🌺शुद्ध धर्म का प्रसार और उसे जीवित रखने का संकल्प🌺



🌷The Spread of Pure Dhamma🌷
मेरे प्यारे विपश्यी साधक-साधिकाओ! ... भगवान बुद्ध की सारी शिक्षा उनके समय ही बाहर गयी, लेकिन लगभग 250-275 वर्ष बाद जब अशोक सम्राट हुआ, और उसके गुरु “मोग्गलिपुत्त तिस्स थेर” ने तीसरा संगायन किया, तब उसने भारत के बाहर धर्मदूत भेजे, यानी, स्थान-स्थान पर ऐसे अरहंत भेजे, जिनको सारी वाणी कंठस्थ थी और उसके साथ-साथ यह विपश्यना ज्ञान, यह विद्या जगह-जगह भेजी गयी, तो बर्मा भी गयी। भारत का बड़ा दुर्भाग्य हुआ कि 500 बर्ष बीतते-बीतते, आपसी झगड़ों को ले करके और कुछ अन्य कारणों से भी यह विद्या यहां पर लुप्त हो गयी -- विपश्यना भी और वाणी भी। हम बहुत उपकार मानते हैं - सम्राट अशोक का और “मोग्गलिपुत्त तिस्स थेर” का; यदि उन्होंने यह विद्या बाहर नहीं भेजी होती तो यह सदा के लिए नष्ट हो जाती। हमें कैसे मिलती? इसका लाभ दुनिया में किसी को न मिलता। जिन देशों में गयी उनमें से पांच देशों ने वाणी को कायम रखा। अब ये पांच देशों के लोग इकट्टे होते हैं। सबके उच्चारण भिन्न-भिन्न परंतु पालि वही है। सबकी लिपि भिन्न-भिन्न पर मामूली अंतर; कहीं छोटी “इ” की मात्रा या बड़ी “ई” की मात्रा। यों छोटी-मोटी भिन्नता परंतु ऐसा नहीं कि मूल वाणी में परिवर्तन आ जाय। इतने बर्षों तक संभाल कर रखा कि ओथेंटिक हुई। इससे यह विश्वास होता है कि सचमुच यह बुद्ध वाणी है। इन्होंने नहीं संभाल कर रखा होता तो हमें कैसे प्राप्त होती? यह विपश्यना विद्या भी सभी जगह गयी परंतु नष्ट हो गयी, बर्मा ने संभाल कर रखा, इसलिए उनका उपकार मानते है।
अपने यहां और बाहर भी ऐसी मान्यता है, या किसी संत ने भविष्यवाणी की थी कि यह जो रत्न बर्मा (स्वर्णभूमि) भेजा जा रहा है, बर्मा में बहुत सोना होता था उन दिनों इसलिए उसे स्वर्णभूमि कहते थे), वही इस अनमोल रत्न को (स्वर्ण को) संभाल कर रखेगा। बाकी सारे देशों में नष्ट हो जायगा। 2500 वर्ष पूरे होने पर यह विद्या, यह रतन फिर अपने उद्गम के देश यानी, भारत देश में आयगा। यहां के लोग बड़ी प्रसन्नता से उसे स्वीकार करेंगे, यहां स्थापित होगा, फिर सारे विश्व में फैलेगा। सारे विश्व के लोग इसे स्वीकार करेंगे।
यह वाणी और विद्या इस तरह क्यों रखी गयी उसका एक कारण है। “सुभद्र” नाम का वह भिक्षु जिसने पागलपन में यह घोषणा की कि अच्छा हुआ, वह बूढ़ा मर गया...। यदि वह ऐसा न कहता तो शायद कोई सोचता भी नहीं कि इस वाणी को कायम रखें, अन्यथा इस तरह के लोग बिगाड़ देंगे। तो उसका भी उपकार मानते हैं, अच्छा किया उसने । बहुत बड़ी घटना घटी। और सबसे बड़ी बात यह कि इसके बाद किस तरह से लोगों ने भले 500 वर्ष ही, पर इसे संभाल कर रखा। इस देश में कितनों का कल्याण हुआ, कितनों का कल्याण हुआ।


