“अरे बेटी, तूने खाना खाया क्या ?"
“मुझे पता था तूने नहीं खाया होगा या ठीक से नहीं खाया होगा। इसीलिए तू इतनी पतली है। ठहर, मैं खिलाती हूं तुझे, देखती हूं कैसे नहीं खाती।"
“खाना ठीक से खाना चाहिए, सेहत अच्छी होगी।"
वह मीठी डांट, जिससे मुझे डर लगता था कि अब मुझे खाना ही पड़ेगा - अब कभी नहीं सुनाई देगी। वह हल्की-सी मुस्कुराहट वाला सौम्य चेहरा, अब कभी नहीं दिखेगा। पर उसकी गूंज मेरे कानों में जीवनभर रहेगी।
28 सालों पहले उन्हें पहली बार देखा था तब बड़ी साधारण-सी गृहिणी लगीं थीं माताजी मुझे! पर जीवन जैसे गुरुजी और परिवार के प्रति संपूर्णतः समर्पित हो गया था। वैसे कार्य-संबंधी बातचीत तो हमेशा पू. गुरुजी के साथ ही होती रहती। अब जब सोचती हूं, उन प्रसंगों को याद करती हूं तो लगता है कि कई बार ऐसी मुलाकातों में शायद मैंने उन्हें अनदेखा ही किया, क्योंकि उनकी आवाज़ नहीं सुनाई देती थी बल्किbप्रणाम करते ही वह हल्की-सी मुस्कुराहट अवश्य याद आ जाती है।
उनका अस्तित्त्व, उनकी उपस्थिति इतनी शांत रहती कि वे हाज़िर भी हैं या नहीं, यह भी कभी-कभार पता नहीं चलता था। पर जब कभी कहीं बाहर उनके साथ जाना होता- जैसे कहीं केंद्र या पगोडा के लिए ज़मीन देखने इत्यादि प्रसंगों पर और मिटींग के पहले या बाद, कभी कुछ काम से ज्यादा रुकती तो उनसे वार्तालाप का अवसर मिलता। वह भी अपने बारे में, गुरुजी के साथ किए प्रवासों के बारे में, सयाजी आदि के बारे में बातें बतातीं थीं।
मैं मानती हूं व्यक्ति की सही पहचान उसकी सामान्य जिंदगी से, उसके दिन-प्रतिदिन के प्रसंगों से ही झलकती है। माताजी हमेशा भारतीय नारी के परिधान में सुसज्जित रहते हुए बड़ी सजग रहतीं ताकि उनका परिधान ठीक से बना रहे। पल्लु को बहुत अच्छे से संभाले रहतीं। चलते-फिरते समय भी बड़ी सजग, बड़ी सावधान रहतीं।
एक बार पगोडा के लिए ज़मीन देखने गए थे। कीर्तिभाई और अन्य लोग गुरुजी के साथ थोड़ा दूर चल रहे थे। मैं माताजी के साथ थी। कुछbवीराना, कुछ पेड़, कुछ घास-फूस ; इतने में कोई जीव, कोई जंतु अचानक से माताजी से टकराया । वह डरी नहीं बल्कि देखने लगीं कि साड़ी पर कहां बैठा है। वह पल्लु पर ही था । माताजी ने हल्के से उसे पल्लु से झटका औरbकहा- “शायद हम उसके क्षेत्र में आ गए तो उसे डर लगा होगा।” फिर आसपास देखने लगी और कहा- “मेरे पल्लु से हटाने से मर तो नहीं गया, ज़रा देख तो!” उसे नीचे ज़मीन पर सलामत देख अत्यंत प्रसन्न हुईं।
अचानक से घटी यह छोटी-सी घटना उनके व्यक्तित्व के बारे में बहुत कुछ कह जाती है। और परिचय बढ़ने पर मैंने देखा कि मीटिंग इत्यादि में सक्रिय हिस्सा नहीं लेने पर भी गुरुजी या तो बाद में या कभी पहले, उनसे करीब-करीब हर विषय पर बात करते थे। तब लगा कि केवल गृहिणी वाली सोच संपूर्ण सत्य नहीं है। बाद में तो अनेक अवसरों पर देखा कि पू. गुरुजी माताजी के मंतव्यों को कितना अधिक महत्त्व देते थे।
एक बड़ा ही दिलचस्प किस्सा माताजी ने सुनाया था!
