धर्म क्यों धारण करें?



(पूज्य गुरुदेव श्री सत्यनारायण गोयन्काजी द्वारा पश्चिमी महाराष्ट्र के विख्यात शहर नासिक के 'रमाबाई आंबेडकर गर्ल्स हाई स्कूल के प्रांगण में सन 1998 में दिये गये तीन दिवसीय प्रवचन-शृंखला के दूसरे प्रवचन का पहला भाग)

नासिक तीर्थ भूमि के प्रबुद्ध नागरिको, धर्म प्रेमी सज्जनो, सन्नारियो!
कल की धर्म सभा में हमने यह समझने की कोशिश की कि सचमुच धर्म क्या होता है। धर्म के नाम पर किसी उलझन में न उलझ जायें। धर्म के शुद्ध स्वरूप को, सार को समझें और धर्म के नाम पर जो छिलके चल पड़े, उनको भी समझें; ताकि सार-सार को ग्रहण करें, छिलकों से छुटकारा पायें। धर्म का सार बड़ा सरल है, बड़ा स्वच्छ है। हम अपनी नासमझी में इसे उलझा देते हैं। निर्मल चित्त की तरंग ही धर्म है । मैले चित्त की तरंग ही अधर्म है। चित्त निर्मल होगा तो हमारी वाणी और शरीर के सारे कर्म अपने आप निर्मल होंगे। चित्त मैला होगा, उसमें राग, द्वेष, ईर्ष्या, अहंकार, ममंकार जागा हुआ होगा; वासना, भय मात्सर्य आदि कोई भी विकार जागा होगा तो मन मैला हो गया। तब अपनी वाणी या । शरीर से जो काम करेंगे, वह अशुद्ध ही होगा, हानिकारक ही होगा। अपनी भी हानि करेगा, औरों की भी हानि करेगा।
चित्त को शुद्ध रखने वाला व्यक्ति अपने सहज भाव से सदाचरण का जीवन जीने लगता है। उसे कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता। निर्मल चित्त का अपना एक स्वभाव है- वह अनंत मैत्री से भर जाता है, अनंत करुणा, मुदिता और उपेक्षा, यानी, समता भाव से भर जाता है। यह उसका सहज स्वभाव है। और जब मन मैत्री, करुणा, सद्भावना से भरा हो, तब कोई आदमी अपनी वाणी से ऐसे शब्द कैसे निकाल सकता है, जिससे अन्य प्राणियों की सुख-शांति भंग हो, अन्य प्राणियों का अमंगल हो, उनको पीड़ा पहुँचे। ऐसे शब्द उसके मुँह से निकल ही नहीं सकते। मन मैत्री, करुणा, सद्भावना से भरा हो तो उसकी वाणी के हर बोल प्यार से भरे होंगे, सद्भावना से भरे होंगे, मिठास से भरे होंगे। किसी को चोट पहुंचे, ऐसी वाणी वह बोल ही नहीं पायगा।
शरीर से भी ऐसा कर्म नहीं कर पायगा, जिससे औरों की सुख-शांति भंग हो, औरों का अमंगल हो, औरों की हानि हो। ऐसा व्यक्ति कैसे हत्या करेगा, कैसे पराई वस्तु को चुरायेगा, छीनेगा, झपटेगा या कैसे व्यभिचार करेगा; कर ही नहीं सकता। जीवन में धर्म आ गया तो जीना आ गया। आदमी जब चित्त को निर्मल करता है, अपना आचरण सुधार लेता है तब अन्य लोगों का बुरा नहीं होने देता और न ही अपना। जैसे ही वाणी या शरीर से कोई दुष्कर्म करता है तो औरों का बुरा, औरों की हानि या अमंगल तो पीछे होता है, पहले अपना अमंगल होने लगता है, होने ही लगता है। जब कभी अंतर्मुखी हो करके अपने भीतर की सच्चाई जानने की विद्या सीखोगे तब बहुत साफ-साफ मालूम होगा कि में दूसरे का हानि तब-तक नहीं कर सकता, जब तक कि अपने मन में पहले कोई विकार न जगा लूं। जैसे वाणी से कटु शब्द, क्रोध के शब्द, झूठ आदि बोल ही नहीं सकता। शरीर से किसी की हानि तब तक नहीं कर सकता, जब तक कि अपने मन में पहले कोई विकार न जगा ले। और मन में विकार जागा तो व्याकुल होने लगा, यह प्रकृति का नियम है। भारत की पुरानी भाषा में इसी को धर्म कहते थे।
जब आदमी अंदर देखने लगता है, तब कुदरत या निसर्ग का यह नियम या धर्म जो कि सार्वजनीन, सार्वदेशिक, सार्वकालिक है, अनुभूति पर उतरने लगता है। अरे भाई, यह ऐसा कानून है जो सब पर लागू होता है। किसी का पक्षपात नहीं करता। किसी का लिहाज नहीं करता । कानून तोड़ा कि तुरंत दंड मिला । कानून के अनुसार अपना जीवन ढालने लगा तो तुरंत सुख मिला, शांति मिली । मरने के बाद जो होगा अपने आप ठीक ही होगा। परंतु यहां क्या हो रहा है?