हमारे सामने प्रमाण हैं इस बात के कि इस विद्या से देश को कितना बड़ा लाभ हुआ। सम्राट अशोक एक शिलालेख में लिखता है, मेरे पहले कितने राजा हुये, कितने सम्राट हुये जो सब चाहते थे कि हमारी प्रजा में धर्म जागे । लोग बहुत शांति का जीवन जीयें, धर्म का जीवन जीयें, बड़ों का सम्मान करें, छोटों से प्यार करें, खूब दान देने की भावना हो आदि.., लेकिन कोई राजा सफल नहीं हुआ। चाहते सब थे, कोई सफल नहीं हुआ। फिर कहता है - मैं सफल हुआ। झूठ नहीं बोलता। झूठ बोलता तो उसका शिलालेख तोड़ कर फेंक देते लोग। इतने वर्षों तक कायम रहा न! इसीलिए कहता है मैं सफल हुआ। क्यों सफल हुआ? एक तो उसने धर्मामात्य नियुक्त किये। अमात्य मतलब मंत्री; धर्म के मंत्री माने धर्म सिखाने वाले लोग; राज्य की ओर से धर्म सिखाने वाले लोग जगह-जगह जाकर धर्म सिखाते और इस बात को देखते कि लोग समझ रहे हैं कि नहीं? उनको धर्म पालन करने में क्या कठिनाई है? एक तो यह कारण रहा; फिर कहता है -- अरे, यह तो बहुत छोटा-सा कारण था। इन उपदेशों से कौन बदलता है? थोड़ी देर बदलेगा, फिर वैसा का वैसा । मेरी सफलता का मूल कारण यह कि मैंने लोगो को ध्यान करना सिखाया, विपश्यना करनी सिखायी। आश्चर्य है, करोड़ों की आबादी वाला देश। कैसे यह विद्या फैलायी गयी? कैसे विद्या सिखायी गयी?
अब फिर समय आया, कोई न कोई रास्ता ऐसा निकलेगा कि यह विद्या सारे देश में फैलेगी और बहुत बड़ा कल्याण होगा, तो हमारे लिए बहुत बड़ी प्रेरणा की बात हुई कि यह विद्या कायम है। विपश्यना भी कायम है; वाणी भी कायम है। कहीं न कहीं कायम रहती है, सारे ब्रह्मदेश में नहीं रही। परंतु बहुत थोड़े से लोगों ने, गुरु-शिष्य परम्परा से संभाल कर रखा। बाकी लोग ऐसे ही अपने कर्म-कांडों में उलझे हुये, और भिन्न-भिन्न मान्यताओं में उलझे हुये, जैसे होता है संसार
में, लोक चक्र ऐसे ही चलता है। जिन थोड़े से लोगों ने संभाल कर रखा उनका बड़ा उपकार मानते हैं। इस स्थान का बहुत बड़ा महत्त्व कि यहां इस महापुरुष ने इतनी लंबी यात्रा का अंत किया, कितने जन्मों की यात्रा, और वह यात्रा यहां आकर समाप्त हुई। “नत्थिदानि पुनब्भवति”- अब मेरा पुनर्जन्म नहीं होगा। मुक्त हो गये। इसके पहले इतना काम कर गये, इतना काम कर गये कि करोड़ों लोगों का कल्याण हुए जा रहा है, होता ही जायगा। इस माने में इस स्थान का बहुत बड़ा महत्त्व है।