गुरुजी और माताजी शुरुआत के वर्षों में धम्मथली गए थे। हर दिन उनके कमरे के दरवाज़े पर बार-बार मोर (पक्षी) दस्तक देते । गुरुजी और माताजी उनके लिए मैत्री भावना करते । एक बार गुरुजी ने कहा - मेरा मन करता है कि यहां से मोर के एक जोड़े को धम्मगिरि ले जायँ । वहां भी इनकी सुंदरता से माहौल और अधिक अच्छा हो जायगा। जैसे ही उन्होंने यह कहा, मोरों का दरवाज़े पर दस्तक देना बंद हो गया।
माताजी ने गुरुजी को कहा, आपने उन्हें यहां से ले जाने की बात कही, उन्हें नहीं जाना है। उन्हें आपकी यह बात पसंद नहीं आई। ऐसा नहीं कहना चाहिए था। गुरुजी ने कहा - तुम सही कहती हो । मुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए था। और उन्होंने तुरंत मैत्री देना शुरू किया और कहा कि मैं तुम्हें अपने स्थान से कहीं और नहीं ले जाना चाहता। आप सब निश्चित रहें... भय न रखें। और कुछ ही मिनटों में उनका दरवाज़े पर दस्तक देना शुरू हो गया!
पूज्य गुरुजी ने एक बार यह भी कहा था कि माताजी भी स्थानों और व्यक्तिओं के स्पंदनों से उतनी ही संवेदनशील हैं जितना कि मैं। इसी संदर्भ में एक किस्सा याद आता है - 1980 के दशक में जब एक-दिवसीय शिविर शुरू नहीं हुए थे, पुराने साधकों के लिए कुछ घंटों की सामूहिक साधना का आयोजन किया जाता था और पू. गुरुजी एवं माताजी कुछ समय उपस्थित रहते। वैसा ही एक आयोजन एक स्कूल में हुआ था।
गुरुजी एवं माताजी आए, कुछ देर सब के साथ ध्यान करने के बाद अचानक ही उठकर सीधे घर चले गए। किसी को कुछ समझ में नहीं आया। बाद में गुरुजी को फोन कर किसी ने पूछा तब उन्होंने कहा कि उस स्थान की तरंगें ऐसी थीं कि उनकी और माताजी की रीढ़ की हड्डी में जैसे पिघला हुआ सीसा डाल दिया गया हो। उन्होंने कहा कि जिस स्टेज पर हमारी सीट रखी थी उसके नीचे जांच करो। जरूर उस हॉल में कल कुछ अशुभ कार्यक्रम हुआ होगा, जांच करो। जांच करने पर पता लगा कि सचमुच पिछली रात वहां शराबयुक्त पार्टी हुई थी और स्टेज के नीचे कुछ बोतलें भी मिलीं। ऐसे संवेदनशील थे हमारे गुरुजी और माताजी!
पूज्य गुरुजी ने कई बार यह कहा कि अगर माताजी साथ न होतीं तो धर्मप्रसार में बड़ी बाधा होती। मेरी बेटिओं के लिए शिविरों में सम्मिलित होना इतना आसान न होता। माताजी की मैत्री के बिना मेरे लिए विपरीत स्थितिओं का सामना करना मुश्किल होता।
शायद सयाजी ऊ बा खिन इस जरूरत को जानते थे। माताजी ने स्वयं बताया था कि सयाजी अक्सर उन्हें कहते कि तुम्हें अभी बहुत काम करना है। बहुत ज्यादा । कुछेक बार ऐसा दोहराने पर माताजी ने एक दिन परेशान होकर गुरुजी से इस बारे में पूछा - इतना बड़ा परिवार है। मैं इतना काम कर ही रही हूं। सयाजी कहते हैं और बहुत काम करना है। क्या काम? मैं तो इतने काम से ही थक जाती हूं। ये और काम करने की बात कर रहे हैं।
गुरुजी ने कहा मुझे क्या पता? बेहतर है तुम सयाजी से ही पूछो । संकोच के मारे माताजी कभी सयाजी से पूछ नहीं पायीं। कुछ वर्षों बाद ही वे दोनों सयाजी के कहने का मतलब समझ पाए!