शुद्ध धर्म के रास्ते पर चला हुआ हर कदम हमें सुख-शांति देने वाला होगा। भीतर हमें कोई सुख-शांति नहीं मिली, फिर भी हम अपने आपको धार्मिक माने जा रहे हैं, तो भाई बहुत बड़े धोखे में हैं न! यह कर्म-कांड पूरा कर लिया कि वह, यह दार्शनिक मान्यता मान ली कि वह, ये पर्व-त्योहार मना लिये कि वे पर्व-उत्सव मना लिये, और समझने लगे कि हम बड़े धार्मिक हैं। अरे, मेरे जैसा धार्मिक कौन होगा! जब कि हो सकता है बेचारे में धर्म का नामो-निशान नहीं हो। क्योंकि मन को निर्मल करने का कोई काम किया ही नहीं। मन का ऊपर-ऊपर से विकारों से मुक्त कर लेना थोड़े समय के लिए आसान होता है। लेकिन अंतर्मन की गहराइयों में विकारों का जो संग्रह लिये चल रहे हैं, और जिसकी वजह से हमारा मन एक स्वभाव शिकंजे में गिरफ्त हो गया है, बंदी हो गया है, जब देखो तब अंतर्मन की गहराइयों में विकार ही जगाता है। जरा-सी सुखद अनुभूति हुई कि राग जागा, आसक्ति जागी; जरा-सी दुःखद अनुभूति हुई कि द्वेष जागा, दुर्भावना जागी, ऐसा स्वभाव हो गया।
उस स्वभाव को कैसे पलटें? यह मन के ऊपरी-ऊपरी हिस्से को पलट लेना बहुत आसान है। इसके बहुत से तरीके होते हैं। अच्छा है कम से कम ऊपर का मन तो जरा सुधरता है, बुद्धि तो जरा सुधरती है। यही ठीक, पर जड़ों से सुधार नहीं हुआ। यदि सचमुच धर्म का जीवन जीना है तो जड़ों से सुधार करना होगा। बाहर-बाहर से तो अपने को सुधारो, अच्छी बात है, पर भीतर से सुधारे बिना तुम्हारा सही कल्याण नहीं होगा। उसके लिए भारत की यह अत्यंत पुरानी सम्पदा सामने है। अब भीतर तक जा करके अपने चित्त को निर्मल करो।
अंदर की सच्चाई देखने की भारत की यह बहुत पुरानी विद्या है। जैसे-जैसे आदमी अंदर की सच्चाई को देखने लगता है, वैसे-वैसे कुदरत का सारा कानून स्पष्ट होता जाता है। भारत के महान संतों ने यही किया, अंतर्मुखी हुए, अपने भीतर गये और ऋत को समझने लगे तो ऋषि कहलाये । मौन रह करके भीतर अनुसंधान किया, वास्तविक सच्चाई की खोज की तो मुनि कहलाये। उन्होंने शोध किया, ऋत क्या होती है? कुदरत का कानून, विश्व का विधान, निसर्ग के नियम क्या होते हैं ? इनका अनुसंधान किया। इसी को धर्म कहते थे।
धीरे-धीरे भूलते चले गये और ऊपर-ऊपर की बातों को धर्म मान लिया, भीतर से जड़ों तक मन को शुद्ध करने की बात भूल गये। परंतु जो सही माने में संत हुए, वे नहीं भूले । अंतर्मुखी होकर भीतर तक देखना शुरू किया तो प्रकृति का सारा रहस्य खुल गया। भारत का एक महान संत कहता है