अभी मैंने कहा कि तीन महीने पहले उन्होंने यह भविष्य वाणी कर दी थी कि तीन महीने के बाद जो वैशाख पूर्णिमा आ रही है, उस रात के समाप्त होने पर मैं अपना शरीर त्यागूंगा। उस समय एक प्रश्न उठा कि ये जो धर्म-विरोधी शक्तियां हैं, वे हमेशा चाहती हैं कि किसी तरह से यह धर्म आगे नहीं बढ़े, तो उनका जो प्रमुख होता है, उसे “मार” कहा जाता है। जब ये सम्यक संबुद्ध बने तब बड़े प्रयत्न किये उसने कि यह संबुद्ध न बन पाय । वह चाहता है कि लोग इसी चक्र में पड़े रहें। बहुत हो तो देवलोक में चले जायं, अरे वहां पर ऐसा आनंद है, ऐसा आनंद... लोग उसमें पड़े रहें । यह-यह करो, तुमको देव लोक मिलेगा। लोग उसमें खुश रहें। किसी को उससे खुशी नहीं तो अच्छा ब्रह्मलोक! ऐसा ध्यान करो तो ब्रह्मलोक मिल जायगा। वह इसी चक्कर में लोगों को लगाये रखना चाहता है। सारे लोकों के परे चला जाय, जहां से पुनर्जन्म नहीं हो, वह उसे पसंद नहीं । तो जैसे ही सम्यक संबुद्ध बने तो कहता है कि आप मुक्त हो गये, अब छोड़ो इस जंजाल को। लोगों को सिखाने की बात क्यों करते हो? अरे, नहीं, मैं इसलिए सम्यक संबुद्ध नहीं बना हूं। वे सिखाते गये, सिखाते गये। एक बार अवसर आया, उनसे आकर कहता है कि अब तो बहुत लोग सीख गये, आपके बहुत शिष्य हो गये, अब तो परिनिर्वाण ले लो। वह कहता है नहीं, चार तरह के संघ हैं - भिक्षु संघ है, भिक्षुणी संघ है, और गृहस्थों में उपासक संघ, उपासिका संघ। जब ये चारों के चारों संघ, न केवल स्वयं धर्म में परिपुष्ट होंगे, बल्कि चारों के चारों, जब लोगों को धर्म सिखाने के लायक हो जायँगे, और मुझे विश्वास हो जायगा कि ये चारों के चारों धर्म सिखा सकती हैं, सिखा रहे हैं, तब परिनिर्वाण लूंगा। तो वैशाली में परिनिर्वाण के तीन महीने पहले वह फिर आता है, अब तो महाराज! बहुत लोग तैयार हो गये न आपके। बहुत भिक्षु भी तैयार हो गये, जो स्वयं भी पक गये, लोगों को भी सिखा सकते है। बहुत भिक्षुणियां तैयार हो गयीं, स्वयं भी पक गयीं, औरों को सिखा सकती हैं। और देखिये गृहस्थों में भी कितने तैयार हो गये, स्वयं भी पक गये, औरों को सिखा सकते हैं, और गृहस्थ उपासिकाओं में भी कितने पक गये, स्वयं भी पक गये, औरों को भी सिखा सकती हैं। तब वे कहते हैं - बात तो ठीक है भाई! अच्छा, आज के तीन महीने बाद परिनिर्वाण लूंगा।
इससे एक बात स्पष्ट हुई कि चारों के चारों संघ पके हुए थे। यह दुर्भाग्य की बात हुई कि कुछ समय के बाद जो गृहस्थ थे, बस कोई अपना व्रत कर लिया, थोड़ा-सा ध्यान कर लिया, उसी में लग गये। गृहस्थ आचार्य बहुत गिनती के रह गये। यह तो लगभग 100 वर्ष पहले ऐसी अवस्था आयी कि हमारे बड़े दादा गुरुजी--“लैडी सयाडो, बड़े दूरदर्शी थे। उन्होंने देखा-- 100 वर्ष बाद, 2500 वर्ष पूरे होंगे भगवान बुद्ध के, तब यह विद्या भारत जायगी, और भारत में स्थापित होने के बाद सारे विश्व में फैलेगी। वे भारत आये, यहां की स्थिति