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उस दिन एक शिविर में श्री गोयन्काजी का बच्चों के शिविर संबंधी उदबोधन पर एक टेप सुनने को मिला। उसमें बालक-बालिकाओं को विपश्यना से लाभ होने का विशद वर्णन था। साथ ही एक बड़ी महत्त्वपूर्ण बात कही कि बच्चे की शिक्षा और संस्कार तो उसे माता के गर्भ से ही प्राप्त होने लगते हैं। इसलिए यदि गर्भवती महिला भी विपश्यना की साधिका हो तो होने वाले शिशु को 'धर्म' के संस्कार विरासत में मिल जायेंगे।
उनका यह कथन केवल मात्र अनुमान मात्र नहीं हैं। यह एक तथ्य है। हमारी संस्कृति में जीवन-सुधार के लिए 16 संस्कारों की व्यवस्था है। इन 16 में से 3 संस्कार बच्चे के जन्म होने के पहले के हैं। अन्य सभी संस्कार विभिन्न देश और संस्कृतियों में जन्म के बाद ही होते हैं। जैसे नामकरण (Baptism), केश-छेदन, विवाह, और अंत्येष्टि आदि ही हैं। हमारे मनीषी और ऋषियों ने गर्भाधान, पुंसवन तथा सीमंतोन्नयन - ये तीन संस्कार जन्म के पहले के बताये हैं। इनमें विशेष मंत्रों द्वारा प्रार्थना, उत्तम स्वास्थ्य तथा मन और चित्त की शुद्धता का कार्यक्रम होता है। हमारी आस्था के अनुसार गर्भाधान संभोग सुख के लिए नहीं, बल्कि उत्तम संतान प्राप्ति के हेतु किया गया एक सात्विक धार्मिक कृत्य है। गर्भ स्थित हो जाने पर पुष्टि कारक भोजन तथा ओषधि का प्रयोग उत्तम स्वास्थ्य के लिए किया जाना इस पुंसवन संस्कार का महत्त्व है। माता के मन को शांत, उदात्त विचारों वाला, प्रसन्न और स्वस्थ चित्त रखने का प्रयत्न सीमंतोन्नयन संस्कार का उद्देश्य है।
कहा गया है -मातृमान्, पितृमान्, आचार्यो वेदः -अत: माता ही प्रथम गुरु है। माता के मानसिक विचार तथा भाव और भावनाओं आदि का पुष्कल प्रभाव शिशु पर पड़ता है। यह सर्वविदित बात है कि बच्चे की शक्ल-सूरत, माता-पिता पर जाती है, इतना ही नहीं उसकी बोल-चाल का तरीका,उठने-बैठने, चलने, लेटने सोने आदि की आदतें, हाव-भाव, चाह-अनचाह आदि बहुत-सी बातें माता-पिता के अनुरूप ही होती हैं। यह सब प्रकृति द्वारा माता-पिता में पाये जाने वाले जीनों के द्वारा ही होता है। ये जीन (Gene) ही इन संस्कारों को देते हैं। अत: यदि माता विपश्यी होगी तो संतान को भी उसके अच्छे संस्कार विरासत में मिल जायेंगे। (Foetus) भ्रूण छठे महीने में ही सुनने लग जाता है, तथा उसका (Nervous System) स्नायुतंत्र विकसित होने लगता है। मां यदि चौथे-पांचवे मास से ही विपश्यना करे तो अवश्यमेव आशातीत लाभ होगा ही।
इतिहास में इस बात के उदाहरण हैं कि बच्चे को गर्भ में ही अनेक शिक्षाएं प्राप्त हुई हैं। महाभारत के आख्यान में अभिमन्यु को चक्र व्यूह भेदन की क्रिया का ज्ञान गर्भ में ही प्राप्त हो गया था। अर्जुन, सुभद्रा को यह ज्ञान दे रहे थे। सुनते-सुनते सुभद्रा सो गयी और अर्जुन भी चुप हो गये। फलस्वरूप व्यूह से बाहर निकलने का गुर बिना बताये ही रह गया और बेचारा अभिमन्यु मार डाला गया। लव, कुश को भी शस्त्र ज्ञान गर्भ में ही मिला, यह कहा गया है। कुछ लोग महाभारत को मिथक (Myth) बताते हैं । पर चाहे कुछ भी हो, इससे इतना तो निश्चित हो ही जाता है कि जब महाभारत का कथानक लिखा गया होगा तो इस बात का ज्ञान तो था ही कि माता द्वारा सुनी हुई बात का प्रभाव शिशु पर होता है।
