बुद्ध के बाद सम्राट अशोक ने बुद्ध की धर्म-शिक्षा भारत के दूर-दूर गांवों में और पड़ोसी देशों में भी फैलायी । अशोक के मरने के बाद उसकी संतानों में राजगद्दी प्राप्त करने की मन्शा से परस्पर तू-तू, मैं-मैं होने लगी। धीरे-धीरे राजपरिवार की सुख-शांति नष्ट होने लगी। अंततः सारा साम्राज्य बृहद्रथ के हाथों में आ गया। बृहद्रथ दुर्बल वृत्ति का राजा था । बाहर से दुश्मनों के आक्रमण होते रहते थे। अतः उसने अपनी अश्वारोही सेना के सैनिकों को प्रशिक्षित करने के लिए किसी अन्य देश से आये पुष्यमित्र शुंग नामक युवक को अपनी अश्वसेना का प्रशिक्षक बनाया । धीरे-धीरे कुछ कुटिल लोगों की चालाकी से यह व्यक्ति सारी सेना का सेनापति हो गया। दुभाग्य से इन्हीं लोगों ने चालाकी से पुष्यमित्र के हाथों राजा की हत्या करवा दी और पुष्यमित्र शुंग को राजगद्दी पर बैठा दिया जो कि सेना का सेनापति था। वह राजमद में मस्त हो गया। उसे नहीं दीख रहा था कि षड़यंत्रकारी उसके द्वारा क्या करवा रहे हैं। उसके बाद वे अपनी मनमानी करने लगे - "सैंया भये कोतवाल, अब डर काहे का' - यह कहावत चरितार्थ होने लगी।
लोगों में बहुत बड़ी भ्रांति फैली कि पुष्यमित्र शुंग के राज्य में समस्त ब्राह्मण समाज ने मिल कर बुद्ध की शिक्षा को नष्ट कर दिया । वस्तुतः सामान्य ब्राह्मणों को बुद्ध की शिक्षा से कोई विरोध नहीं था। विरोध ब्राह्मणों के पुरोहित वर्ग के मन में जागा क्योंकि जो पशु-यज्ञ होते थे, वे बुद्ध की शिक्षा से बंद होते चले गये । अतः उन यज्ञों से होने वाली उनकी बड़ी आमदनी में रुकावट आयी। यह सच है कि सभी पुरोहित ब्राह्मण ही थे, परंतु सच यह भी है कि सभी ब्राह्मण पुरोहित नहीं थे। यज्ञ बंद होने से सबसे बड़ी हानि पुरोहित वर्ग के ब्राह्मणों को हुई। अतः उन्होंने नयी-नयी तैयार हुई संस्कृत भाषा में जो साहित्य रचा, उसमें बुद्ध की शिक्षा को लोगों के लिए अग्राह्य और गलत बताया गया और यो बुद्ध की शिक्षा विनष्ट होती चली गयी।
अतः सभी ब्राह्मणों को बुद्ध की शिक्षा को विनष्ट करने में जिम्मेदार ठहराना बिल्कुल गलत है। क्योंकि बुद्ध की विद्या को नष्ट करने वाले तो इने-गिने पुरोहित थे जो ब्राह्मण वर्ग के अवश्य थे, परंतु ब्राह्मणों का आम समाज पुरोहितगिरी नहीं करता था। अतः बुद्ध के द्वारा पशु-यज्ञ बंद करा देने से उनका बहुत बड़ा नुकसान नहीं था। यज्ञों का प्रमुख लाभ तो पुरोहितों को प्राप्त होता था। बाकी अन्य ब्राह्मणों को तो केवल प्रसादी के रूप में बलि पर चढ़े पशु के मांस के कुछ टुकड़े मिल जाते थे। इन यज्ञों , के बंद होने से सबसे बड़ी हानि पुरोहितों को हुई, न कि अन्य ब्राह्मण समाज को। पुरातन साहित्य के अवलोकन से इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि कौन-से यज्ञ को कराने पर पुरोहित को कितनी दक्षिणा मिलती थी :