देखी तो एक बात उनकी समझ में आयी कि आज भारत की यह अवस्था है कि अगर कोई संन्यासी, कोई भिक्षु वहां जा करके बुद्ध की शिक्षा सिखायेगा तो अरे, यह तो बौद्ध धर्म है, बौद्ध धर्म है। लोगों में ऐसा एक पागलपन सवार है कि यह बौद्ध धर्म हमारे काम का नहीं है। कोई सुनेगा ही नहीं, पालन करना तो बहुत दूर। वे बड़े दूरदर्शी थे। देखा कि कोई गृहस्थ जायगा तो ही बात बनेगी। उसके बाद समय आयेगा कि सब सिखाने लगेंगे, पर पहले तो कोई गृहस्थ जाय, और गृहस्थों में अभी तक कोई आचार्य नहीं, तो मुझे गृहस्थ आचार्य तैयार करना है। अतः लगभग 100-125 वर्ष पहले उनके मन में यह बात आयी। बड़ा उपकार मानते हैं कि उन्होंने गृहस्थों के लिए दरवाजा खोला-- तुम भी विपश्यना सीखो। लोग विपश्यना सीखने लगे। बहुत थोड़े लोग, सीखने लगे। और उन्हीं में से एक ऐसे आदर्श गृहस्थ आचार्य हुये -- “सया तै जी, जिन्होंने एक आदर्श स्थापित किया - जो गृहस्थ आचार्य होंगे, वे कैसे होंगे? कैसा जीवन होगा? और उनके शिष्य मेरे धर्म-पिता “सयाजी ऊ बा खिन” हुए, जो इतने संत, इतने संत।
तो यह परम्परा गृहस्थों की होने के कारण भारत ने यह विद्या स्वीकार की। इसका अर्थ यह नहीं है कि भिक्षु लोग सिखा ही नहीं सकते, भारत के लोगों की ऐसी मानसिकता है, उनमें इतनी भ्रांतियां कि मैं स्वयं भी इन भ्रांतियों का शिकार हुआ। 31 वर्ष की उम्र में जब यह विद्या मिली मुझे तब देखा कि इसमें कोई खोट ही नहीं। यह इतनी निर्दोष, इतनी निष्कलंक और इतनी कल्याणकारी है, फिर भी हमारे यहां इसके खिलाफ दुनिया भर की फिजूल बातें क्यों होती है? उनकी वाणी का अध्ययन किया, तो देखा भाई! या तो नासमझी से बहुत-सी बातें उनकी शिक्षा के खिलाफ अपने देश में फैलीं, या किसी आपस के झगड़े को ले करके बेबुनियाद की बातें फैलायी गयीं । जिन बातों का वे लांछन लगा रहे हैं, उसकी कोई बुनियाद नहीं।
अपने यहां कहावत है- बढ़ाते-बढ़ाते- तिल का ताड़ कर दिया, राई का पर्वत कर दिया। मैंने जब अध्ययन करके देखा तो अरे, यहां तो कोई तिल भी नहीं, ताड़ कैसे हो गया? यहां तो राई भी नहीं, पर्वत कैसे हो गया? तो भाई! अपना दुर्भाग्य रहा कि इतने वर्ष हम इससे वंचित रहे। अच्छा हुआ कि फिर आयी है, लोगों ने स्वीकार किया है। जो लोग नहीं आ पाते हैं, उनको भ्रांतियां हैं, लेकिन जब आते हैं। तो देखते हैं - अरे, इतना शुद्ध! कहीं अंगुली टिकाने को जगह नहीं कि इस बात में खोट है। अरे, शील-सदाचार का पालन करना सीखें, उसमें खोट क्या है? संसार की कोई ऐसी धर्म-परम्परा नहीं जो शीलसदाचार का विरोध करे। ये शील-सदाचार का पालन करना सिखाते हैं, और उसका पालन करने के लिए मन को वश में करना सिखाते हैं। कौन विरोध करेगा? और