'हुकमि रजाई चलणा, नानक लिखिआ नालि ॥'
'हुकमि रजाई चलणा'- क्या हुकमि, क्या रजाई इस कुदरत की, निसर्ग की, प्रकृति की, या परमात्मा की, अल्लाह मिया की, रजाई क्या है, वह चाहता क्या है? उस हुकमि को समझें और उसके अनुसार चलें। जब अंदर देखता है तब समझ में आता है कि क्या हुकमि है, क्या रजाई है। हुकमि या रजाई यही है कि अपने मन को मैला मत करो। मैला करते ही दंड मिलेगा। कोई नहीं बच सकता इस दंड से । जरा क्रोध या द्वेष जगा कर देखे, कितना व्याकुल हो जायगा। आसक्ति जगा कर दखे, कितना व्याकुल हो जायगा। भय या अहंकार जगा कर देखे, कितना व्याकुल हो जायगा। निसर्ग यही चाहता है कि अपने मन को मैला मत करो, अन्यथा तत्काल दंड मिलता है।
कहां लिखी है यह हुकमि रजाई? किताबों में नहीं। इस तरह के प्रवचन सुन कर कुदरत के कानून को नहीं जान पाओगे । वह तो सचमुच संत है। अंतर्मुखी हो करके उसने देखा है कि सच्चाई क्या है ? वह कहता है- 'नानक लिखिआ नालि'- हमारे भीतर, हमारे साथ लिखा हुआ है, बाहर क्या देखते हो। बाहर क्या सीखोगे? बाहर देख करके ऊपर की बुद्धि को भले निर्मल कर लो, अंतर्मन की गहराइयों में निर्मलता नहीं आ सकती। उसके लिए अंतर्मुखी होना होता है।
यही विद्या थी भारत की । इसे विपश्यना कहते थे। विदर्शना कहते थे। इसी को सत्य-दर्शन, ऋत-दर्शन कहते थे। अपने भीतर कुदरत के कानून को अनुभूतियों से समझना और उसके अनुसार अपना जीवन ढालने लगना । बस धार्मिक हो गया। अब वह अपने आप को किसी नाम से पुकारे, कुछ फर्क नहीं पड़ता। किसी मत-मतांतर, वेश-भूषा या किसी नाम वाला हो, कुछ फर्क नहीं पड़ता। हमने अपने मन को सुधारना शुरू कर लिया, तो बस कल्याण हो गया। धर्म सचमुच धर्म है तो वह किसी सम्प्रदाय में नहीं बांधेगा। वह तो सार्वजनीन होगा, सार्वदेशिक होगा, सार्वकालिक होगा। सभी लोगों के लिए होगा। जो धर्म धारण करने लगा, उसका तत्काल कल्याण होने लगा। धर्म आज धारण करे और उसका फल मिले मरने के बाद । अरे कौन देखने गया? कौन बताने आया कि मरने के बाद क्या हुआ? अच्छा ही होगा भाई! हम नहीं कहते कि मरने के बाद बुरा होगा, पर धारण करें तब अच्छा होगा। पहले इस जीवन में तो अच्छाई आये। पर कैसे आयेगी? अंतर्मुखी हो करके चित्त को निर्मल करने का काम नहीं किया तो यह लोक ही कैसे सुधरा? यह जीवन, यह लोक नहीं सुधरा तो परलोक कैसे सुधरेगा? आगे का जीवन कैसे सुधरेगा? वर्तमान नहीं सुधरा तो भविष्य कैसे सुधरेगा?
