सत्य नारायण गोयन्का - दुर्लभ सत्पुरुष !


आज 30 जनवरी को पूज्य गुरुजी की जन्मतिथि है।  कल्याणमित्र सत्यनारायणजी सचमुच दुर्लभ गुणसंपन्न सत्पुरुष हैं। भगवान बुद्ध ने कहा है कि संसार में यह दो गुणसंपन्न व्यक्ति अत्यंत दुर्लभ हैं - 


एक तो वह जो पुब्बकारी हो यानी जो औरों का उपकार करने में पहल करता हो। किसी का उपकार करने के पहले यदि मन में यह भाव जागे कि इस उपकार करने से मुझे धनसंपदा, मान-सम्मान अथवा यशकीर्ति उपलब्ध होगी तो वह पुब्बकारी नहीं हुआ। 


उपकार केवल उपकार के लिए करे, बदले में कुछ पाने के लिए न करे तो ही सही माने में पुब्बकारी है। तभी दुर्लभ गुणसंपन्न व्यक्ति कहलाने का वास्तविक अधिकारी है। सत्यनारायणजी की वर्षों की नि:स्वार्थ धर्मसेवा इसी दुर्लभ सद्गुण का उज्ज्वल उदाहरण है। 


दूसरा दुर्लभ गुणसंपन्न व्यक्ति वह है जो "कतञ्ञू कतवेदी" यानी कृतज्ञ हो। जो व्यक्ति स्वयं किसी का उपकार करके बदले में साधुवाद तक की अपेक्षा न करे, परंतु किसी अन्य द्वारा उपकृत हो तो उस उपकारी के प्रति सतत कृतज्ञता के भावों से भरा रहे, वही सही माने में कृतज्ञ है। 


सत्यनारायणजी के हृदय की तलस्पर्शी गहराइयों तक अपने धर्मपिता सयाजी ऊ बा खिन के प्रति असीम कृतज्ञता समायी हुई है। प्रत्येक शिविर में अपने धर्मपिता को संबोधित करती हुई उनकी यह भावविभोर वाणी सारे वातावरण में गूंज उठती है, जब वे कहते हैं - 


“रोम-रोम किरतग हुवा, ऋण न चुकाया जाय।" 


शिविरों में साधकों को धर्मदान देते हुए पुनः अपने धर्मपिता का ही स्मरण करते हैं और नितांत अनात्म भाव से, अहंशून्य भाव से उस महर्घ दान को उनका ही दान मानते हैं और साधकों को आनापान देते हुए गद्गद कंठ से कहते हैं - 


“गुरुवर! तेरी ओर से, देऊं धरम का दान।" 


इसी प्रकार विपश्यना देते हुए पुनः उनके ऐसे ही हृदयोद्गार सारे वायुमंडल में तरंगित हो उठते हैं, जब वे कहते हैं - 


“गुरुवर! तेरा प्रतिनिधि, देऊं धरम का दान।" 


सचमुच यह चरम अभिव्यक्ति है कृतज्ञता की। 


स्पष्ट है कि "पुब्बकारी" (निःस्वार्थ सेवाभावी) और "कतञ्ञू कतवेदी" (कृतज्ञ) होने के दोनों दुर्लभ गुण सत्यनारायणजी के रोम-रोम में समाए हुए हैं। इसी माने में भगवान के कथनानुसार वे दुर्लभ सत्पुरुष ही हैं।

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पुस्तक: कल्याणमित्र सत्य नारायण गोयन्का (व्यक्तित्व और कृतित्व), लेखक - बालकृष्ण गोयन्का।

विपश्यना विशोधन विन्यास ॥

Premsagar Gavali

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