माताजी के पहले शिविर का किस्सा भी गुरुजी के शिविर के जितना ही रोचक और प्रेरक है। उन दिनों माताजी का मन बड़ा अस्वस्थ रहता था। वे बेचैन रहती थीं। गुरुजी के पहले शिविर के कुछ वर्षों पश्चात पूरा परिवार एक साथ शिविर करने गया। माताजी भी उसी में गईं। पहले ही शिविर में इतना फायदा हुआ कि सारी बेचैनी मानो गायब हो गई।
परंतु घर वापस आते ही फिर से शुरू। उस अनुभव के कारण माताजी नियमित रूप से सयाजी के आश्रम जाती रहतीं और वहां जाते ही उनकी बेचैनी, उनकी अस्वस्थता मानो गायब हो जाती। माताजी ने इस किस्से को सुनाते समय हँसते हुए कहा कि मेरी सास को यह इतना अजीब लगता कि एक बार तो उन्होंने पूछ ही लिया, “बहू! तुम सचमुच अस्वस्थ हो कि दिखावा कर रही हो? आश्रम में तो ठीक हो जाती हो!” तब कौन जाने कि विधि का विधान किस ओर इशारा कर रहा था!
एक सीधी-सादी मारवाड़ी परिवार की गृहिणी जहां महिलाएं अकेले कहीं नहीं जाती थीं, पर माताजी ने परिवार की ख़ातिर ऐसे कुछ रीति-रिवाज़ों को तोड़ने की उस समय हिम्मत दिखाई, जब बर्मा में सत्ता पलट गई और गुरुजी के परिवार का सारा उद्योग जब्त हो गया, सारी संपत्ति चली गई। न घर में नौकर रहे, न ही गाड़ियां और ड्राइवर। अब जब कुछ सामान लाने बाज़ार जाना होता तब घर की महिलाएं कैसे जायँ?
माताजी ने कहा मैं मारवाडी समाज की प्रथम महिला थी जिसने अकेले वहां के रिक्शा में बैठकर सामान लेने जाना शुरू किया, जिसे पुरुष खींचते थे। उनके ऐसा करने की समाज में निंदा भी होती थी पर उन्होंने कहा कि परिवार की ज़रूरत देखू कि उनकी बातों पर ध्यान दूं!
ऐसे ही कुछ और प्रसंग भारत आने के बाद भी बने, जिसमें माताजी ने उस वक्त की, उस समाज की महिलाओं की अपेक्षा बहुत हिम्मत दिखाई। पर अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए नहीं, अपना कोई शौक पूरा करने के लिए नहीं, बल्कि हर बार गुरुजी के लिए या परिवार के किसी अन्य सदस्य के लिए। उन्होंने समाज के तथा-कथित नियमों को तोड़ने में कोई झिझक नहीं दिखाई और अनेक अत्यंत महत्त्वपूर्ण निर्णय लिए।
सहनशीलता भी उतनी ही थी उनमें। उनकी धर्मप्रसार-यात्राओं के शुरुआती दिनों के दौरान अनेक असुविधाओं का सामना करना पड़ा था। उनके जाने से कुछ समय पूर्व उनकी विडियो-मुलाकात लेते समय मैंने उनसे अनुरोध किया कि वे अपने उन दिनों की यादें जरूर बतायें जिससे आज के और भविष्य के विपश्यना आचार्यों को मार्गदर्शन मिले । शायद विडियो होने के कारण उन्होंने विस्तार से बताना उचित नहीं समझा ।
इसलिए मैं भी यहां नहीं लिख रही, पर उन्होंने मुस्कुराते हुए इतना ही कहा कि इसमें कहना क्या? धर्म की राह में अनेक मुश्किलें तो आयेंगी ही। हम उसे सहने के लिए तैयार थे, वरना इस क्षेत्र में आते ही क्यों? घर में ही नहीं बैठे रहते? धर्म के आचार्यों को इसके लिए तैयार रहना चाहिए। जो असुविधाओं और मुश्किलों का सामना नहीं कर सकता, सहन नहीं कर सकता उसे आचार्य बनना ही नहीं चाहिए।
आजकल आचार्यों को जो सुविधाएं मिल रही हैं उससे आधी सुविधाएं भी गुरुजी और माताजी को नहीं मिलती थीं। कुछ आचार्यों की मांगों की बातें सुनकर माताजी अत्यंत व्यथित होती थीं। उन्हें आश्चर्य भी होता कि कैसे कोई विपश्यना सिखाने वाला आचार्य इस तरह की मांगें कर सकता है!
पूज्य गुरुजी के अंतिम दो-ढाई वर्षों के दौरान हुईं कुछ घटनाओं और गुरुजी के जाने के बाद हुई कुछ अन्य घटनाओं से वे बहुत व्यथित होती थीं। पर जानती थीं कि धर्म सहायता करेगा ही। सदा धर्म की शुद्धता को बनाए रखने की बात पर जोर देतीं और कहतीं कि प्रयत्न करते रहना है। प्रयत्नो में कहीं कमी न आने पाये।
गुरुजी के जाने के बाद तो उनसे ही मार्गदशन मिलता । वे कहती - मैं बड़ी सजग रहती हूं और थोड़ी-सी डरी-डरी भी कि कहीं मुझसे ऐसा कुछ न हो जाय कि मैं धर्म के विपरीत कुछ कर दूं या कुछ ऐसा जिससे गुरुजी के किये कराये पर पानी फिर जाय।
गुरुजी को अंतिम खाना खिलाया, उनके साथ के अंतिम ध्यान के समय गुरुजी के कहने पर खुद चान्टिंग सुनायी, स्वयं-स्फुरणा से ही जान लिया कि गुरुजी की सेहत ठीक नहीं है तो रूम की ओर भागीं, अंतिम समय शांति से बिदाई दी और अचानक एक दिन छोटी-सी बीमारी में शांति से चली गईं। समर्पण किसे कहते हैं वह बोलकर नहीं, पर अपने व्यवहार से जताया।
विश्वास ही नहीं होता कि वह अब नहीं है। जब भी खाने से जी चुराती हूं - कानों में आवाज गूंजने लगती है- "ठहरो मैं खिलाती हूं, देखती हूं कैसे नहीं खाती...." यह गूंज अब मुझे खाना खाने के लिए प्रेरणा नहीं देती, बल्कि मेरा हाथ रुक जाता है।
गुरुजी अक्सर कहते कि मुझे लगता है भगवान बुद्ध ने मानो मेरे लिए ही मुक्ति को ठुकराकर असंख्य जन्मों तक तकलीफ उठाकर सम्यक संबुद्ध बने, वरना मुझे यह मुक्तिदायिनी धर्मगंगा कैसे मिलती? मुझे भी लगता है कि मेरे लिए ही गुरुजी और माताजी ने सब कुछ त्यागकर, अपनी प्रिय जन्मभूमि को त्यागकर, मेरे लिए ही भारत आए, अनेक कष्टों को सहा वरना मुझे यह मुक्तिदायी धरम कैसे मिलता?
खुशनसीब मानती हूं अपने-आप को कि गुरुजी और माताजी को इतने करीब से मिलने, जानने और सेवा का मौका मिला। संतोष है कि मैंने उन्हें शिकायत का कोई मौका नहीं दिया। उनकी अपेक्षाओं पर खरी उतरी। अब दोनों के नहीं रहने पर सोचती हूं क्या विपश्यना परिवार सचमुच उन दोनों को सही मायने में जान पाया? जो कृतज्ञता, विनय, विश्वास, आदर और समर्पण उनमें अपने गुरु के प्रति था क्या वही हमने भी उन्हें दिया? प्रश्न उठता है, पर उत्तर सोचने का मन नहीं होता।
ऐसे परम उपकारक गुरुजी और माताजी को शत-शत नमन !
सुश्री प्रीति डेढिया
पुस्तक: मेत्ताविहारिणी माताजी : श्रीमती इलायचीदेवी गोयन्का ।
विपश्यना विशोधन विन्यास ।।