इस देश ने 2600 वर्ष पहले, विपश्यना स्वीकार की, अब इसके इतिहास की पुनरावृत्ति हो रही है। इसे फिर स्वीकार कर रहा है यह देश । बड़ी रोचक कथा है, रोचक पर ऐतिहासिक घटना है। इस प्रदेश में पहले पहल विपश्यना कैसे आयी। वैसे तो विपश्यना हजारों वर्ष पुरानी है, परंतु लुप्त हो गयी थी। 2600 वर्ष पहले एक महापुरुष ने इसे खोज निकाला। उससे अपना कल्याण किया और बड़े करुण चित्त से बांटने लगा लोगों को, ताकि लोक कल्याण हो! अरे, जहां देखो, वहीं लोग दु:खी हैं, किसी को इस बात का दु:ख तो किसी को उस बात का। आज इस बात का दु:ख तो कल किसी और बात का। सभी दुखियारे ही दुखियारे। यह कल्याणकारी विद्या लोगों को मिल जाय तो अपने दुःखों के बाहर आ जायेंगे। क्योंकि मन के मैल के बाहर आ जायेंगे तो चित्त निर्मल हो जायगा।
पहली घटना- पूर्ण
इसी प्रदेश का एक व्यक्ति, यहां का एक बड़ा व्यापारी, जिसका नाम पूर्ण था। यह व्यापारी 2600 वर्ष पहले, यहां से व्यापार करता हुआ कोसल प्रदेश में गया। उन दिनों के व्यापारी लोग एक स्थान से दूसरे स्थान तक; एक जगह का सामान खरीद करके दूसरी जगह बेचते थे। यही काम-धंधा करते थे। उन दिनों कोसल प्रदेश की राजधानी श्रावस्ती, उस समय भारत की सबसे घनी आबादी वाली बहुत धनी नगरी थी। यह उसका सौभाग्य था कि वह वहां भगवान बुद्ध के सम्पर्क में आ गया। इस विद्या के बारे में सुना तो बहुत मुदित हुआ। अरे, चित्त को जड़ों से निर्मल करने वाली कोई विद्या है तो और क्या चाहिए! तो उनसे यह विद्या सीखी और अभ्यास करके खूब पक गया।
जब पक गया तब रहा नहीं जाता । जो आदमी अमृत चख लेता है, जिसको सही माने में भीतर सुख-शांति मिलती है उससे रहा नहीं जाता । चाहता है कि ऐसा अमृत और लोग भी चखें, ऐसी सुख-शांति औरों को भी मिले। अतः हाथ जोड़कर भगवान बुद्ध से कहता है कि महाराज मुझे आज्ञा दीजिये । यह कल्याणी विद्या मैं अपने देश में जा करके अपने देश-वासियों को सिखाऊं। भगवान मुस्कुराये, उसकी परीक्षा लेना चाहते थे। अरे, तू अपने देश के लोगों का स्वभाव जानता है न! हां महाराज, वहीं जन्मा हूं, रहा हूं, खूब जानता हूं।
तुम्हारे देश के लोग बड़े उग्र स्वभाव वाले हैं। तुम कोई नयी बात कहोगे, और उनको नहीं अच्छी लगेगी, तो तुम्हारा बुरा हाल कर देंगे। महाराज, खूब जानता हूं। पर मुझे आज्ञा दीजिये मेरे देश के लोग सचमुच उग्र स्वभाव के हैं लेकिन बड़े समझदार भी हैं। जहां सच्चाई समझ में आयी कि एकदम ग्रहण करने लगेंगे। महाराज मुझे आज्ञा दीजिये । परंतु वे उसकी परीक्षा करना चाहते थे। कहा, अच्छा वहां जाओगे और जब अपनी बात कहोगे कि सारे कर्म-कांड एक ओर रखो भाई, अपने भीतर देखना सीखो, अपने मन के विकार निकालना सीखो। तो लोगों को नई-सी बात लगेगी, वे गुस्से के मारे तुम्हें गालियां देंगे तब क्या करोगे?
महाराज! हाथ जोड़ कर कहूंगा, अरे तुम कितने भले लोग हो, गालियां ही देते रह गये, और कोई होता तो मुझे पत्थरों से मारता, तुम तो पत्थरों से नहीं मारते। और यदि लोग सचमुच तुम्हें पत्थरों से मारने लगेंगे तब क्या कहोगे? तब हाथ जोड़ कर कहूंगा, तुम कितने भले लोग हो पत्थरों से ही मारते हो, और कोई तो डंडे से पीटता मुझे। तुम तो डंडे से नहीं पीटते। बहुत भले लोग हो। और डंडे से पीटने लगे तब? तब महाराज! यही कहूंगा कि कितने भले हो, और कोई तो तलवार से मेरा अंग काट देता । तुम तो मेरा अंग नहीं काट रहे । बहुत भले हो। और यदि तुम्हारे अंग काटने के लिए आयें तब? तो कहूंगा भाई, कितने भले हो, अंग ही काटते हो; और कोई तो जान से मार देता। तुम तो मुझे जान से नहीं मारते, बहुत भले हो। और वे जान से मारने के लिए तैयार हो जायँ तब? तब भी यही कहूंगा, भाई, कितने भले हो, दुनिया में लोग इतने दु:खी हैं, आत्महत्या करते हैं और पाप के भागी होते हैं। मुझको आत्महत्या से बचा रहे हो । मुझे मार रहे हो।
हां पूर्ण! पक गया तू, सिखाने लायक हो गया, जा सिखा!
