प्रिय साधक-साधिकाओ!
आओ, पूज्य गुरुदेव सयाजी ऊ बा खिन के प्रति एक बार फिर कृतज्ञताविभोर होकर अपनी श्रद्धा प्रकट करें और उनके अधूरे सपनों को साकार करने के लिए हम सब संकल्पबद्ध हों कि उस युग पुरुष बोधिसत्व की कीर्तिकाया को चिरस्थाई बनायेंगे। केवल आज की ही नहीं, बल्कि सदियों तक की भावी पीढ़ियों के विपश्यी परिवार उनके उपकार को नहीं भुलायेंगे । जब तक धरती पर शाक्यमुनि भगवान गौतम बुद्ध की पावन स्मृति जीवित रहेगी, तब तक इस बुद्ध-पुत्र के असीम उपकार की यशस्वी याद भी बनी रहेगी।
कृतज्ञता शाक्यमुनि भगवान गौतम बुद्ध के प्रति भी जिन्होंने दसों पारमिताओं को पूरा करने के लिए कल्पों तक नाना प्रकार के कष्ट उठाये और अंततः विजयी होकर विपश्यना विद्या खोज निकाली और उसे मुक्त हस्त से बांटा तभी तो हमें प्राप्त हुई।
उपकार तो ब्रह्मदेश म्यंमा का भी नहीं भूलेंगे, जिसने सन्तों की गुरु-शिष्य परंपरा द्वारा मूल बुद्धवाणी को ही नहीं, बल्कि तथागत द्वारा मानवजाति को दी गयी उनकी सबसे महान भेंट कल्याणी विपश्यना को भी शुद्ध रूप में सुरक्षित रखा।
असीम उपकार उन श्रद्धेय भिक्षु प्रवर लैडी सयाडो का भी, जिन्होंने सदियों से भिक्षुओं द्वारा सुरक्षित रखी गयी विपश्यना विद्या को गृहस्थों के लिए न केवल सुलभ बना दिया बल्कि एक गृहस्थ आचार्य को प्रशिक्षित भी कर दिया।
असीम उपकार उन प्रथम गृहस्थ आचार्य सयातैजी का भी, जिन्होंने इस विशिष्ट उत्तरदायित्व को अत्यंत विलक्षणरूप से निभाया, जिससे कि लोग इस तथ्य के प्रति आश्वस्त हुए कि एक गृहस्थ भी मैत्रीसंपन्न कुशल विपश्यनाचार्य की सफल भूमिका अदा कर सकता है।
और फिर उनके प्रमुख शिष्य सयाजी ऊ बा खिन के उपकार का तो कहना ही क्या! जिनके अदम्य उत्साह और अपूर्व धर्मसंवेग के फलस्वरूप यह मुक्तिदायिनी विद्या हम सब को मिली। सदियों पूर्व से विलुप्त हुई जिस विपश्यना विद्या को योगिनांचक्रवर्ती शाक्यमुनि सिद्धार्थ गौतम ने केवल अपने ही नहीं, बल्कि अनेकों के कल्याण के लिए खोज निकाली थी, वह विद्या कुछ ही सदियों बाद अपनी जन्मभूमि भारत में ही नहीं, बल्कि स्वर्णभूमि म्यंमा को छोड़ कर सर्वत्र पुनः लुप्त हो गयी। कितना अटूट विश्वास था सयाजी के मन में इस पुरातन मान्यता का कि यह विद्या अब फिर जागेगी और अपने देश वापस लौटेगी। वे बार-बार कहते थे कि कल्याणी विपश्यना के पुनर्जागरण का डंका बज चुका है और अब अपनी जन्मभूमि भारत में इसका शीघ्र ही पुनरागमन होगा। भारत में इस समय अनेक पुण्यपारमी संपन्न लोग जन्मे हैं जो इसे सहर्ष स्वीकार करेंगे और तदनंतर यह सकल विश्व में छाये अविद्या के अंधकार को चीरती हुई प्रभासमान होगी तथा अमित लोक कल्याण करेगी।
वे कहा करते थे कि सदियों पूर्व म्यंमा इस विद्या को प्राप्त कर भारत का ऋणी हुआ था। उसे अब यह ऋण चुकाना है, भारत को विपश्यना विद्या पुनः लौटानी है। वे यहां पधार कर यह पुनीत कार्य स्वयं किया चाहते थे, परंतु कर नहीं पाए। यहां आ नहीं पाए। भले सशरीर नहीं आ पाए, परंतु अपने धर्मपुत्र के साथ दिव्य शरीर में यहां अवश्य आए और अपना धर्म-संकल्प पूरा करवाने में सहायक हुए।
विपश्यी साधक/साधिकाओं के मन में यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि उन्हें यह अनमोल विद्या किसी गोयन्का से मिली है। गोयन्का तो केवल माध्यम मात्र है। वस्तुतः उन्हें विपश्यना तो सयाजी ऊ बा खिन से मिली है। भारत आकर जुलाई 1969 में जब पहला शिविर दिया, तब से लेकर अब तक प्रत्येक शिविर लगाते हुए वह इसी तथ्य की घोषणा करता रहा है और भविष्य में भी करता ही रहेगा। आनापान देते हुए शिविर में सदैव उसकी यह धर्मवाणी गूंजती है-
“गुरुवर! तेरी ओर से, देऊं धरम का दान।...