(1) अग्निहोत्र यज्ञ - 1000 से आधिक गायें और चांदी के ढोल चढ़ाया हुआ सफेद रथ
(2) विश्वजित यज्ञ -- अपनी सारी संपत्ति अथवा 1000 गायें और 100 घोड़े
(3) विश्वजित शिल्प यज्ञ -- राजा और उसके प्रदेश की हैसियत के अनुसार जितना वह दे सकता है, देना पड़ता है।
(4) स्येन यज्ञ -- क्योंकि यज्ञ का रूप जादू-टोना है, दक्षिणा के तौर पर एक आंख वाली, लूली, बिना सींग, बिना पूंछ की, बीमार गाय देनी पड़ती थी।
(5) साड्यशक्र यज्ञ - 6006 गायें
(6) वाजपेय यज्ञ - 1700 गौएं, 1700 मूल्यवान कपड़े, 1700 भेड़, 1700 बकरियां । कहीं-कहीं 17000 भी कहा गया है।
(7) राजसूय यज्ञ - 24000 गायें
( अश्वमेध यज्ञ -- अनगिनत गायें और रानी और पुत्री तक को पुरोहित को दिया जाता था।
(9) सर्वमेध यज्ञ - अपनी सारी जमीन-जायदाद, अपनी मिल्कियत की सारी संपत्ति पुरोहित को दी जाती थी।
आम ब्राह्मण पुरोहित नहीं थे। अनेक ब्राह्मण भिन्न-भिन्न प्रकार के रोजगार से अपना पेट पालते थे। उदाहरणस्वरूप :
1- वैद्य का कार्य,
2- राज अमात्य का कार्य,
3- शिकार करने का कार्य,
4- मछली पकड़ने का कार्य,
5- राजा की सेवा का कार्य,
6- आचार्य (सिखाने-पढ़ाने का कार्य),
7- पशुपालन का कार्य,
8- मेहनत-मजदूरी का कार्य,
9- खेत जोतने का कार्य, और
10- तलवार के लक्षण बताने का कार्य, इत्यादि।
पुरोहित वर्ग में भी कुछ चुने हुए लोग जो नई-नई संस्कृत भाषा के विद्वान थे, वे बुद्ध द्वारा प्रयुक्त बहुत से साधना संबंधी शब्दों का प्रयोग अपने प्रशिक्षण में करने लगे, ताकि लोगों को यह भ्रांति हो कि उनकी विद्या तो पुरातन है जिसे बुद्ध ने उनके साहित्य से प्राप्त किया है। उन्होंने ऐसे साहित्य की रचना की, जो कि बुद्ध की शिक्षा का विरोधी साबित हुआ । बुद्ध की शिक्षा में आर्य अष्टांगिक मार्ग बहुत प्रसिद्ध था, अतः उन्होंने अष्टांग योग का निर्माण किया। बुद्ध की विपश्यना में सिर से पांव और पांव से सिर तक भीतर की सच्चाई को देखने की क्रिया थी, जिसे अनुलोम-प्रतिलोम कहते थे। उन्होंने श्वास के आवागमन को अनुलोम-प्रतिलोम का नाम दे दिया, ताकि लोगों को भ्रांति हो कि यह अनुलोम-प्रतिलोम की शिक्षा भी बहुत पुरातन है। इस प्रकार पुरोहित-वर्ग के इन संस्कृत-साहित्यकारों ने यह सिद्ध करने की चेष्टा की कि बुद्ध ने इस पुरातन विद्या के आधार पर अपनी शिक्षा का विस्तार किया।