इतनी बात तो इतिहास की हमारे पास है और इसके प्रमाण हैं। पर वह व्यक्ति यहां आकर किन कठिनाइयों में से गुजरा हमें नहीं मालूम, परंतु लोग कैसे उसके साथ हो लिए, यह तो प्रमाणित है। यह सारा का सारा क्षेत्र, इसमें यहां विपश्यना की तपोभूमियां बन गयीं। यहां की जो कठोर चट्टाने हैं, उनको मूंगे की तरह काट कर तपस्या के स्थान बना दिये गये-- ये प्रमाण तो आज तक कायम हैं। वह बहुत सफल हुआ। सचमुच लोग समझदार हैं, समझदारी की बात कही जाय तो स्वीकार करते हैं । झगड़े की बात कही जाय तो नहीं मानेंगे।
1000 वर्ष के बाद चीन देश का एक यात्री इस देश में से गुजरता है, वह भी यही कहता है कि इस देश के लोग बड़े वीर है, बड़े योद्धा हैं और बड़े गुस्सैल (short tempered) भी । बड़ी जल्दी गुस्सा आ जाता है इनको। लेकिन इतने समझदार हैं कि अगर इनको बात समझ में आ जाय तो एकदम अच्छी बात के साथ हो जाते हैं। यह इस देश का गुण है। इसी गुण के कारण उस पूर्ण' की बात उन लोगों ने समझी और इस देश में, इस स्थान में विपश्यना का आरंभ हुआ। इस सारे क्षेत्र में विपश्यना की गूंज गूंजने लगी। पैठन से लेकर नासिक और नासिक से आगे आज के नालासोपारा तक तपस्या की भूमि हुआ करती थी। उन दिनों नालासोपारा 'सुप्पारक पत्तन' नामक बहुत बड़ा बंदरगाह था, जैसे आज मुंबई है। उन दिनों वह अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का बहुत बड़ा केन्द्र था।
दूसरी घटना- दारुचीरिय
इसी सुप्पारक पत्तन में तपस्या करने वाले एक तपस्वी ने बहुत तपस्या की, बहुत गहरा ध्यान किया लेकिन उस अवस्था तक नहीं पहुँचा, जहां विकारों की जड़ें निकाल ले। उसने सुना कि उत्तर भारत में कोई एक ऐसा महापुरुष हुआ है, जिसने ऐसी विद्या खोज निकाली है जो हमें अंतर्मुखी बना करके हमारे सारे विकारों को निकाल देती है। वह खुद विकारों से मुक्त हो करके, जीवन-मुक्त हो गया है। बुद्ध बन कर जन्म-मरण के चक्कर से मुक्त हो गया है, भव-मुक्त हो गया है। अरे, इसी के लिए तो मैंने भी घर-बार छोड़ा, संन्यासी हुआ। वह संन्यासी दारुचीरिय उनसे जा कर मिलता है।
बूढ़ा आदमी, यहां से श्रावस्ती तक जाता है, भगवान से यह विद्या सीखता है और थोड़ी देर में ऊंची से ऊंची अवस्था प्राप्त कर लेता है, अरहंत हो जाता है, जीवन-मुक्त हो जाता है, जन्म-मरण के चक्कर से छूट जाता है। लेकिन वह फिर वापस महाराष्ट्र में आ करके लोगों को कुछ नहीं सिखा सका, क्योकि वहीं उसकी मृत्यु हो गयी।
तीसरी घटना- बावरी
कोसल देश के महाराजा महाकोसल का महामंत्री और प्रमुख राजपुरोहित ब्राह्मण 'बावरी' की उम्र बढ़ी तो वह पैठन आ करके धर्म के काम में लग गया। क्योंकि हजारों वर्षों से गोदावरी नदी के इस पवित्र तट पर दूर-दूर से लोग आकर तपस्या करते थे, तपने के लिए आया करते थे। इसीलिए उन दिनों यहां से लेकर पैठन तक को प्रतिष्ठापन कहते थे। क्योंकि यहां यज्ञ करने वाले यज्ञ करने, तपने वाले तपने, साधना करने वाले साधना करने आते थे। यह बावरी ब्राह्मण भी बढ़ी उम्र में यहां आकर अग्निहोत्र, यज्ञ-याग करने लगा, थोड़ा बहुत ध्यान भी किया। उसने भी सुना कि उत्तर भारत में कोई ऐसा व्यक्ति