दुःख किसी को पसंद नहीं है। दुःख उसी को भोगना पड़ता है जो विषयसुख
भोगी है। अतः दुःख से छूटने का एक ही उपाय है कि हम सुख-भोग का त्याग
करें। तब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि सुख का त्याग कर दें तो फिर
जीवित रहने का अर्थ ही क्या रह जाता है? क्योंकि सुख-रहित जीवन किसको
पसंद होगा? सुख के बिना जीवन व्यर्थ है। अतः हमें सुख चाहिए ही।
इस प्रकार दो स्थितियां हमारे सामने हैं। एक तो यह कि सुख के भोगी को
दुःख भोगना ही पड़ता है जो हमें पसंद नहीं । और दूसरी यह कि यदि सुख त्याग
दें तो सुख-रहित जीवन भी हमें पसंद नहीं। अतः समस्या पैदा होती है कि ऐसी
दुविधामय स्थिति से छुटकारा कैसे मिले? तो समाधान यही मिलता है कि हमें
ऐसा सुख मिले जो दुःख-रहित हो।
दुःख रहित सुख प्राप्ति के लिए सुख के रूपों पर विचार करना होगा। सुख के
दो रूप हैं - एक रूप है इंद्रिय भोग से प्राप्त विषय-सुख जैसे इष्ट पदार्थ खाना,
पहनना, सूंघना, देखना आदि।
दूसरा रूप है शांति, समता, मैत्री, उदारता, स्वाधीनता आदि से मिलने का
रस या सुख। जब हमारा चित्त शांत होता है तो उसका अपना एक रस है, सुख
है। जब हम सेवा द्वारा किसी का दुःख दूर करते हैं और परिणामतः उसे जो सुख
होता है, प्रसन्नता होती है, उससे हमें भी मोद होता है, प्रीति होती है। यह भी एक
सुख है। संसार और शरीर से असंग होने से स्वाधीनता, मुक्ति का जो अनुभव
होता है इसका भी अपना सुख है।
प्रथम प्रकार का सुख जो इंद्रिय-भोग से संबंधित है, इसकी प्रतीति कामना
पूर्तिसी होती है। इस सुख में प्रारंभ से अंत तक पराधीनता, परवशता, विवशता,
जड़ता, मूढ़ता, नीरसता, शक्ति-क्षीणता, अभाव आदि संसार की समस्त अनिष्ट
स्थितियों व दोषों की उत्पत्ति होती है तथा समस्त दुःख का मूल यही सुख है।
संसार मे कोई भी दुःख ऐसा नहीं है जिसका कारण विषय-सुख न हो। यह अटल
नियम है कि दुःख-रहित विषय-सुख नहीं मिल सकता। जहां विषय-सुख होगा,
वहां दुःख रहेगा ही। अतः दुःख-रहित सुख, विषय सुख के त्याग से ही संभव है।
जो विषय-सुख से कभी संभव नहीं।
*विषय-सुख के त्याग का अर्थ है विषय-भोग की कामनाओं का त्याग*
विषय-भोग की सामग्री की ममता व अपनेपन का त्याग; प्राप्त सामग्री व बल का
भोग केवल स्वयं न कर उसे परसेवा में लगा देना। कामना त्याग से शांति का
सुख, ममता-त्याग से मुक्ति (स्वाधीनता) का सुख तथा सेवाभाव से प्रीति का सुख
मिलता है। शांति, मुक्ति व प्रीति का सुख दुःख-रहित सुख है। शांति, मुक्ति और
प्रीति की अनुभूति आनापान व विपश्यना से होती है। यहां इसी पर विचार करना
है।
आनापान में साधक श्वास पर चित्त एकाग्र करता है जिससे चित्त की
अस्थिरता, चंचलता, अशांति मिट जाती है। शांति के साम्राज्य में प्रवेश हो जाता
