कोसलदेश की राजधानी सावत्थी।
श्रेष्ठी अनाथपिण्डिक ने करोड़ों की संपदा लगाकर जेतवन में महाविहार बनवाया। भगवान वर्षावास के दिनों में उस विहार में रहते और लोगों को धर्म सिखाते।
वर्षावास के वाद वे अन्य प्रदेशों के लोगों को धर्म
बांटने के लिए चारिका के लिए निकल पड़ते। भगवान के निवासकाल में विहार में जो चहल-पहल रहती वह उनकी अनुपस्थिति में बहुत कम हो जाती। वातावरण उतना जीवंत नहीं रहता, फीका पड़ जाता।
कुछ एक नगर-वासी भक्तजन विहार में आते। भगवान के निवास की खाली कुटी के सामने श्रद्धा के फूल चढ़ाकर चले जाते । पर उन्हें संतोष नहीं होता। श्रद्धा व्यक्त करने के लिए उन्हें कोई ठोस आधार चाहिए था।
श्रेष्ठी अनाथपिण्डिक को यह कमी खलती। लोग चाहते थे कि भगवान की अनुपस्थिति में वहां कोई मंदिर हो जहां वे अपनी श्रद्धाभाजन देवी, देवता, यक्ष, ब्रह्मा अथवा संतों के नाम पर चैत्य बनाते, मंदिर बनाते । इनमें अपने इष्ट की मूर्ति अथवा चिह्न स्थापित करते।
इन चैत्यों व देवस्थानों पर अकेले अथवा समूह में भक्तजन जाते, पूजन-अर्चन करते, पत्र-पुष्प चढ़ाते, धूप-दीप जलाते, मनौती मनाते और मनौती पूरी होने पर उत्सव-मंगल मनाते। यों इन देव-स्थानों पर बड़ी धूमधाम और चहल-पहल बनी रहती।
श्रेष्ठी अनाथपिण्डिक चाहता था कि ऐसा ही कुछ जेतवन पर भी हो, जिससे भगवान की अनुपस्थिति में भी वहां चहल-पहल बनी रहे। उसने अपनी मनोकामना भिक्षु आनन्द के सामने प्रकट की। आनन्द ने बहुत व्यवहार-कौशल्य से यह बात भगवान तक पहुँचायी।
उन्होंने भगवान से पूछा-
"भंते भगवान!
चैत्य कितने प्रकार के होते हैं?"
भगवान ने कहा, “तीन प्रकार के - शारीरिक, उद्देसिक और पारिभोगिक ।”
आयुष्मान आनन्द ने पूछा,
“भगवान! क्या बुद्ध के जीते जी उनके नाम पर कोई चैत्य बनाया जा सकता है?"
भगवान ने कहा, “शारीरिक चैत्य तथागत के शरीर त्यागने पर उनकी अस्थि-अवशेषों पर ही बन सकता है।
उद्देसिक चैत्य में मूर्ति चिह्न आदि की स्थापना द्वारा मनोकल्पना की प्रमुखता होती है जो कि अवांछनीय है।
हां, पारिभोगिक चैत्य तथागत के जीवनकाल में भी बन सकता है।"
आनन्द ने अनाथपिण्डिक की इच्छा सामने रखते हुए जेतवन में ऐसा एक पारिभोगिक चैत्य स्थापित करने की भगवान से स्वीकृति मांगी ताकि उनकी अनुपस्थिति में जेतवन जनशून्य और उत्साहशून्य न हो जाया करे ।
यह तो स्पष्ट था कि भगवान के परिनिर्वाण के बाद उनके द्वारा प्रयोग में लाये हुए भिक्षापात्र, चीवर, लकुटी आदि वस्तुओं पर चैत्य बनने लगेंगे, परंतु जीते जी वे ऐसी परंपरा स्थापित करना चाहते थे जो कि परम अर्थ के क्षेत्र में स्वस्थ हो, कल्याणकारिणी हो।
वह अपनी उपभोग की हुई किसी भौतिक वस्तु पर कोई चैत्य बनवाना नहीं चाहते थे। लोकोत्तर निर्वाण की प्राप्ति के लिए जिसका उपभोग किया वह तो बोधिवृक्ष था। अतः आनन्द का ध्यान उसी ओर खींचते हुए भगवान ने कहा, “तथागत के जीते जी बोधिवृक्ष ही पारिभोगिक चैत्य होता है जिसकी छाया में बैठकर अन्य लोग भी निर्वाण के सुख का रसास्वादन कर सकें।"
आनन्द को यह बात बहुत भायी। उन्होंने महामोग्गल्लान से प्रार्थना की और उनके जरिए बोधगया के बोधिवृक्ष का बीज मंगवाया और महाराज पसेनदि, माता विसाखा तथा अन्यान्य भक्तों की उपस्थिति में जेतवन के मुख्य द्वार के समीप श्रेष्ठी अनाथपिण्डिक द्वारा इसका आरोपण करवाया।
जब वृक्ष बढ़कर तैयार हुआ तब आनन्द के सत्प्रयत्नों से लगाया गया था इसलिए यह वृक्ष 'आनन्दबोधि' कहलाया। आनन्द ने भगवान से प्रार्थना की कि जिस प्रकार उन्होंने बोधिवृक्ष के नीचे रात-भर साधना की थी, उसी प्रकार यहां भी करें। पहली बार सम्यक संबोधि जगाने वाली साधना तो अद्वितीय ही होती है।
फिर भी भगवान ने साधकों के कल्याण के लिए आनन्दबोधि के नीचे एक पूरी रात निरोध-समापत्ति की साधना की और उस स्थान के अणु-अणु को निर्वाणधातु और धर्मधातु की तरंगों से आप्लावित कर चिरकाल के लिए परम पावन बना दिया।
सर्वसाधारण सामान्य गृहस्थ ही नहीं, अनेक ऐसे भिक्षु भी जो कि भगवान के साधना-संबंधी गंभीर धर्म में परिपक्व नहीं हो पाये थे, वे भगवान के जीवनकाल में ही इस आनन्दबोधि रूपी चैत्य पर
श्रद्धा-भक्तिपूर्वक पुष्प आदि चढ़ाकर पुण्य अर्जित करते रहे और यह परंपरा आगे भी चलती रही।
परंतु साथ-साथ एक अन्य परंपरा गंभीर साधकों की भी थी। उन्होंने भगवान के जीवनकाल में और तत्पश्चात भी आनन्दवोधि का उपयोग साधना के लिए किया।
आनन्दबोधि आज भी जीवित है। संभवतः यह संसार का सबसे पुरातन बूढ़ा वृक्ष है। भारतवर्ष में पुनर्जागृत विपश्यना के गंभीर साधक आज भी जब इस पावन वृक्ष के नीचे बैठकर विपश्यना साधना करते हैं तब देखते हैं कि कितना शीघ्र उनका मानस अनित्यबोध की धर्म-तरंगों से आप्लावित होने लगता है।
पुस्तक : आनंद ।
विपश्यना विशोधन विन्यास ॥
भवतु सब्ब मंङ्गलं !!