🌷 काश्यप-बंधुओं की प्रव्रज्या 🌷


🌷 काश्यप-बंधुओं की प्रव्रज्या 🌷

उरुवेला में चमत्कार प्रदर्शन :--
वहाँ से भगवान् क्रमशः विचरते हुए. . . उरुवेला पहुँचे। उस समय उरुवेला में तीन जटिल (जटाधारी)- उरुवेल-काश्यप, नदी-काश्यप और गया-काश्यप--वास करते थे।
उनमे उरुवेल-काश्यप जटिल पाँच सौ जटिलों का नायक, अग्र प्रमुख था । नदी-काश्यप जटिल तीन सौ जटिलों का नायक प्रमुख था । गया-काश्यप जटिल दो सौ जटिलों का नायक प्रमुख था ।
भगवान ने उरुबेल-काश्यप जटिल के आश्रम पर पहुँच, उरुबेल-काश्यप जटिलसे कहा- ‘हे काश्यप ! यदि तुझे भारी न हो , तो मैं एक रात (तेरी) अग्निशाला में वास करूँ।”
“महाश्रमण ! मुझे भारी नहीं है (लेकिन), यहाँ एक बडा ही चंड, दिव्य-शक्तिधारी, आशीविष, घोर-विष नागराज है। वह (कहीं) तुम्हें हानि न पहुँचावे।”
दूसरी बार भी भगवान ने उरुवेल-काश्यप जटिल से कहा-"....
"तीसरी बार भी भगवान ने उरुवेल-काश्यप जटिल से कहा-"...
“काश्यप ! नाग मुझे हानि न पहुँचावेगा, तू मुझे अग्निशाला की स्वीकृति दे दे।”
“महाश्रमण ! सुखसे विहार करो।”

१–प्रथम प्रातिहार्य--
तब भगवान् अग्निशाला में प्रविष्ट हो तृण बिछा, आसन बाँध, शरीर को सीधा रख, स्मृति को स्थिर कर बैठ गये। भगवान को भीतर आया देख, नाग क्रुद्ध हो धुआँ देने लगा। भगवान के (मन में) हुआ-- क्यों न मैं इस नाग के छाल, चर्म, मांस, नस, हड्डी, मज्जा को बिना हानि पहुँचाये, (अपने) तेजसे (इसके) तेजको खींच लूँ। " फिर भगवान् भी वैसे ही योगबलसे धुआँ देने लगे। तब वह नाग कोप को सहन न कर प्रज्वलित हो उठा। भगवान् भी तेज-महाभूत(तेजो धातु) में समाधिस्थ हो प्रज्वलित हो उठे। उन दोनों के ज्योतिरूप होनेसे, वह अग्निशाला जलती हुई सी जान पडने लगी। तब वह जटिल अग्निशाला को चारों ओर से घेरे, यों कहने लगे-- "हाय ! परम-सुन्दर महाश्रमण नाग द्वारा मारा जा रहा है। भगवान्ने उस रात के बीत जाने पर, उस नाग के छाल, चर्म, मांस, नस, हड्डी, मज्जा को बिना हानि पहुँचाये, अपने तेजसे उसका तेज खींचकर, उसे पात्र में रख उरुवेल काश्यप जटिल को दिखाया—
“हे काश्यप ! यह तेरा नाग है, (अपने) तेज से (मैंने) इसका तेज खींच लिया है ।"
तब उरुबेल-काश्यप जटिल के (मनमें) हुआ—महादिव्यशक्तिवाला, महा-आनुभाव वाला महाश्रमण है; जिसने कि दिव्यशक्ति-सम्पन्न आशी-विष, घोर-विष चण्ड नागराज के तेज को (अपने) तेज से खींच लिया। किन्तु मेरे जैसा अर्हत नहीं...।
तब भगवान्के इस चमत्कार (ऋद्धि-प्रातिहार्य) से काश्यप जटिल ने प्रसन्न हो भगवान्से यह कहा-“महाश्रमण ! यहीं विहार करो. में नित्य भोजन से तुम्हारी (सेवा करूँगा) ।”