पुरोहितों ने समाज में इस बात का भी प्रबल प्रचार किया कि कृष्ण बुद्ध से पूर्व के अवतार थे। अतः उनके समय की गीता निश्चित रूप से पुरातन ग्रंथ है। जबकि वास्तविकता यह है कि गीता बुद्ध के बाद की रचना है और बुद्ध की शिक्षा पर गीता का प्रभाव नहीं है बल्कि गीता पर बुद्ध की शिक्षा का प्रभाव है।
दूसरा उन्होंने देखा कि बुद्ध की शिक्षा का विस्तार इसलिए हुआ कि यह सांप्रदायिक शिक्षा न होकर सार्वजनीन शिक्षा थी। बुद्ध की शिक्षा का आधार शील, समाधि है और सदाचरण ही धर्म है। लोग इसे सांप्रदायिक नहीं मानते थे। अतः इसका फैलाव होने में कोई कठिनाई नहीं हुई। बुद्ध ने अपनी शिक्षा को 'धर्म' कहा, जो कि सबका होता है । अपने अनुयायियों को 'धार्मिक' कहा, इसे सब स्वीकार करते हैं। अतः उन्होंने बुद्ध की शिक्षा पर गहरी चोट यह पहुँचायी कि उनकी शिक्षा 'धर्म' न होकर 'बौद्ध-धर्म' थी और उनके अनुयायी धार्मिक' न होकर 'बौद्ध' थे। इस प्रकार बुद्ध की सार्वजनिक शिक्षा सांप्रदायिक बना दी गयी और लोग इसको भी एक 'सांप्रदायिक-धर्म' मानने लगे। इससे बुद्ध की शिक्षा का जिस सहज भाव से विस्तार हो रहा था, वह रुक गया।
संप्रदाय शब्द धर्म के रूप में माना जाने लगा। अतः जब भारत का संविधान बना तो गलती से उसे हिंदी भाषा में 'धर्म-निरपेक्ष' कहा गया। कोई भी अच्छा राज्य धर्म-निरपेक्ष नहीं होता बल्कि 'धर्म-सापेक्ष' होता है, यद्यपि 'संप्रदाय-निरपेक्ष' अवश्य होता है। अंग्रेजी में बने हुए भारतीय संविधान का हिंदी अनुवाद हिंदी के प्रसिद्ध विद्वान सेठ गोविंददास द्वारा किया गया और उन्होंने हिंदी अनुवाद में 'धर्म-निरपेक्ष' शब्द का प्रयोग किया, जो कि गलत था। सेठ गोविंददास जब रंगून में मुझसे मिले तो मैंने उनसे कहा कि अच्छा राज्य धर्म-निरपेक्ष कैसे होगा? राज्य तो 'धर्म-सापेक्ष' होना चाहिए। हां, संप्रदाय-निरपेक्ष अवश्य है, उन्होंने अपनी गलती स्वीकारी और आगे जाकर के 'धर्म-निरपेक्ष' की जगह 'पंथ-निरपेक्ष' कर दिया। हिंदी के एक अन्य विद्वान ने भी इस बात की आवाज उठायी कि 'धर्म-निरपेक्ष' नहीं कहना चाहिए और 'पंथ-निरपेक्ष' शब्द का उन्होंने भी समर्थन किया।
सारे देश में आज भी 'धर्म' का अर्थ 'संप्रदाय' के रूप में लिया जाता है, जैसे- हिंदू-धर्म, जैन-धर्म, इस्लाम-धर्म, सिक्ख-धर्म इत्यादि । 'धर्म' सबको स्वीकार्य है और बुद्ध की शिक्षा जब तक 'धर्म' थी, तब तक सबको स्वीकार्य थी। परंतु 'बौद्ध-धर्म' बनते ही अन्य संप्रदायों की भांति ही वह संप्रदाय हो गयी। यह मान्यता दुर्भाग्य से सारे भारत में ही नहीं बल्कि पड़ोसी देशों में भी फैली । अंग्रेज लोग भारत में आये तो उन्होंने हिंदुइज्म (Hinduism), जैनिज्म (Jainism) जैसे शब्दों की भांति बुद्ध की शिक्षा को भी 