मार्च 1985 के अंग्रेजी मासिक रीडर्स डाइजेस्ट' (Readers Digest) के अंक में बालक के जन्म से पूर्व के जीवन के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण लेख प्रकाशित हुआ था। इसमें वैज्ञानिकों ने अनेक ऐसे उदाहरण दिये हैं जिनसे जन्म के पूर्व के संस्कारों का पूरा प्रमाण नवजात शिशु पर परिलक्षित होने की पुष्टि होती है। इस लेख के अनुसार श्रीमती हेलन का कहना है कि वह एक विशेष लोरी अपनी संतान के जन्म से पूर्व गाया करती थी। बालक पैदा हुआ तो वह लोरी (गीत) बच्चे पर जादू का असर करती ।वह चाहे कितना ही बेचैन हो, रोता हो या चिल्लाता हो - इस गीत को सुनते ही पूर्ण शांत हो जाता था।
बाल-रोग विशेषज्ञ डॉ. ट्वी के 1960 से ही किये गये अनुसंधानों से ज्ञात होता है कि गर्भ के छठवें मास से ही बच्चा सुनने और अनुभव करने लग जाता है। माता की बोली और ध्वनि के प्रति संवेदनशील होने लगता है। विशेष प्रकार के संगीत से शांत और दूसरे प्रकार के गान से उद्विग्न हो जाता है।
कनाडा के एक विख्यात संगीत-गायक का कहना है कि उन्हें संगीत की कुछ कठिन धुनों को बिना देखे ही बजा लेने की अद्भुत क्षमता प्राप्त हो गयी थी। उन्हें हैरानी थी कि ऐसा क्यों होता है। उन्होंने एक दिन अपनी माता से इस समस्या का हल पूछा तो उसने बताया कि जब वह गर्भ में था तब वह उन पदों का अभ्यास किसी विशेष आयोजन के लिए करती रही थी। उसके कारण ही ऐसा हुआ होगा।
इसी प्रकार बालिका क्रिस्टीना की कहानी है। बच्ची जब पैदा हुई तो अपनी मां का दूध न पीती। रोती, चिल्लाती, भूखी रह जाती, परंतु मां के स्तनों को मुँह भी न लगाती, परंतु धाय (Wet Nurse) को दी जाती तो उसका दूध तुरंत पी लेती। इसका कारण मां ने बताया कि गर्भ की प्रारंभिक अवस्था में उसने गर्भ-पात करने का प्रयास किया था, पर अपने पति के आग्रह पर वह रुक गयी थी। इससे बालिका के मन में विद्रोह की भावना पैदा हो गयी।
इसी प्रकार के और भी अनेक उदाहरण वैज्ञानिकों ने एकत्र किये हैं, जिनसे सिद्ध हो जाता है कि शिशु पर मां-पिता के व्यवहार, विचारों, शील-सदाचार आदि का प्रभाव पड़ता ही है।
विपश्यना द्वारा व्याक्ति की मानसिक और चैतसिक विशुद्धि होती है। मन की गहराइयों में पड़े हुए विकारों से मुक्ति होती है, यह निश्चित है।
अत: गर्भवती माताएं शील पालन करती हुई नियमित रूप से विपश्यना साधना करें तो भावी संतान अवश्यमेव एक धर्मनिष्ठ, चरित्रवान, उत्तम नागरिक बनने में सक्षम होगी।
भवतु सब्ब मंगलं!
डा. ओम प्रकाश
सी 34 पंच्चशील एन्क्लेव नयी-दिल्ली - 110017.
जुलाई 1996 विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित
Mrs. Kumud Shaha Asst Teacher on Vipassana in Pregnancy