२-द्वितीय प्रातिहाये--
तब भगवान् जटाधारी उरुवेल-काश्यप के आश्रमके पास एक –खण्ड में विहार करते थे। एक प्रकाशमान रात्रि को अतिप्रकाशमय चारों महाराज (लोकपाल देवता), उस बन-खण्ड को पूर्णतया प्रकाशित करते, जहाँ भगवान् थे, वहाँ आये। आकर भगवान्को अभिवादन कर महान् अग्नि-समूह की भाँति चारों दिशाओं में खडे हो गये। तब जटिल उरुवेल काश्यप उस रात के बीत जाने पर जहाँ भगवान् थे, वहाँ गया। जाकर भगवान्से यह बोला--
“महाश्रमण ! (भोजनका) काल है। भात तैयार है। महाश्रमण ! इस प्रकाशमान रात्रि को बडे ही प्रकाशमान् वह कौन थे, जोकि इस बन-खण्ड को पूर्णतया प्रकाशित कर, जहाँ तुम थे, वहाँ आये । आकर तुम्हें अभिवादन कर महान् अग्नि-समूहकी भाँति चारों दिशाओं में खडे हो गये ?"
“काश्यप ! यह चारों (लोकपाल)महाराजा थे, जो मेरे पास धर्म सुनने के लिये आये थे।
तब जटिल उरुवेल काश्यपके (मनमें) हुआ-- "महाश्रमण बड़ी दिव्यशक्तिवाला, महानुभाव है, जिसके पास चारों महाराजा धर्म सुनने के लिये आते हैं। तो भी यह वैसा अर्हत् नहीं है, जैसा कि मैं ।"
तब भगवान् जटिल उरुवेल काश्यप के भातको खाकर उसी वन-खंड में विहार करने लगे।

३—तृतीय प्रातिहाये--
तब एक प्रकाशमान् रात्रि को पहलों के प्रकाश से भी अधिक प्रकाशमान्, अधिक उत्तम, अति दीप्तिमान् देवों का इन्द्र शक्र उस वन-खंड को पूर्णतया प्रकाशित करता जहाँ भगवान् थे, वहाँ गया। जाकर भगवान्को अभिवादनकर महान् अग्नि-समूह की भाँति एक ओर खड़ा हो गया। तब जटिल उरुवेल काश्यप उस रात के बीत जाने पर, जहाँ भगवान् थे, वहाँ गया। जाकर भगवासे यह बोला-“महाश्रमण ! (भोजनका) काल है। भात तैयार है। महाश्रमण ! इस प्रकाशमान् रात्रि को पहले के प्रकाशसे अधिक प्रकाशमान्, अधिक उत्तम, अति प्रकाशमान् कौन इस वनखंड को पूर्णतया प्रकाशित करते आकर तुम्हें अभिवादन कर महान् अग्नि-समूहकी भाँति एक ओर खड़ा हुआ था?"
“काश्यप ! वह देवोंका इन्द्र शक्र था जो मेरे पास धर्म सुनने के लिये आया था।”
तब जटिल उरुवेल काश्यपके ( मनमें ) हुआ “महाश्रमण बडी दिव्यशक्तिवाला, महानुभाव है जिसके पास कि देवोंका इन्द्र शक्र धर्म सुनने के लिये आता है । तो भी यह वैसा अर्हत् नहीं। हैं, जैसा कि मैं।"
तब भगवान् जटिल उरुवेल काश्यप के भातको खाकर उसी वन-खंड में विहार करने लगे।