'बुद्धिज्म' (Buddhism) कहना शुरू कर दिया और उनके अनुयायियों को 'बुद्धिष्ट' (Buddhist) कहने लगे। इस प्रकार अंग्रेजों ने बुद्ध की शिक्षा को बुद्धिज्म घोषित किया और उसके अनुयायियों को बुद्धिष्ट । राजा की मान्यता का प्रभाव प्रजा पर पड़ने लगा। जहां-जहां उनके राज्य का विस्तार हुआ, वहां-वहां बुद्ध की शिक्षा धर्म न रह कर 'बौद्ध-धर्म' हो गयी और 'बुद्धिज्म (Budhhism)' कहलायी और इसको मानने वाला 'धार्मिक' न होकर 'बौद्ध' हो गया। बुद्ध की शिक्षा सांप्रदायिकता-विहीन थी, सार्वजनीन थी। उसे सांप्रदायिक बनाने के लिए अन्य शिक्षाओं की भांति जब बौद्ध-धर्म' कहा जाने लगा तब बुद्ध की शिक्षा के पतन का यह एक बड़ा कारण हुआ। लोगों में इस बात का प्रचार होने लगा कि "स्वधर्म निधनं श्रेयः परधर्मो भयावह'' - पराये धर्म में जाने की अपेक्षा स्वधर्म में मरना श्रेयस्कर है। गीता के ये बोल बुद्ध के बाद के हैं लेकिन गीता को बुद्ध से पूर्व की रचना बता कर इस पद को पुराना प्रसिद्ध कर दिया गया । वस्तुतः इसे पुरातन भारतीय संस्कृति से नहीं लिया गया, बल्कि बुद्ध की शिक्षा को बिगाड़ कर ग्रहण किया।
जिसे 'धर्म' कहते हैं उसे सभी जाति, वर्ण, गोत्र, संप्रदाय अथवा देश-विदेश के लोग एक समान स्वीकार करते हैं क्योंकि धर्म सबका होता है। "सदाचरण ही धर्म है, दुराचरण ही पाप'' - इस बोल में किसी को कोई मतभेद नहीं होता। लेकिन जब बुद्ध की शिक्षा को "बौद्ध-धर्म'' कहना शुरू कर दिया तो उसे भी संप्रदाय के साथ जोड़ कर लोग यह समझने लगे कि यह तो पराया धर्म है, उनको इससे दूर रहना चाहिए। भारत में बुद्ध की शिक्षा के पतन होने का यह एक बड़ा कारण हुआ।
मैंने पड़ोसी देश बर्मा (म्यंमा) में देखा कि आम जनता अपनी भाषा में बुद्ध के धर्म को 'टया' कहती है, जिसका अर्थ ही 'धर्म' है। "टया ना थौं मै''- माने धर्म का प्रवचन सुनेंगे। "टया ठाई मै'' - माने धर्म की साधना में बैठेंगे। परंतु साथ-साथ 'बुद्धिज्म' और 'बुद्धिष्ट' शब्द भी बहु-प्रचलित हो गये, क्योंकि - "जैसा राजा वैसी प्रजा।" जैसे ही बुद्ध की शिक्षा सार्वजनीन न रह कर सांप्रदायिक हो गयी वैसे ही स्वभावतः लोग इससे दूर भागने लगे।
इसी प्रकार "सर्व धर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज'' - यहां भी सर्व धर्मों का मतलब सभी सांप्रदायिक धर्मों से है, जिनमें बुद्ध की शिक्षा भी सम्मिलित कर ली गयी। यह भी चालबाजी का प्रयोग था, जो कि बुद्ध के दुश्मनों ने फैलाना शुरू किया और बुद्ध की शिक्षा का ह्रास होता चला गया।
कल्याणमित्र
सत्यनारायण गोयन्का
April 2013 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित