर द्वेष जगाया तो उसमें तृष्णा जागी, राग भी जागा द्वेष भी जागा । जो प्रिय है उसको प्राप्त करने की तृष्णा और जो अप्रिय है उसे दूर करने की तृष्णा । तो इन दोनों तृष्णाओं में, राग में और द्वेष में व्याकुल ही व्याकुल रहता है। यह धर्म समझ में आ जाए, जो कि सार्वजनिक धर्म है, ना हिंदू है ना बौद्ध है है, ना ईसाई है ना जैन है, भारत के अध्यात्म की महान परंपरा जिसमें ऋग्वेद का एक ऋषि कहता हैं की :-
यो विश्वाभि विपश्यति भुवना संच पश्यति | सनः पर्षदति दविषः ||
यो विश्वाभि, जो विश्व के अभिमुख होकर के, क्या विश्व होता है ? जिसका विषधिकरण हो रहा है, जो भी विकार जागा वह बढ़ते ही जाता है उस बढ़ाव की ओर नजर रखते हुए, यो विश्वाभि विपश्यति, यानि विपश्यना करता है माने उसको साक्षी भाव से देखने का काम शुरू कर दिया, अरे भोक्ता भाव में तो अपने दुखों का संवर्धन किया। तो यो विश्वाभि विपश्यति भुवना, भुवन माने लोक, सारे लोकों में ये सारा कुछ हो रहा है, भुवन माने ये शरीर, इस शरीर में ये सब कुछ हो रहा है । संच पश्यति, सम्यक रूप से विपश्यना करता है, सम्यक रूप से विपश्यना क्या होती है ? भोक्ता भाव खत्म, अब द्रष्टा भाव - साक्षी भाव, जो हो रहा है यथाभूत उसे जान लिया, सनः पर्षदति दविषः, ऐसा आदमी द्वेष के पार चला जाता है, राग के पार चला जाता है, विकारों के पार चला जाता है । ये शिक्षा है जो की हमको मुक्त अवस्था तक पहुंचाती है । वो स्वयं प्राप्त करनी है, हमारे लिये कोई दूसरा नहीं कर सकता ।
इसीलिए श्रीकृष्ण ने भी यही कहा, इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्त प्रज्ञा प्रतिष्ठिता । प्रज्ञा में प्रतिष्ठित रहो, प्रज्ञा माने प्रत्यक्ष ज्ञान, यो विश्वाभि विपश्यति, स्वयं विपश्यना करता है, सच्चाई के अभिमुख होकर, इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्त, आंखों से केवल देखने का काम, कानों से केवल सुनने का काम, नाक से सुघने का काम हुआ बस इन्द्रियाँ केवल इतना ही करके रह जायेगी। यह जो इसके तीन और मानस के हिस्से हैं वो ना आगे बढ़े । देखा बस देखा, अब ये अच्छा हैं बुरा है, मुल्याँकन कर दिया तो उस तरह की शरीर में संवेदना होने लगी, संवेदना होने लगी तो प्रतिक्रिया करने लगे । ऐसा ना हो, बल्कि देखने में केवल देखना हो, सुनने में केवल सुनना हो, सुघनें में केवल सुघना हो उसके आगे की सारी क्रियाएँ समाप्त, तो मुक्त होगा अन्यथा गाँठें पर गाँठें बाँधता चला जायेगा, इस अवस्था पर पहूँचता है वो प्रज्ञा में प्रतिष्टित होता हैं जो सुखद को देखकर राग नहीं करता और दुख:द को देखकर द्वेष नहीं करता, वो अवस्था प्राप्त करनी होती हैं, शिक्षा तो इसी बात की हैं। ये शिक्षा जीवन में उतरेगी तो अपने आप बदलाव आता हैं, फिर ये कहना नहीं पड़ेगा हे ईश्वर तु मुझे तार दे, ईश्वर ने रास्ता बता दिया अब हमें बस चलना हैं ।
कहाँ एक ओर ये स्थितप्रज्ञता, भारत की महान सनातन संस्कृति का ऊँचा आदर्श, और दूसरी ओर हमने क्या अवस्था करली ? सबका तो नहीं पर अनेक भक्तों का अंधापन, मुझसे कुछ नहीं होगा तुम्हें ही करना है । हे ईश्वर, अगर तुम करतार हो तो मेरी करनी जितनी भी खराब हो, तुमको तो तारना है, ये तुम्हारी ज़िम्मेदारी हैं । वो कैसे तरेगा जो अपने आप को सुधारने का काम ही नहीं करता ।
तो खूब समझ-समझ के जन्माष्टमी मनानी चाहिए कि जो श्री कृष्ण की शिक्षा है वो हमारे जीवन में उतरे और ऐसी उतरे कि सारी मानव जाति के लिए एक आदर्श खड़ा हो जाए। जिसमें सुख और दु:ख एक बराबर हैं, द्वेष नहीं करूणा हैं, कोई आसक्ति नहीं हैं, चिपकाए नहीं हैं, वह अवस्था प्राप्त करनी है तो सही मायनों में जन्म उत्सव मनाना सार्थक हुआ I ख़ूब समझ-समझ कर धर्म के उत्सव मनाने चाहिए। उत्सव केवल नाचने गाने के लिए नहीं होते, यह आमोद-प्रमोद अपनी जगह है पर मूल बात धर्म की समझते रहे जो इस महान व्यक्ति की शिक्षा है वह अपने जीवन में उतरे, जिससे खुद भी गौरवान्वित हो, समाज भी गौरवान्वित हो और उसकी शिक्षा भी गौरवान्वित हो ।
सही मायने में शुद्ध धर्म जीवन में उतरे तो गौरव ही गौरव, गरिमा ही गरिमा, मंगल ही मंगल और कल्याण ही कल्याण ।
साभार : मंगल- धर्म प्रवचन क्षृँखला
विपश्यनाचार्य पूज्य सत्य नारायण गोयनका,
विपश्यना विशोधन विन्यास,
इगतपुरी, नासिक, महाराष्ट्र
https://youtu.be/B5c4d8_tY9g Janmashtami - Hindi