और इसी प्रकार विपश्यना देते हुए भी
"गुरुवर! तेरा प्रतिनिधि, देऊ धरम का दान।...
और मैत्री के पश्चात शिविर समापन करके अपने निवास कक्ष में लौट कर भी -
“गुरुवर! तेरो पुन्य है, तेरो ही परताप ।
लोगां नै बांट्यो धरम, दूर करण भवताप ॥"
अन्य सहायक भी यही टेप चला कर शिविर लगाते हैं और भविष्य में इस पीढ़ी के ही नहीं, भावी पीढ़ियों के भी सभी आचार्य यही टेप चला कर शिविर लगायेंगे। अतः स्पष्ट है कि शुद्ध विपश्यना के पुनः भारत लौटने और भारत से सारे विश्व में फैलने का वास्तविक श्रेय परम पूज्य गुरुदेव सयाजी ऊ बा खिन को ही है। उनके उपकार को कोई भी विपश्यी साधक कैसे विस्मृत कर सकता है भला!
यह एक ज्वलंत ऐतिहासिक तथ्य है कि यदि म्यंमा (बर्मा) नहीं होता तो विपश्यना कायम नहीं रहती। यदि विपश्यना कायम नहीं रहती तो लैडी सयाडो नहीं होते । यदि लैडी सयाडो नहीं होते तो सयातैजी नहीं होते। यदि सयातैजी नहीं होते तो सयाजी ऊ बा खिन नहीं होते और यदि सयाजी ऊ बा खिन नहीं होते तो गोयन्का कहां से होता? गोयन्का तो सयाजी का ही मानस पुत्र है। सयाजी ऊ बा खिन के करुण मानस में भारत का पुरातन ऋण चुकाने का प्रबल धर्मसंवेग न जागता और भारत तथा विश्व भर में विपश्यना के फैलाव की धर्माकांक्षा न जागती तो जो कुछ हुआ है, वह कैसे संभव होता? द्वितीय धर्मशासन के जागरण और प्रसारण में इस महान गृही संत का बहुत बड़ा हाथ रहा है । हम उसके ऋण से कैसे उऋण हो सकते हैं। सचमुच -
रोम रोम कृतज्ञ हुआ, ऋण न चुकाया जाय।
ऋणमुक्त होने का सर्वप्रथम महत्त्वपूर्ण उपाय तो यही है कि जीयें जीवन धर्म का !