४–चतुर्थ प्रातिहार्य--
तब एक प्रकाशमान् रात्रि को अति प्रकाशमय (लोकसमूह) का सहपति ब्रह्मा उस वन-खंड को पूर्णतया प्रकाशित करता, जहाँ भगवान् थे, वहाँ गया। जाकर भगवान्को अभिवादन कर एक ओर खडा हुआ।
तब जटिल उरुवेल काश्यप उस रात के बीत जाने पर, जहाँ भगवान् थे, वहाँ गया। जाकर भगवानसे यह बोला
“महाश्रमण ! (भोजनका) काल है। भात तैयार है। महाश्रमण ! इस प्रकाशमान् रात्रि को बडा ही प्रकाशमान् वह कौन था जोकि इस वन-खंडको पूर्णतया प्रकाशितकर, जहाँ तुम थे, वहाँ आकर तुम्हें अभिवादन कर महान् अग्नि-समूह की भाँति एक ओर खडा हुआ ?"
“काश्यप ! वह सहपति ब्रह्मा था जो मेरे पास धर्म सुनने के लिये आया था ।"
तब जटिल उरुवेल काश्यपके ( मनमें ) हुआ-- ‘महाश्रमण बडी दिव्यशक्तिवाला, महानुभाव है, जिसके पास कि सहपति ब्रह्मा धर्म सुनने के लिये आता है। तौ भी यह वैसा अर्हत् नहीं है जैसा कि मैं ।"
तब भगवान् जटिल उरुवेल काश्यप के भातको खाकर उसी वन-खंडमें विहार करने लगे।
भगवान् उरुवेल काश्यप जटिल के आश्रम के समीपवर्ती एक वन-खंड में... उरुवेल काश्यप का दिया भोजन ग्रहण करते हुए, विहार करने लगे।

५–पंचम प्रातिहार्य–
उस समय उरुवेल-काश्यप जटिलको एक महायज्ञ आ उपस्थित हुआ; जिसमें सारे के सारे अंग-मगध-निवासी बहुत सा खाद्य भोज्य लेकर आनेवाले थे। तब उरुवेल काश्यप के चित्तमें (विचार) हुआ-
‘‘इस समय मेरा महायज्ञ आ उपस्थित हुआ है, सारे अंग-मगध वाले बहुत सा खाद्य भोज्य लेकर आयेंगे । यदि महाश्रमण ने जन-समुदाय में चमत्कार दिखलाया, तो महाश्रमण का लाभ और सत्कार बढ़ेगा मेरा लाभ सत्कार घटेगा। अच्छा होता यदि महाश्रमण कल न आता।”
भगवान्ने उरुवेल-काश्यप जटिल के चित्त का वितर्क (अपने) चित्तसे जान, उत्तर कुरु जा, वहाँ से भिक्षान्न ले अनवतप्त सरोवर पर भोजन कर, वहीं दिन को विहार किया। उरुवेल-काश्यप जटिल उस रात के बीत जाने पर, भगवान्के पास जाकर बोला-
"महाश्रमण ! (भोजनका) काल है, भात तैयार हो गया। महाश्रमण ! कल क्यों नहीं आये? हम लोग आपको याद करते थे क्यों नहीं आये? आपके खाद्य-भोज्य का भाग रक्खा है।
“काश्यप ! क्यों? क्या तेरे मन में (कल) यह न हुआ था, कि इस समय मेरा महायज्ञ आ उपस्थित हुआ है० सारे अंग-मगध वाले बहुत सा खाद्य भोज्य लेकर आयेंगे । यदि महाश्रमण ने जन-समुदाय में चमत्कार दिखलाया, तो महाश्रमण का लाभ और सत्कार बढ़ेगा मेरा लाभ सत्कार घटेगा। अच्छा होता यदि महाश्रमण कल न आता।”
इसीलिये काश्यप ! तेरे चित्त के वितर्क को (अपने) चित्त से जान, मैंने उत्तरकुरु जा, अनवतप्त सरोवर पर भोजन कर, वहीं दिन को विहार किया।"
तब उरुवेल-काश्यप जटिल को हुआ– ‘‘महाश्रमण महानुभाव दिव्य-शक्तिधारी है, जोकि (अपने) चित्त से (दूसरे का) चित्त जान लेता है। तो भी यह (वैसा) अर्हत् नहीं है, जैसा कि मैं ।"
तब भगवान्ने उरुवेल-काश्यप का भोजन ग्रहण कर उसी वन-खंडमें (जा) विहार किया।...

६–पष्ठ प्रातिहायं—
एक समय भगवान्को पांसुकूल (पुराने चीथड़े) प्राप्त हुए। भगवान्के चित में हुआ,
“मैं पांसु-कूलों को कहाँ धोऊँ।"
तब देवोंके इन्द्र शक्र ने, भगवानके चित्त की बात जान . .हाथसे पुष्करिणी खोदकर, भगवान्से कहा-‘‘भन्ते ! भगवान् ! (यहाँ) पांसुकूल धोवें ।"
तब भगवान्को हुआ--"में पाँमुकूलों को कहाँ उपर्छ।
" इन्द्र ने...(वहाँ) बडी भारी शिला डाल दी...।
तव भगवान्को हुआ--"में किसका आलम्ब ले (नीचे) उतरूँ ?"...
इन्द्रने...शाखा लटका दी...।
...मैं पांसुकुलोंको कहाँ फैलाॐ ?
...इन्द्रने...एक बडी भारी शिला डाल दी...।
उस रातके बीत जाने पर, उरुवेल-काश्यप जटिल ने, जहाँ भगवान् थे, वहाँ पहुँच, भगवान से कहा--“महाश्रमण ! (भोजनका) काल है, भात तैयार हो गया है। महाश्रमण ! यह क्या ? यह पुष्करिणी पहिले यहाँ न थी !...। पहिले यह शिला (भी) यहाँ न थी; यहाँ पर शिला किसने डाली ? इस ककुध (वृक्ष) की शाखा (भी) पहिले लटकी न थी, सो यह लटकी है।”
“मुझे काश्यप ! पांसुकूल प्राप्त हुआ०...तब इन्द्र ने पुष्करिणी खोद ० शिला डाल ० डाली लटका ० ” तब उरुवेल-काश्यप जटिलके (मनमें) हुआ--"महाश्रमण दिव्य-शक्ति-धारी है ! महा-आनुभाव-वाला है...। तो भी यह वैसा अर्हत् नहीं है, जैसा कि मैं ’’,
भगवान्ने उरुवेल-काश्यप का भोजन ग्रहण कर, उसी वन-खंड में विहार किया।

७--सप्तम प्रातिहार्य--
तब जटिल उरुवेल-काश्यप उस रात के बीत जाने पर, जहाँ भगवान् थे, वहाँ गया। जाकर भगवान्से कालकी सूचना दी--“महाश्रमण (भोजनका) काल है। भात तैयार है ।
“काश्यप ! चल में आता हूँ”--कह जटिल उरुवेल-काश्यप को भेजकर, जिस जम्बू (जामन) के कारण यह जम्बू-द्वीप कहा जाता है, उससे फल लेकर (काश्यप से) पहले ही आकर अग्निशाला में बैठे। जटिल उरुवेल-काश्यपने भगवान्को अग्निशाला में बैठे देखकर कहा--
“महाश्रमण किस रास्ते से तुम आये। मैं तुमसे पहले ही चला था लेकिन तुम मुझसे पहले ही आकर अग्निशालामें बैठे हो ?’
“काश्यप ! मैं तुझे भेजकर जिस जम्बू (जामुन) के कारण यह जम्बू-द्वीप कहा जाता है; उससे फल ले पहिले ही आकर मैं अग्निशालामें बैठ गया। काश्यप यह वही (सुन्दर) वर्ण, रस, गन्ध युक्त जम्बू फल है। यदि चाहता है तो खा।"
“नहीं महाश्रमण ! तुम्हीं इसे लाये, तुम्हीं इसे खाओ।"
तब जटिल उरुवेल काश्यपके मन में हुआ-- ‘महाश्रमण बडी दिव्य-शक्ति-वाला, महानुभाव है, जोकि मुझे पहिले ही भेजकर जिस जम्बू (जामुन) के कारण यह जम्बू-द्वीप कहा जाता है, उससे फल लेकर मुझसे पहले ही (आकर) अग्निशाला में बैठा। तो भी यह वैसा अर्हत् नहीं है। जैसा कि मैं ।
तब भगवान् जटिल उरुवेल काश्यप के भातको खाकर उसी वन-खंड में विहार करने लगे ।

८-१०--अष्टम्, नवम, दशम प्रातिहार्य--
तब जटिल उरुवेल काश्यप उस रात के बीतने पर जहाँ भगवान् थे वहाँ गया। जाकर भगवान्को काल की सूचना दी--
“महाश्रमण ! (भोजनका) काल है। भात तैयार है।"
“काश्यप चल ! मैं आता हूँ ।”-(कहकर) जटिल उरुवेल-काश्यप को जिस जम्बूके कारण यह जम्बू-द्वी प कहा जाता है उसके समीपके आम०। ० आँवला०। ० हरे ० फल ले पहिले ही आकर मैं अग्निशालामें बैठ गये। काश्यप यह वही (सुन्दर) वर्ण, रस, गन्ध युक्त आम०। ० आँवला०। ० हरे फल है। यदि चाहता है तो खा।"
“नहीं महाश्रमण ! तुम्हीं इसे लाये, तुम्हीं इसे खाओ।"
तब जटिल उरुवेल काश्यपके मन में हुआ-- ‘महाश्रमण बडी दिव्य-शक्ति-वाला, महानुभाव है, जोकि मुझे पहिले ही भेजकर जिस जम्बू (जामुन) के कारण यह जम्बू-द्वीप कहा जाता है, उसके समीप के आम०। ० आँवला०। ० हरे ० फल लेकर मुझसे पहले ही (आकर) अग्निशाला में बैठा। तो भी यह वैसा अर्हत् नहीं है। जैसा कि मैं ।
तब भगवान् जटिल उरुवेल काश्यप के भातको खाकर उसी वन-खंड में विहार करने लगे ।

११--एकादशम प्रातिहार्य--
तब जटिल उरुवेल काश्यप उस रात के बीतने पर जहाँ भगवान् थे वहाँ गया। जाकर भगवान्को काल की सूचना दी--
“महाश्रमण ! (भोजनका) काल है। भात तैयार है।"
“काश्यप ! चल मैं आता हूँ।”--(कहकर) त्रयस्त्रिश देव-लोक में जाकर पारिजात पुष्प को ले (काश्यपसे) पहिले ही आकर अग्निशाला में बैठे। जटिल उरुवेल काश्यप ने भगवान्को अग्निशालामें (पहले ही) बैठे देखकर यह कहा--
“महाश्रमण ! किस रास्ते से तुम आये, मैं तुममे पहिले हो चला था, लेकिन तुम मुझसे पहिले ही आकर अग्निशाला में बैठे हो ?"
“काश्यप ! मैं तुझे भेजकर त्रयस्त्रिंश देव-लोक में जाकर पारिजात पुष्प को ले पहले ही आकर अग्निशाला में बैठा हूँ। काश्यप ! यही वह सुन्दर वर्ण और गन्ध युक्त पारिजात का पुष्प है।”
तब जटिल उरुवेल काश्यप के (मनमें) यह हुआ--“महाश्रमण दिव्य शक्तिवाला, महानुभाव है जो कि मुझे पहले ही भेजकर त्रयस्त्रिंशं देव लोक जा पारिजात के फूल को ले पहिले हा आकर अग्निशाला में बैठा है; तो भी यह वैसा अर्हत नहीं है जैसा कि मैं ।
तब भगवान् जटिल उरुवेल काश्यप के भातको खाकर उसी वन-खंड में विहार करने लगे ।

१२–द्वादशम प्रातिहार्य–
उस समय जटिल (जटाधारी वाणप्रस्थ साधु ) अग्निहोत्र के लिये लकडी (फाडते वक्त) फाड न सकते थे। तब उन जटिलों के (मनमें) यह हुआ-- "निस्संशय यह महाश्रमणका दिव्य-बल है, जोकि हम काठ नहीं फाड सकते हैं।"
तब भगवान् जटिल उरुवेल काश्यपसे यह बोले
“काश्यप ! फाडी जायँ लकड़ियाँ ?"
“महाश्रमण ! फाडी जायँ लकड़ियाँ ।” और एक ही बार पाँच सौ लकड़ियाँ फाड दी गईं ।
तब जटिल उरुवेल काश्यपके मन में यह हुआ--“महाश्रमण दिव्यशक्तिवाला, महानुभाव है जोकि लकड़ियाँ फाडी नहीं जा सकती थीं। तो भी यह वैसा अर्हत् नहीं है जैसा कि मैं ।

१३–त्रयोदशम प्रातिहार्य–
उस समय जटिल अग्नि-परिचर्या के लिये (जलाते वक्त) आग को न जला सकते थे। तब उन जटिलोंके (मनमें) यह हुआ
“निस्संशय यह महाश्रमणका दिव्य-बल है जो हम आग नहीं जला सकते हैं।"
तब भगवान्ने जटिल उरुवेलं काश्यपसे यह कहा-- “काश्यप ! जल जावे अग्नि ?"
“महाश्रमण ! जल जावे' अग्नि ।" और एक ही बार पाँच सौ अग्नि जल उठी० ।।

१४–चतुर्दशम प्रातिहायं—
उस समय जटिल परिचर्या करके आग को बुझा नहीं सकते थे० । उस समय वह जटिल हेमन्त की हिम-पात वाली चार माघ के अन्त और चार फाल्गुन के आरम्भ की रातों में नेरजरा नंदी में डूबते उतराते थे, उन्मज्जन, निमज्जन करते थे। तब भगवान्ने पाँच सौ अँगीठियाँ (योगबलसे) तैयार कीं, जहाँ निकलकर वे जटिल तापें । तब उन जटिलोंके मनमें यह हुआ “निस्संशय यह महाश्रमणका दिव्य-बल है."

१५--पंचदशम प्रातिहार्य–
एक समय बडा भारी अकाल मेघ बरसा । जलकी बडी बाढ़ आ गई। जिस प्रदेश में भगवान् विहार करते थे, वह पानी से डूब गया। तब भगवान्को हुआ—
“क्यों न मैं चारों ओर से पानी हटाकर, बीचमें धूलियुक्त भूमिपर चंक्रमण करूं (टहलू) ?’
भगवान् ...पानी हटाकर ... धूलि-युक्त भूमिपर टहलने लगे।
उरुवेल-काश्यप जटिल--"अरे ! महाश्रमण जलमें डूब न गया होगा !!" (यह सोच) नाव ले, बहुतसे जटिलों के साथ जिस प्रदेशमें भगवान् विहार करते थे, वहाँ गया। (उसने)...भगवान्को...धूलि-युक्त भूमिपर टहलते देखा। देखकर भगवान्से बोला--“महाश्रमण ! यह तुम हो ?’
“यह मैं हूँ' कह भगवान् आकाशमें उड, नाव में आकर खडे हो गये।।
तब उरुवेल-काश्यप जटिलको हुआ--“महाश्रमण दिव्य-शक्ति-धारी है, ! किन्तु यह वैसा अर्हत् नहीं है, जैसा कि मैं ।"
तब भगवान्को (विचार) हुआ-- "चिरकाल तक इस मूर्ख (मोघपुरुष) को यह (विचार) होता रहेगा—कि महाश्रमण दिव्य-शक्तिधारी है; किन्तु यह वैसा अर्हत् नहीं है, जैसा कि मैं। क्यों न । मैं इस जटिल को फटकारू ?"
तब भगवान्ने उरुवेल-काश्यप जटिलसे कहा-
“काश्यप ! न तो तू अर्हत् है, न अर्हत्के मार्गपर आरूढ़। वह सूझ भी तुझे नहीं है, जिससे अर्हत् होवे, या अर्हत्के मार्ग पर आरूढ़ होवे।”

काश्यप-बंधुओं की प्रव्रज्या |
(तब) उरुवेल-काश्यप जटिल भगवान्के पैरों पर शिर रख, भगवान्से बोला- "भन्ते !
भगवान्के पाससे मुझे प्रव्रज्या मिले, उपसम्पदा मिले।”
“काश्यप ! तू पाँच सौ जटिलोंका नायक....है। उनको भी देख....”
तब उरुवेल काश्यप जटिलने....जाकर, उन जटिलोंसे कहा-“मैं महाश्रमणके पास ब्रह्मचर्य ग्रहण करना चाहता हूँ; तुम लोंगों की जो इच्छा हो सो करो।”
“पहले ही से ! हम महाश्रमण में अनुरक्त हैं, यदि आप महाश्रमण के शिष्य होंगे, (तो) हम सभी महाश्रमण के शिष्य बनेंगे” ।
वह सभी जटिल केश-सामग्री, जटा-सामग्री, खारी और घी की सामग्री, अग्निहोत्र-सामग्री (आदि अपने सामानको) जलमें प्रवाहित कर, भगवान्के पास गये। जाकर भगवान्के चरणोंपर शिर झुका बोले-“भन्ते ! हम भगवान्के पास प्रव्रज्या पावें, उपसम्पदा पावें ।”
"भिक्षुओ ! आओ धर्म सु-व्याख्यात है, भली प्रकार दुःखके अन्त करने के लिये ब्रह्मचर्य पालन करो।”यही उन आयुष्मानोंकी उपसंपदा हुई ।

नदी काश्यप जटिल ने केश-सामग्री, जटा-सामग्री, खारी और घी की सामग्री, अग्निहोत्र-सामग्री नदीमें बहती हुई देखी। देखकर उसको हुआ--"अरे ! मेरे भाई को कुछ अनिष्ट तो नहीं हुआ है, (और) जटिलोंको—
"जाओ, मेरे भाई को देखो तो (कह,) स्वयं भी तीन सौ जटिलोंको साथ ले, जहाँ आयुष्मान् उरुवेल-काश्यप थे, वहाँ गया; और जाकर बोला--“काश्यप ! क्या यह अच्छा है?"
"हाँ, आवुस ! यह अच्छा है ।
तब वह जटिल भी केश-सामग्री....जलमें प्रवाहित कर, जहाँ भगवान् थे वहाँ गये। जाकर.... बोले--"भन्ते ! हम भगवान्के पास प्रव्रज्या पावें, उपसम्पदा पावें ।’.....वही उन आयुष्मानोंकी उपसम्पदा हुई।

गया काश्यप जटिल ने केश- सामग्री नदी में बहती देखी।०.... "जाओ, मेरे भाई को देखो तो (कह,) स्वयं भी दो सौ जटिलों को साथ ले, जहाँ आयुष्मान् उरुवेल-काश्यप थे, वहाँ गया;
“काश्यप ! क्या यह अच्छा है?"
“हाँ ! आवुस ! यह अच्छा है ।” यही उन आयुष्मानोंकी उपसम्पदा हुई ।

तब भगवान् उरुवेला में इच्छानुसार विहार कर, सभी एक सहस्र पुराने जटिल भिक्षुक महाभिक्षु-संघ के साथ गयासीस गये ।

#विनयपिटक