हुआ है जिसने विपश्यना खोज निकाली है। अरे, वेदों में भी विपश्यना की इतनी प्रशंसा है, लेकिन विद्या तो नष्ट हो गयी। इस व्यक्ति (बुद्ध) ने यह पुरानी विद्या खोज निकाली और मुक्त हो गया है। अरे, यह विद्या मुझे भी प्राप्त हो जाय । लेकिन 100 बरस का बूढ़ा, कैसे यात्रा करे? उसके बहुत शिष्य हो गये थे अत: अपने 16 प्रमुख शिष्यों को भेजता है कि श्रावस्ती जाओ। पहले तो जांच करो कि कहीं ढोंग तो नहीं है। अरे, धर्म के नाम पर कितना ढोंग चलता है। धर्म के नाम पर कितना दिखावा चलता है, कितनी प्रवंचना चलती है। कहीं कोई धोखा तो नहीं है। खूब जांचो और जब जांच लो कि सचमुच ठीक है तब उसके बताये रास्ते पर चलो और मुझे आ कर बताओ कि कैसा रास्ता है।
ये सोलह लोग उत्तर भारत जाते हैं, यही विद्या सीखते हैं। खूब जांच करके देखा, बिल्कुल सही पाया, तब विद्या सीखे और लौट कर बावरी व अन्य को सिखाये । इतिहास की ये तीन घटनाएं हमारे सामने हैं। लोगों ने कितनी जल्दी स्वीकार कर लिया। अरे, मन को कौन नहीं निर्मल करना चाहता। सब चाहते हैं। अच्छा जीवन सब जीना चाहते हैं। पर कैसे जीएं! कोई नहीं चाहता कि मैं दुराचार का जीवन जीऊं। सब समझते हैं कि मुझे सदाचार का जीवन जीना चाहिए। एक शराबी खूब समझता है कि मुझे शराब नहीं पीनी चाहिए। अरे, बड़ी खतरनाक है, मेरी भी हानि करती है, मेरे परिवार की भी। जो कमाता हूं उसमें से इतना हिस्सा इसमें चला जाता है। मुझे शराब नहीं पीनी चाहिए, नही पीनी चाहिए। अपने बच्चे को दूर रखता है, कहा उसका लत न लग जाय । अरे, कहीं वह इस रास्ते न आ जाय।
चाहता तो है कि शराब न पीऊं, पर क्या करे । जब समय आता है तब पी ही लेता है। नहीं रहा जाता। एक जुआरी खूब समझता है कि जुआ नहीं खेलना चाहिए, मुझे जुआ नहीं खेलना चाहिए, पर समय आता है तो जुआ खेल ही लेता है। इसी तरह से हर दुष्कर्म करने वाला व्यक्ति जानता है कि यह दुष्कर्म है, अच्छा नहीं है, मुझे नहीं करना चाहिए, लेकिन क्या करे बेचारा, जो नहीं करना चाहिए, वही कर लेता है। ऐसा क्यों होता है?
महाभारत का एक प्रसंग दुर्योधन का है। पता नहीं मां-बाप ने यह नाम रखा या उस महाभारतकार ने। कोई मां-बाप अपने बेटे का नाम दुर्योधन क्यों रखेंगे, सुयोधन रखेंगे। पर खैर, दुर्योधन तो दुर्योधन, वह कहता है कि -
जानामि धर्मम्, न च मे प्रवृत्तिः।
जानामि अधर्मम्, न च मे निवृत्तिः॥
खूब समझता हूं कि यह धर्म है, पर क्या करूं उस ओर मेरी प्रवृत्ति नहीं होती। खूब समझता हूं कि यह अधर्म है, पर उससे निवृत्ति नहीं होती। अरे, वह दुर्योधन ही नहीं बोल रहा, हर साधारण व्यक्ति बोल रहा है। सब की यही दशा है । खूब समझते हैं कि मुझे वाणी से या शरीर से दुष्कर्म नहीं करना चाहिए, फिर भी करते हैं। खूब समझता है कि मुझे सत्कर्म करना चाहिए पर नहीं कर पाता। क्यों? बड़ी सीधी-सी बात है-- मन वश में नहीं है। बुद्धि से खूब समझता है, पर मन वश में नहीं है। तो मन को वश में कैसे करें?..
क्रमशः .....
May 2016 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित

Premsagar Gavali

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