धर्मचक्र प्रवर्तन के पावन अवसर पर सभी विपश्यी साधक यह दृढ़ निश्चय करें कि हम यथाशक्ति धर्म का जीवन जीयेंगे । हम सब सयाजी ऊ बा खिन के शिष्य, उनका गौरव अक्षुण्ण रखेंगे। धर्मपथ पर दृढ़तापूर्वक चलते हुए हम अपना तो कल्याण साधेंगे ही, औरों के कल्याण में सहायक बन जायेंगे । हमारी धर्ममयी जीवनचर्या को देख कर जिनमें विपश्यना के प्रति श्रद्धा नहीं है, उनमें श्रद्धा जागेगी, जिनमें श्रद्धा है, उनकी श्रद्धा बढ़ेगी। इस प्रकार विपश्यना के प्रसार द्वारा अनगिनत लोगों के कल्याण का पथ प्रशस्त होगा।
पूज्य गुरुदेव सयाजी ऊ बा खिन की असीम मंगल मैत्री के बल पर ही यहां विपश्यना के पांव दृढ़तापूर्वक जमे हैं। भारत के हर वर्ग के, हर संप्रदाय के लोगों ने इसे सहर्ष अपनाया है। विश्व भर के छहों महाद्वीपों के छोटे-बड़े शताधिक देशों के लोगों ने इसे बिना झिझक स्वीकार किया है और लाभान्वित हुए हैं।
इतने कम समय में जो कुछ हुआ है उसका अवमूल्यन नहीं करना चाहते, परंतु जो कुछ बाकी है वह तो निस्संदेह बहुत अधिक है। जो कुछ संपन्न हुआ, उसे आधार मान कर विश्वव्यापी विपश्यना के बहुमुखी विकास के लिए हम सभी सन्नद्ध हों। इस अवसर पर हम निम्नांकित योजनाओं को पूरा करने में दृढ़तापूर्वक जुट जायँ, जिससे सयाजी ऊ बा खिन की धर्मकामना पूरी करती हुई कल्याणी विपश्यना विद्या भविष्य में प्रभूत प्रभावशाली ढंग से प्रवेश करे ।
» अब तक भारत तथा विश्व भर में विपश्यना के जितने केंद्र स्थापित हो चुके हैं और जिनमें प्रशिक्षण चल रहा है उनका विकास हो और जो निर्माणाधीन हैं उनका निर्माण शीघ्र से शीघ्र पूरा हो, ताकि अधिक से अधिक लोग उनसे लाभान्वित होते रहें।
» धम्मगिरि के प्रमुख विपश्यना केंद्र में प्रति शिविर 600 से अधिक दस दिवसीय साधकों को प्रवेश दिया जा रहा है फिर भी अनेकों को महीनों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। स्थानाभाव के कारण अब यहां दस दिवसीय के साथ-साथ 20, 30, 45 और 60 दिनों के शिविर लग सकने कठिन हो गये थे। अतः निर्णय किया गया कि धम्मगिरि पर केवल दस दिवसीय शिविर ही लगें। लंबे शिविरों के लिए धम्मगिरि के सन्निकट धम्म तपोवन नं. 1 एवं धम्म तपोवन नं. 2 - दो नए केंद्रों की स्थापना की गयी, इन्हें पूरा करें ताकि दीर्घकालीन एकाकी, एकांत तपस्या में लीन होने वाले अधिकाधिक तपस्वियों और तपस्विनियों को पूर्ण सुविधासम्पन्न एक-एक निवास और एक-एक शून्यागार उपलब्ध हो, ताकि गंभीर साधक इन नए केंद्रों में गहराइयों तक डुबकी लगा कर इस विद्या का अत्यधिक लाभ उठा सकें।
» विश्व के अधिक से अधिक लोगों को विपश्यना विद्या का लाभ मिले, इसलिए केवल स्थाई विपश्यना केंद्रों में ही नहीं, बल्कि अनेक देशों में अकेंद्रीय स्थानों पर भी अस्थाई शिविर लगते रहते हैं। ऐसे अकेंद्रीय शिविर अधिक से अधिक स्थानों पर लगें, ताकि अधिकाधिक लोग विपश्यना से लाभान्वित हो सकें।
»भारत, म्यंमा, नेपाल, ताईवान, इंगलैंड और अमेरिका के कारागृहों में लगे विपश्यना शिविरों ने बंदी अपराधियों में सुधार की महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह शिक्षणक्रम इन देशों में तो आगे बढ़े ही, अन्यान्य देशों में भी शीघ्र आरंभ किया जाय ।
» भारत और नेपाल में नेत्रविहीन लोगों के लिए अत्यंत फलदायी विपश्यना शिविर लगे हैं। इनका इन्हीं देशों में ही नहीं, बल्कि अन्य देशों में भी फैलाव हो ।
» भारत में कुष्ठ रोगियों के लिए विपश्यना के शिविर लगे, जिनसे उनकी मानसिकता में बहुत सुधार हुआ है। उनकी हीनभावना की ग्रंथियां टूटी हैं। विपश्यना के कारण जीवन में मुस्कान आयी है। इस क्षेत्र का सफल प्रयोग आगे बढ़ाया जाना चाहिए।