मन को वश में करने के लिए जो आलंबन है वह सांस का है। जो सबके लिए एक जैसा है। हर एक उसका अभ्यास कर सकता है। और केवल मन को वश में करना ही नहीं, मन को जड़ों तक निर्मल करना है। ऐसा करने के लिए प्रज्ञा सिखाते हैं। शरीर और चित्त के पारस्परिक संबंधों से किस प्रकार विकार जागते हैं संवेदनाओं के आधार पर, और किस प्रकार संवेदनाओं के आधार पर विकार निकाले जा सकते हैं। सब स्वीकार करते हैं।
हिंदू हो,I मुस्लिम हो, बौद्ध हो, जैन हो, ईसाई हो, कुछ फर्क नहीं पड़ता। भारतीय हो, पाकिस्तानी हो, अंग्रेज हो, अमेरिकन हो, कुछ फर्क नहीं पड़ता। आदमी-आदमी है, सबका स्वभाव एक जैसा होता है। कैसे अपने स्वभाव को पलट दें और अच्छा जीवन जीने लगें - सब स्वीकार करते हैं। इन तीन बातों को छोड़ करके उस आदमी ने और कुछ नहीं सिखाया। उसके मत्थे कितनी बातें जोड़ दी गयीं, कितनी बातें जोड़ दी। गयीं। अच्छा हुआ, अब धीरे-धीरे लोगों की समझ में आ रहा है, वे निकम्मी बातें, जिनको ले करके देश दो हजार वर्षों तक वंचित रहा, वह अब स्वीकार कर रहा है, बड़ी अच्छी बात। यहीं पर वह सुभद्र नाम का व्यक्ति, जिसके मन में यह इच्छा जागी कि भगवान से यह विद्या सीखें। अच्छी बात, उसका अपना कल्याण हुआ। लेकिन दूसरा वह “सुभद्र” जो कहता है कि अच्छा हुआ कि बूढ़ा मर गया, अब हम मुक्त हो गये हैं, जो चाहें सो करेंगे। उसकी वजह से यह सारी विद्या कायम रखी गयी, परियत्ति भी, पटिपत्ति भी, माने वाणी भी और विपश्यना विद्या भी, दोनों कायम रही और हमारा बहुत बड़ा कल्याण हुआ। इस माने में इस स्थान का अपना एक बहुत बड़ा महत्त्व है। इस महत्त्वपूर्ण स्थान पर ध्यान करके हम अपना मंगल साध ले! ।
भवतु सब्ब मङ्गलं, भवतु सब्ब मङ्गलं, भवतु सब्ब मङ्गलं । 
(साधु, साधु, साधु ।) सुखी हों! सुखी हों!
(कुछ देर विश्राम कर लें और उसके बाद मंदिर के समीप जा करके ध्यान करेंगे।)
सबका मंगल, सबका मंगल, 
सबका मंगल होय रे,
तेरा मंगल, तेरा मंगल, 
तेरा मंगल होय रे! 
शुद्ध धरम धरती पर जागे, 
शुद्ध धरम धरती पर जागे,
पाप तिरोहित होय रे, 
पाप तिरोहित होय रे! 
जन-मन के दुखड़े मिट जायें, 
जन-मन के दुखड़े मिट जायें,
जन-मन हर्षित होय रे,! 
सबका मंगल, सबका मंगल, 
सबका मंगल होय रे!
कल्याणमित्र, 
सत्यनारायण गोयन्का.
(धम्म विमुत्ति, कुशीनगर (उ.प्र.) की धर्म-यात्रा के दौरान पुराने साधकों के लिए पूज्य गुरुजी का प्रवचन- 'विपश्यना'- अप्रैल, 2017, अंक 10 से आगे, ... क्रमशः)
मई 2017 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित
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🌷The Spread of Pure Dhamma🌷
-Principal Teacher S.N. Goenka.