है। चित्त की शांति का भी एक रस है, सुख है जो विषय-रस या सुख से भिन्न है।
इससे आगे बढ़कर साधक जब विपश्यना करता है तो वह शरीर, चित्त एवं चित्त
में उठने वाळे विकारों एवं संवेदनाओं का द्रष्टा बन जाता है, कर्ता-भोक्ता नहीं
रहता | द्रष्टा बनने से इनकी अनुकूलता-प्रतिकूल्ता का प्रभाव उस पर नहीं पड़ता।
फलतः वह अनुकूलता- प्रतिकूलता में सुखी-दुःखी नहीं होता। अर्थात सुख-दुःख से
मुक्त हो जाता है। इस मुक्ति का भी अपना रस है जो शांति के रस से विशेष
प्रकार का है। इस रहस्य से प्रीति की जागृति होती है। प्रीति के रस का सुख
निराला ही होता है।
शांति, मुक्ति और प्रीति का सुख विषय-सुख से सर्वथा भिन्न होता है। यह
सुख स्वाधीनता, चिन्मयता, निराकुल्ता व संतुष्टि-युक्त होता है। जबकि
विषय-सुख अभाव, पराधीनता जड़ता आदि दोषों से युक्त होता है। यह नियम है
कि ऐंद्रिय सुख प्रतिक्षण क्षीण होता है और अंत में इस सुख की परिणति नीरसता
में होती है। उदाहरणार्थ कैसा ही स्वादिष्ट भोजन हो, कैसा ही मधुर संगीत हो,
खाते-खाते व सुनते-सुनते ऊब जाते हैं। नीरसता या ऊब मिटाने के लिए
विषय-सुख का भोगी फिर नवीन विषय-सुख पाने की नई कामना करता है।
उसकी पूर्ति का सुख भोगता है। जिसका अंत पुनः नीरसता (boredum) में होता है।
इस प्रकार नीरसता (boredum) दूर करने के लिए निरंतर कामना की उत्पत्ति-पूर्ति का
चक्र चलता ही रहता है। इस नीरसता का निवारण करना, उसकी जड़ उखाड़ना
ही इस चक्र से छुटकारा पाना है।
नीरसता दूर करने का सच्चा उपाय है - ऐसे रस की उपलब्धि जो क्षणिक
न हो। क्षीण न हो, शांति, मुक्ति और प्रीति का रस ऐसा ही रस है। कारण कि यह
रस न तो किसी अनित्य व अनात्म पदार्थ से पैदा होता है और न किसी अनित्य व
अनात्म पदार्थ पर निर्भर करता है। यह रस स्वरस है अतः स्वाधीन है। किसी देश,
काल, व पदार्थ पुहूल के अधीन नहीं है। अत: यह रस अक्षुण्ण रहने वाला है।
इसका अंत कभी नीरसता में नहीं होता । प्राणी केवल इससे विमुक्त होता है, वह
भी अपनी स्वयं की भूल से| प्राणी अपनी ही भूल से भ्रांतिवश विषय-सुख में रमण
करता है जो वस्तुतः सुखाभास है, पराधीनता आकुलता आदि दोषों या दुःखों से
युक्त है, सही सुख पाने की कामना करता है तो शांति के सही सुख से विमुख हो
जाता है। ममता करता है तो मुक्ति (स्वाधीनता) प्राप्ति के रस से विमुख हो जाता
है।
आशय यह है कि विषय-सुख ही समस्त दोषों व दुःखों का बीज है। यह
बीज नीरसता की भूमि में उपजता है। अर्थात नीरसता की भूमि में विषय-सुख की
कामना उत्पन्न होती है। विषयसुख की कामना व भोग की इच्छा तभी मिट सकती
है जब प्राणी को ऐसा सुख मिले जो अनित्य व अनात्म पदार्थों पर निर्भर नहीं हो,
वह स्वरस ही हो सकता है। उस स्वरस की अनुभूति शांति, मुक्ति व प्रीति के रूप
में होती है। इनकी अनुभूति विपश्यना साधना में होती है। अतः विपश्यी साधक
स्वरस प्राप्त कर विषय सुखों पर विजय प्राप्त करता है। जिसे स्वरस नहीं मिलता
वह कोटि उपाय करे, कोटि ग्रंथ पढ़े, कामनाओं पर विजय नहीं पा सकता।
उसका चित्त कामना उत्पत्ति से अशांत होगा ही, ममता से पराधीन होगा ही,
स्वार्थ परता से संकीर्ण होगा ही। अशांति, पराधीनता किसी को भी पसंद नहीं।
सब विषय-सुख इंद्रिय-भोगों से संबंधित हैं अतः एक ही जाति (क्वालिटी)
के हैं। जबकि स्वरस अनेक प्रकार के हैं। उनमें शांति, मुक्ति, प्रीति, शक्ति,
जागृति आदि रस मुख्य हैं। इनकी अनुभूति से ही नीरसता का अंत संभव है।
शांति के सुख की अनुभूति कामना-निवृत्तिजन्य चित्त की स्थिरता से ही संभव है।
यह अनुभूति और अनित्यत्व का बोध आनापान व विपश्यना से ही होता है।
शांति व विश्रांति की भूमि से ही शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। मुक्ति (स्वाधीनता)
की अनुभूति शरीर और संसार से अपनेपन (आत्मत्व) के त्याग से, उपेक्षा से होती
है जो विपश्यना से सहज सभंव है। मुक्ति की अनुभूति में ही जागृति, चिन्मयता,
सजगता का आविर्भाव होता है। विपश्यना से राग, दवष, मोह आदि विकारों से
ग्रस्त दुःखी प्राणियों के प्रति करुणाभाव जागता है। करुणाभाव से प्रीति, प्रमोद,
मैत्रीभाव का उदय होता है। कामना व ममता के त्याग से स्वार्थपरता व
स्वामित्वभाव मिट जाता है जिससे उदारता व प्रीति रस की गंगा बहने लगती है।
इस प्रकार विपश्यना साधना से साधक का मैत्री, प्रमोद, करुणा व माध्यस्थ
(उपेक्षा-विराग) भाव सर्वहितकारी प्रवृत्तिमय जीवन बन जाता है। उससे निज रस
आने लगता है, जिससे विषय सुख व नीरसता का अंत स्वत: हो जाता है।
फलस्वरूप कामना, वासना, ममता, अहंता आदि विकार गल जाते है। शांति,
मुक्ति, प्रीति, मैत्री, प्रमोद, करुणा, उपेक्षा भाव के रस के अभाव में केवल
सिद्धांतों की चर्चा व चिंतन से नीरसता व विषयभोग का अंत कदापि संभव नहीं
है। विषयसुख के भोगों यानी, अशांति, पराधीनता, अभाव, तनाव, रोग, शोक,
जन्म, जरा, मरण आदि दुःख को भोगना ही पड़ेगा, यह प्राकृतिक विधान है जिसे
टालने में कोई भी समर्थ नहीं है। इन अनिष्ट स्थितियों व दुःख से मुक्ति पाने के
ळिए विपश्यना साधना को अपनाना ही पड़ेगा। विपश्यना करने में मानव मात्र
समर्थ व स्वाधीन है। फिर भी मानव दुःखी रहे, यह समझदारी व शोभा की बात
नहीं है। अत: राग, द्वेष, मोह, आदि विकारों का नाश कर दुःख-रहित शाश्वत
सुख पाने के लिए विपश्यना साधना, धर्म साधना, करने में एक क्षण का भी प्रमाद
नहीं करना चाहिए।
- वर्ष १२, बुद्धवर्ष २५२६, पौष पूर्णिया, दि, २८-१-१९८३, अंक ८
- पत्रिका संग्रह भाग 4