कल्याणमित्र गोयन्काजी के साधना शिविरों में विविध सम्प्रदायों के गुरुजन आते हैं और साधना करके खूब आगे बढ़ते हैं।
एक समय एक महायोगी विपश्यना की तारीफ सुनकर शिविर में आये। वे साधक तो थे पर खूब तामसिक स्वभाव के थे। अपनी साधना के कारण कुंडलिनी जाग्रत हुई परंतु उसके परिणामस्वरूप आकुलता, व्यग्रता आदि बढ़ गयी। काम-क्रोध भी बढ़ गये। परिस्थिति विकट बन गयी।
जो दूसरों को सिखाता था उसकी अपनी हालत दारुण दयनीय हो गयी। इसी कारण उसने विपश्यना शिविर में आने का निश्चय किया।
स्वयं योग का गुरु था इस 'अहं' के कारण उसने श्री गोयन्काजी से कहा कि सभी सामान्य साधकों के साथ मैं नीचे नहीं बैठ सकता, क्योंकि मैं भी तो एक गुरु हूं। इसलिए समकक्ष और आपके जितना ऊंचा आसन मुझे दिया जाय। उसकी जिद को देखते हुए उसे ऊंचे आसन पर बिठाया गया।
उसने पहले साधना तो की ही थी, इसी कारण साधना में निष्ठा के साथ लग गया। चौथे दिन विपश्यना मिलते ही चमत्कार हुआ। अंग-अंग का अणु-अणु जाग्रत हो उठा । साधना के फलस्वरूप दिव्य जागृति हुई। कभी नहीं अनुभव की थी वैसी परम शांति मिली।
नम्रता तथा विवेक जागे । एकदम ऊंचे आसन से उठकर नीचे उतरकर कल्याणमित्र गोयन्काजी के पैर पकड़ लिये। उसका 'अहंभाव' टूटा और कल्याण हो गया। इसी प्रकार सब का मंगल हो।
पुस्तक : विपश्यना लोकमत (भाग-1)
विपश्यना विशोधन विन्यास ।।
भवतु सब्ब मगंलं !!