This Dhamma talk was given to Old Students at Dhamma Vimutti, Kushinagar (U.P.) while on Dhamma tour. (Continued from The Vipassana Newsletter - Apr 2017, volume 10)
The teachings of Lord Buddha spread far and wide in his own time. However, approximately 250 to 275 years later, during the reign of emperor Ashok his teacher Moggaliputtatissa Thera organised the third Sangiti. After that arahants who had memorised the entire teachings and had a deep knowledge of Vipassana were sent as Dhamma envoys to many countries beyond the borders of India. Thus the teachings of the Buddha reached far off countries including Burma (Myanmar) and were preserved.
It was India's great misfortune that after about 500 years, this knowledge of Vipassana, as well as the words of the Buddha, vanished here in India due to internal friction and other reasons. We are deeply grateful to emperor Ashoka and Moggaliputta Tissa, for had they not sent the teachings out of the country, they would have been destroyed forever and the world would have been deprived of them. Five nations out of the countries where they were sent, preserved them in their pristine purity.
Then as time moved on, scholars of these countries gathered together to collaborate on preserving the teachings. Though the Pali language was the same in these various countries, their scripts differed. The pronunciations also differed though only in a minor way; for example, in some particular words some countries may have used a short 'i' sound while others may have used a long 'i'. But these minor differences did not change the original meaning of the words. For centuries these teachings were preserved with utmost care, maintaining complete authenticity. As a result, this has generated confidence that these are indeed the true words of the Buddha. Had these scholars not worked sincerely to preserve them, how could we have received them now? Along with the words of the Buddha, the practical aspect, Vipassana meditation, had also spread widely but eventually this was virtually lost. But pious meditators in Burma maintained this also in its purity. We are immensely grateful to Burma for this.
🌷Deep Gratitude 🌷
There has been a belief in India and in other countries, perhaps due to a prophecy made by a saint, that this priceless jewel of Dhamma which had been sent to the golden land of Burma (named this due to its abundance of gold), would be preserved there, while it would be lost elsewhere. And that at the end of 2500 years, it would be returned to India, the land of its origin, and the people would accept it joyously. Then, after getting established in the land of its origin, it would spread all over the world and there too, it would be accepted openheartedly.
There is a reason why this teaching, these words, were preserved with such earnestness and zeal the way they were. At the time of the Buddha's Parinibbana, a bhikkhu by the name of Subhadda declared in his utter madness, "It is good that the old man has died. Now we are free to do what we want." Had he not made such a declaration, perhaps no one would have even conceived of preserving the teachings, not realising that such kinds of people may destroy them in times to come. We are also grateful that this Bhikkhu did what he did. It was an occurrence of great significance.
And then again, it is worth considering how the followers preserved it, even for 500 years in India. It was their singular effort as a result of which many benefitted in this country; how many benefitted indeed! We have evidence to show how much the nation did benefit. Emperor Ashoka had these words inscribed in rock - Many kings and emperors prior to me also wished to see the flame of Dhamma arising amongst their people, wishing that people would live a life of peace and Dhamma, respect their elders and nurture youngsters with love, and develop generosity, etc, but no king succeeded in this endeavour despite fervent resolve. Then he went on to say - but truly I did succeed. It's true, had he lied, the people would have smashed those carved edicts. But no, the rocks and edicts survived to prove his claim.
How did he succeed? He appointed Dhamma ministers. Those who could teach Dhamma were appointed by the state to travel from place to place teaching it and then would follow up to see whether people had understood what was taught or not, to see if there was any difficulty that they faced in following it. This was but one of the reasons. Ashoka said, "Oh this was but a very small reason. Who is really transformed from these preachings? Even if one gets influenced and changes, it is but momentarily. After a while, he or she goes back to being what they were. The real reason for my success is that I taught people to meditate, taught them Vipassana," he said. In this land of multiple millions, it is mind-boggling to conceive of how Vipassana was disseminated so widely in those days. How it was taught to so many.
The time has come again. Dhamma will find a way and Vipassana will spread in the entire nation once again with so many benefitting immensely. It is truly inspiring for us to see that not only the words of the Buddha have survived, but Vipassana has survived unblemished as well. Though preserved in Burma, it did not survive in its pristine purity in the entire country, but only in some pockets with the efforts of a few who preserved it with utmost sincerity through the guru - disciple tradition. We are immensely grateful to those few who preserved it. As for the others, they remained immersed in their rites and rituals, their philosophies and beliefs, as it happens elsewhere in the world. This is the way the wheel of existence continues to rotate.
🌷Time of Mahaparinibbana🌷
This place where we are today is important as it was here that the giant amongst men ended his long journey, a journey that spanned millions of lifetimes. As it came to an end he said - natthi dani punabbhavo - now there is no rebirth for me, I am free. But before passing on, he put in an immeasurable amount of work that continues to benefit millions even today and will continue also in the future. So this place is of great significance.
I had mentioned that the Buddha had announced that he would pass away after three months, at the end of the night of Vesakha Purnima, the night of the summer full moon. How did this come to pass? When Siddhartha Gautama became Samma Sambuddha, at that time Mara, the chief of the powers that oppose Dhamma by not wanting it to progress, tried hard to prevent him from becoming Samma Sambuddha. Mara's wish is that beings should continue to remain in existence; if at all they seek to progress, then let them go to the deva-lokas, the celestial realms which are filled with many pleasures. People can follow specific methods which will give the fruit of rebirth in a deva-loka; they can revel in the pleasures in that realm, be happy there. If that does not suffice then there is the brahma-loka. They can meditate in various ways to reach the brahma-loka and still Mara is happy seeing people locked in this cycle of birth and death, from one realm to another. But Mara is unhappy to see anyone breaking out and going beyond, transcending existence.
Hence, when Siddhartha Gautama became the Buddha, Mara told him, "Now that you are liberated, get out of this mess, this web of suffering. Why bother teaching others?" But the Buddha kept on teaching unceasingly. Again, at another time, Mara came and told him, "Now that many people have learnt and you have many disciples, why don't you pass on into Parinibbana?" But the Buddha responded "No, it is not yet time. There are four types of sanghas. Bhikkhu sangha, bhikkhuni sangha, lay person sangha for householder men and another for householder women. When these four sanghas not only get well established in Dhamma themselves, but are able to teach Dhamma to others, and I am assured that these four are capable of teaching Dhamma to others, and in fact, they are teaching it to others, then I will pass away into Parinibbana."
Mara later came to Vaishali three months prior to the time of the Buddha's Parinibbana and said, "Lord, many of your people have now ripened. There are many bhikkhus who are well established and are capable of teaching Dhamma to others, many bhikkhunis who are well established and capable of teaching Dhamma to others, and see there are many laymen who are well established and capable of teaching Dhamma to others, besides many laywomen followers who are also well established and capable of teaching Dhamma to others. Then the Buddha said, "Yes, what you are saying is correct! Therefore, three months from now, I shall take Parinibbana."
From this statement, it is clear that all the four sanghas were ripened and well established. But it was a great misfortune that after some time some lay followers started to add some ritual or a fast, reducing the meditation etc., as a result of which very few lay householder teachers remained.
Then around 100 years ago, our great - grandfather guru Ledi Sayadaw came, a man of great foresight. He saw that in 100 years, the first 2500 years of the Buddha Sasana would come to an end and that the time would come for this knowledge to return to India, get established there and then spread throughout the world. He went to India, and seeing the conditions then prevailing realised that if a Buddhist (Bauddha) bhikkhu or a recluse came to India to teach the Buddha's teachings, the people would not accept it thinking, "Oh, this is Buddhist religion, it is of no use to us." He found they were totally beguiled by their own views and would not listen to, leave alone follow the Buddha's teaching.
Ledi Sayadaw realised that this needed to be re-established by a lay householder. A time would come when everyone would start teaching, however, a householder would need to take the first step. As there were no householder teachers he realised that he must work on preparing some of them. Such was his intention around 100 to 125 years ago, when he began to encouraged laymen to learn Vipassana, and a few came. We are deeply grateful to him for opening the doors for the householders. And from amongst those, one such householder teacher emerged - Saya Thet Gyi. Being an ideal teacher, he established a high standard of what a householder teacher should be like. And then came his disciple, my Dhamma father - Sayagyi U Ba Khin who was truly a saint; what a saint indeed!
India accepted this teaching as it seemed to be a tradition that belonged to householders, though it is not to say that bhikkhus could not teach it. But looking at the Indian mindset which is nurtured on innumerable beliefs, many of them misleading, it was best this way. I too had been similarly affected by misleading beliefs. When I received this teaching at the age of 31, I found that there was nothing false in it. It is so faultless, blemishless and so beneficient, yet there were many false statements made against it? Why was that so?
I studied Lord Buddha's teachings deeply and realised that either due to ignorance or because of disputes, false propaganda was spread in India against the teachings . The accusations that have been heaped on the Buddha have no basis whatsoever.
There is a saying amongst us that with continuous exaggeration, a mountain is created out of a molehill. Upon my research, I mused that as there was not even a molehill here, then how did this mountain appear? It was our misfortune that we were deprived of the Buddha's teachings for so many years, but it is good that they have returned now and people have accepted them. There are those who are reluctant initially, but when they do come and practice vipassana, they feel it is so pure. There is no place to put even a finger on any shortcoming.
🌷Fundamentals of Vipassana 🌷
One learns to follow sila, morality, and then one learns sam±dhi, how to discipline the mind in order to be able to follow sila. Who can object to that? And in order to learn to control the mind the point of focus becomes one's own breath which is the same for everyone, all can follow and practice it. Then the mind is not merely to be controlled, but one has to go to its very depths and purify it at its roots. For this, pañña, wisdom, insight is taught. One learns how, with the interconnection between the mind and the body, negativities arise at the level of body sensations, and how, on the basis of these very sensations, the negativities in the mind can be eradicated.
Everyone can accept this. Whether one is Hindu, Muslim, Jain, Sikh or Christian, it makes no difference. Whether Indian, Pakistani, English or American, it makes no difference. A human being is a human being, and everyone's nature is the same. How to change that nature in order to live a good life for the betterment of all, is an idea acceptable to everyone. The Enlightened One taught nothing beyond these three points. Yet how many accusations have been falsely heaped on him, and why?
It is good that people are slowly beginning to understand that these are useless, baseless criticisms due to which the nation remained deprived of the teachings. It is good that they are now they are accepting his teachings.
Where we are now sitting is the place where a man called Subhadda came with the desire to get this wisdom from the Incomparable One. Wonderful for him, for he benefitted immensely. And then there was another Subhadda who said, "It is good that the old man has died, now we are free to do what we want!" It was due to him that this entire teaching was preserved, and it remained intact, pariyatti as well as patipatti - his words as well as the Vipassana practice both survived, to our immeasurable welfare. Hence this place has a great significance. Let us meditate here, a place of vital importance, for our own welfare, our own benefit and the benefit of many!
Bhavatu sabba-mangalam, Bhavatu sabba-mangalam, Bhavatu sabba-mangalam
May all beings Be happy! Be happy!
Sadhu, Sadhu, Sadhu)
(Rest for a while, and then we will go near the temple and meditate).
🌷Guruji's Metta chant🌷
May all be happy! May pure Dhamma arise on the earth,
May impurities dissolve, may miseries in the hearts of all the people dissolve,
may all become joyous!
May all be happy!
Kalyan Mitta,
Satyanarayana Goenka.

Premsagar Gavali

This is Premsagar Gavali working as a cyber lawyer in Pune. Mob. 7710932406

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