» जुए, तंबाकू और मादक पदार्थों के अनेक व्यसनी विपश्यना के अभ्यास द्वारा व्यसन-मुक्त हुए हैं। ड्रग के व्यसन में बुरी तरह जकड़े हुए लोगों का भी व्यसन-विमोचन हुआ है। आस्ट्रेलिया और स्विटजरलैंड में सरकारी सहयोग के साथ इस दिशा में विपश्यना द्वारा बहुत काम हुआ है और हो रहा है। इस लोकोपकारी कार्य को सर्वत्र बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
» भारत तथा अन्य अनेक देशों में प्राइमरी से लेकर हाईस्कूल तक के हजारों छात्र-छात्राएं आनापान से और कॉलेज के विद्यार्थी विपश्यना से लाभान्वित हो रहे हैं। यह कार्यक्रम बहु-गुणित रूप में आगे बढ़ना चाहिए ताकि मानव जाति की भावी पीढ़ी सुख-शांति, स्नेह-सौहार्द तथा सद्भावना का जीवन जी सके।
» मित्र उपक्रमः इसी क्रम में महाराष्ट्र शासन ने मित्र उपक्रम नाम से एक कार्य योजना तैयार की है जिसके माध्यम से पूरे महाराष्ट्र के सभी सरकारी स्कूलों में विपश्यना और बच्चों को आनापान सिखाने की प्रक्रिया आरंभ की है। शिविर में सम्मिलित होने के लिए अध्यापकों को सवैतनिक अवकाश दिया जाता है ताकि वे न केवल इस विद्या से स्वयं लाभान्वित हों, बल्कि स्कूलों में बच्चों को आनापान करवा सकने में सफल हो सकें। इस प्रकार अब तक लाखों की संख्या में लोग लाभान्वित हुए हैं। इसे आगे बढ़ाना चाहिए।
» भारत में, विशेषकर मुंबई शहर में सड़कों पर जीवन बिताने वाले गरीब आवारा बच्चों पर भी आनापान के प्रशिक्षण का सफल प्रयोग किया। इसे भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
» पटिपत्ति विपश्यना सद्धर्म का प्रयोगात्मक पक्ष है। इसका परियत्ति यानी सैद्धान्तिक पक्ष उजागर करने के लिए जिस विपश्यना विशोधन विन्यास का गठन किया गया, उसने अपने कार्यक्षेत्र में विशिष्ट सफलता प्राप्त की है। मूल पालि तिपिटक, समस्त अट्ठकथाएं, टीकाएं और अनुटीकाएं तथा अन्य अनेक ग्रंथों सहित बृहद पालि वाङ्मय एक छोटी-सी सघन तस्तरी में निवेशित कर दिया गया है। अन्य दुर्लभ पालि ग्रंथ भी जहां कहीं उपलब्ध थे, उन्हें इसमें जोड़ दिया गया। इन ग्रंथों का पुस्तकाकार प्रकाशन भी संतोषजनक गति से आगे बढ़ना चाहिए।
» इसी प्रकार संस्कृत भाषा के संपूर्ण धार्मिक वाङ्मय को भी निवेशित करने का सराहनीय काम आरंभ कर दिया गया है। उसे शीघ्र पूरा किया जाना आवश्यक है। इससे शोधकार्य गंभीरतापूर्वक संपन्न हो सकेगा और इससे यह जाना जा सकेगा कि वे कौन-से कारण थे, जिनकी वजह से कल्याणी विपश्यना और तत्संबंधी साहित्य इस देश से विलुप्त हुए। ऐसे खतरों के प्रति सजग रहते हुए भारत में पुनः आयी हुई विपश्यना और उसके साहित्य को चिरकाल तक सुरक्षित रखना है। इसी से गुरुदेव की यह मंगल कामना पूर्ण होगी - “चिरं तिद्वतु सद्धम्मो” । यह कार्य किसी भी अन्य संप्रदाय के प्रति द्वेषभाव जगा कर कदापि न किया जाय । केवल यथाभूत सत्य का अन्वेषण हो । क्योंकि गुरुदेव सयाजी ऊ बा खिन सदा 'सत्यमेव जयते' की धर्मनीति के ही पक्षधर थे। उनकी कुर्सी के पीछे यही बोल बरमी भाषा में लिखे रहते थे। ...
(क्रमशः -- अगले अंक में)
साधको, धर्म को चिरस्थाई बनाने के लिए आओ, उपरोक्त सभी योजनाओं को सफल करके उनकी इस धर्मकामना को पूरी करते हुए हम अपना भी कल्याण साधे तथा जन-जन के कल्याण में भी सहायक बन जायें।
कल्याणमित्र
सत्यनारायण गोयन्का
जून 2013 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित