मेरा नया जन्म हुआ


एक आकस्मिक संयोग 1 सितंबर, 1955 को दस दिन के शिविर में सम्मिलित होने के लिए मैं आश्रम पहुँचा। उससे थोड़ी दूर प्रोम रोड पर शांति स्तूप के समीप विशाल, कृत्रिम सप्तपर्णी गुफा में विभिन्न देशों के 2500 विद्वान भिक्षु तिपिटक का पारायण करते हुए छठी संगीति का पुण्य कार्य संपादन करने में लगे हुए थे। मुझे उस समय तक उसके ऐतिहासिक महत्त्व का किंचितमात्र भी ज्ञान नहीं था। यद्यपि ऊ छां ठुन ने उस बृहद धार्मिक आयोजन की एक उपसमिति का मुझे भी सदस्य बना दिया था। यह उपसमिति भोजन के प्रबंध के लिए गठित हुई थी और मुझे निरामिष भोजन का दायित्व दिया गया था। तब तक मुझे उस आयोजन के बारे में इतनी ही जानकारी थी कि ये बहुसंख्यक भिक्षु अपने धर्मग्रंथों का पाठ कर रहे हैं जो कुछ वर्षों तक चलेगा। मुझे निरामिष भोजन के प्रबंध कार्य में सदा रुचि रही है। मैं इसी कारण इस दायित्व से संतुष्ट प्रसन्न था। इस महान आयोजन की महत्ता मुझे दस दिवसीय विपश्यना शिविर पूरा करने के पश्चात ज्ञात हुई। इसके पूर्व पच्चीस सौ वर्षों में पांच बार ऐसी संगीतियां आयोजित की जा चुकी थीं जिनमें उस-उस समय के विद्वान भिक्षुओं द्वारा बुद्ध-वाणी की शोधपूर्ण प्रामाणिकता स्थापित की गयी थी। इस बार ये 2500 भिक्षु पांच अलग-अलग देशों में सुरक्षित बुद्ध-वाणी का संगायन कर रहे थे। इन देशों ने सदियों से पालि भाषा में बुद्ध-वाणी सुरक्षित रखी है। यद्यपि इन पांचों देशों की अलग-अलग लिपियां और अलग-अलग उच्चारण हैं फिर भी सब के मूल पालि कलेवर में बहुत कम असमानता है। पांच देशों के ये पच्चीस सौ विद्वान भिक्षु मूल बुद्ध वाणी का विशुद्ध प्रामाणिक रूप स्थापित करने में लगे थे। यह पच्चीस सौ वर्ष के प्रथम बुद्ध शासन का समापन और पच्चीस सौ वर्ष के द्वितीय शासन का शुभारंभ था। सयाजी ऊ बा खिन ने मुझे शिविर के पश्चात बताया कि इस द्वितीय बुद्ध शासन का प्रारंभ प्रज्ञामयी विपश्यना के प्रसारण से होगा, ऐसी पुरातन मान्यता चली आ रही है। उन्होंने कहा, अब विपश्यना यहीं नहीं, अपने उद्गम देश भारत और तदनंतर सारे विश्व में फैलेगी। दोनों बुद्ध शासनों के संधिकाल के महत्त्वपूर्ण वर्ष में मुझे विपश्यना का अनमोल रत्न मिलना एक आकस्मिक संयोग था। परंतु मेरे लिए परम सौभाग्य का अवसर था। प्रथम दर्शन – कालाम सुत्त आश्रम पहुँचते ही मुझे जो निवास स्थान मिला, वहां अपना सामान रख कर मैं गुरुदेव सयाजी ऊ बा खिन को नमस्कार करने गया। वहां मुझे एक छोटी-सी पुस्तिका मिली जिसके प्रथम पृष्ठ पर कालामसुत्त के ये बोल उद्धृत थे— “आओ कालामो! तुम लोग किसी बात को – • इसलिए मत ग्रहण करो कि हम इसे ऐसे ही सुनते आये हैं। • इसलिए भी मत ग्रहण करो कि यह हमारी परंपरागत मान्यता है जो कि पीढ़ियों से चली आ रही है। • इसलिए भी मत ग्रहण करो कि हम सदा से यही सुनते आये हैं। • इसलिए भी मत ग्रहण करो कि यह हमारे धर्मग्रंथों के अनुकूल है। • इसलिए भी मत ग्रहण करो कि यह तर्कसंगत है अथवा न्यायसंगत है। • इसलिए भी मत ग्रहण करो कि हम इस मान्यता के प्रति आसक्त हो गये हैं। • इसलिए भी मत ग्रहण करो कि इसके उपदेशक का व्यक्तित्व भव्य है। • इसलिए भी मत ग्रहण करो कि इसका उपदेशक श्रमण हमारा गुरु है, पूज्य है। जब कालामो, तुम स्वानुभूति से जान लो कि ये धर्म-उपदेश कुशलकारी हैं, निर्दोष हैं, अनुभवी, समझदार लोगों द्वारा प्रशंसित हैं और स्वानुभूति से जान लो कि संपूर्णतया ग्रहण करने से ये सर्वहितकारी हैं, सुखकारी हैं तो - कालामो, इन्हें ग्रहण करके जीवन में उतारो! गुरुदेव सयाजी ऊ बा खिन ने कहा, भगवान का व्यक्तित्व भव्य और पूज्य होने पर भी उन्होंने अपनी शिक्षा अंधविश्वास से ग्रहण करने को मना किया। अत: जो कुछ मैं सिखाऊं, उसे भी अंधविश्वास से मत ग्रहण करना। जब तुम स्वानुभूति द्वारा स्वयं देख लो कि यह सर्वथा कल्याणकारी है तो ही ग्रहण करना और उसे अपने जीवन में उतारना। बुद्ध की शिक्षा को स्वानुभूति पर उतारने के लिए ही तुम यहां आये हो। भगवान बुद्ध का और अपने गुरुदेव का यह वक्तव्य पढ़-सुन कर मैं गदगद हो गया। धन्य हैं बुद्ध जैसे धर्मगुरु और ऊ बा खिन जैसे आचार्य, जो यह कहते हैं कि इन उपदेशों को स्वयं अनुभूति पर उतार कर देखो। यदि ये कल्याणकारी सिद्ध हों तो ही ग्रहण करना । अंधविश्वास से ग्रहण मत कर लेना। अब तक सभी धर्मगुरु यही कहते आये हैं कि जो हम कह रहे हैं उसे श्रद्धा-भक्ति के साथ स्वीकार करो। उस पर जरा भी संदेह मत करो। स्वीकारने पर स्वर्ग का प्रलोभन और नकारने पर नरक का भय दिखाया जाता रहा है। जबकि यहां यह कहा जाता है कि स्वयं अनुभव द्वारा जाने बिना मेरी बात भी मत स्वीकार करना। सत्य धर्म की यह प्रस्तावना पढ़-सुनकर मैंने धन्यता का अनुभव किया। इसे अनुभव पर उतार कर बेझिझक जांचने के लिए कृतसंकल्प हुआ। पहले दिन का तूफान और शांति शिविर आरंभ हुआ। गुरुदेव ने आनापान की साधना दी और मैं आती जाती सांस के प्रति सजग रहने का अभ्यास करने लगा। पूर्वाह्न की साधना अच्छी हुई परंतु 11 बजे भोजनशाला में एकत्र हुए तब गुरुदेव ने एक-एक साधक से उसकी साधना के बारे में पूछा। शिविर में केवल पांच-सात साधक थे। उनमें से सब ने कहा कि उन्हें प्रकाश दिखा। मेरी बारी आयी। मुझे तो प्रकाश दिखा नहीं था। हां, नाक के नीचे खुजलाहट और झुनझुनाहट की बहुत तीव्र अनुभूति हुई थी, वही बता दी। भोजनोपरांत हम सभी ऊपर अपने-अपने निवास-कक्ष में चले आये। मेरा मन उदास होने लगा। मैं उन दिनों बहुत अहंकारी व्यक्ति था। इतनी कम उम्र में जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में आशातीत सफलताएं मिलती रहने के कारण मानस अत्यंत अहंकेंद्रित हो गया था। इस कारण जरा-सी भी असफलता अथवा जरा सी अनचाही घटना मेरे लिए असह्य हो उठती, दिल बैठने लगता, उदासी में डूबने लगता, गहरे अवसाद-विषाद से कुंठित हो उठता। उस समय कोई मेरे पास आता तो झुंझलाहट के मारे उस पर अकारण बरस पड़ता। अकेले निराशा में डूबे रहना चाहता। कुछ भी अच्छा नहीं लगता। अब भी यही होने लगा। ध्यान के शून्यागार में भी जाने को जी नहीं चाहे। मन पर बहुत जोर लगा कर गया तो एक दो सांस भी नहीं देख पाया। एक क्षण भी मन नहीं टिका। अवसाद-विषाद में ही डूबता चला गया। शून्यागार से शीघ्र निकल कर अपने निवास-कक्ष में वापस आ गया। कुछ देर लेटा रहा, करवटें बदलता रहा, परंतु बेचैनी बढ़ती ही रही। बार-बार मन में हीन भावना जागने लगी। पराजय के भाव जागने लगे। सोचने लगा कि मैं किस जंजाल में फँस गया। साधना तो अच्छी है। सभी साधकों को लाभ मिल रहा है। परंतु मैं यह साधना करने योग्य नहीं हूं। अन्य सभी साधक-साधिकाएं भले लोग हैं। कोई स्कूल का अध्यापक है, कोई कॉलेज का प्रोफेसर है, कोई रिटायर्ड सरकारी अफस। इनका जीवन सरल और सात्विक है। लेकिन मैं तो एक व्यापारी ठहरा। व्यापार में झूठ और छल-कपट चलता रहता है। इन सबको दिव्य ज्योति के दर्शन हो गये, मैं ही अकेला पिछड़ा रह गया। मेरे भाग्य में दिव्य ज्योति के दर्शन कहां ? ये सब योग्य पात्र हैं। अध्यात्म की ऐसी ऊंची साधना मेरे जैसे सांसारिक व्यक्ति के लिए नहीं है। इस निराशाभरे चिंतन से बहुत हतोत्साहित हो गया। मन उदासी में इतना डूबने लगा कि शिविर छोड़ने का निर्णय कर बैठा। जानता था कि शिविर के कड़े नियम हैं। मुझे जाने की अनुमति नहीं मिलेगी। परंतु गुरुदेव तो भोजन के बाद ऑफिस चले गये हैं। वे शाम को छ: बजे तक लौटेंगे। मैंने घर से कुछ आवश्यक सामान मँगाये हैं, उन्हें लेकर लगभग पांच बजे मेरी गाड़ी आयगी। मैं उसमें वापस चल दूंगा। सामान साथ में ले जा सका तो ठीक, अन्यथा दूसरे दिन ड्राइवर आकर ले जायगा। सारा सामान बांध कर, भाग निकलने की तैयारी कर बैठा।। परंतु मेरा भाग्य जागा। पुराना पुण्य उदय हुआ। मेरे निवास कक्ष के सामने से एक महिला गुजरी। वह मेरी परिचित प्रोफेसर डोम्या सैं थी। रंगून के विश्वविद्यालय में भूगोल विभाग की प्रोफेसर थी और अध्यक्षा भी। उच्च कोटि की विदुषी थी। मुझे शिविर में सम्मिलित हुआ देख कर वह बहुत प्रसन्न हुई थी। परंतु इस समय मेरे बिगड़े हुए रंग-ढंग देख कर चकित हुई और पूछ बैठी कि मैं क्यों उदास हूं। मैंने उसे सच-सच बता दिया। गुरुदेव के आने के पहले मैं घर वापस चल दूंगा। यह साधना मेरे लायक नहीं है या यों कहूं, मैं इस साधना के लायक नहीं हूं। उसने पूछा कि तुम्हारे मन में यह व्यर्थ की हीन-भावना क्यों जागी ? मैंने कहा कि अन्य सबको दिव्य ज्योति के दर्शन हो गये, मुझे नहीं हुए। अत: मुझे कोई सफलता मिलने वाली नहीं है। मैं अपना समय यहां क्यों बरबाद करूं। यह सुनकर वह हँसी। उसने कहा, भोजन के पश्चात गुरुदेव तुम्हारी साधना की बहुत प्रशंसा कर रहे थे। तुम्हें नासिका के नीचे संवेदनाओं की स्पष्ट अनुभूतियां होने लगी हैं। पहले दिन बहुत कम लोगों को ऐसा होता है। तुम भाग्यशाली हो। परंतु मैंने मन ही मन सोचा, इन संवेदनाओं में क्या पड़ा है? मुख्य बात तो दिव्य ज्योति की है। हमारी परंपरा में दिव्य ज्योति का दर्शन कितना महत्त्वपूर्ण है। उसने मुझे फिर समझाया कि गुरुजी ने तुम्हें संवेदनाओं को महत्त्व देने के लिए कहा है। प्रकाश दिख जाय तो दिख जाय। यह भी ध्यान मार्ग में एक निमित्त है, आलंबन है। परंतु इस समय हमारे लिए प्रमुख निमित्त नासिका के इर्द-गिर्द होने वाली संवेदनाएं हैं। आगे चल कर ये ही सारे शरीर में फैलेंगी और इसी से साधना सफल होगी। तुम्हारी सफलता में कोई संदेह नहीं है। उसने आग्रहपूर्वक कहा कि तुम एक रात और रुक जाओ। अगर जाना ही है तो इसका निर्णय कल सुबह करना। अब ध्यान में बैठो तो प्रकाश को बिल्कुल महत्त्व मत देना। तुम्हें नासिका के नीचे इतनी तीव्र संवेदना मिलने लगी, बस सांस के साथ-साथ उसी पर सारा ध्यान केंद्रित रखो। यही काम देगी, यही तुम्हारी प्रगति में सहायक होगी। मैंने भी सोचा, अब जाना तो हो नहीं पायगा। अत: इसकी बात मान लेता हूं। एक रात और रुकता हूं। शाम को छ: बजे शून्यागार में जा बैठा। सांस के साथ-साथ नासिका के नीचे होने वाली संवेदना पर सारा ध्यान लगाने की कोशिश करने लगा और यह निश्चय किया कि प्रकाश दिखे या न दिखे, मुझे इसकी कोई चिंता नहीं। डोम्या सैं के कहे अनुसार मैं संवेदना को ही महत्त्व दूंगा। मुझे याद आया, गुरुजी ने भी यही कहा था कि सांस और संवेदना हमारे लिए प्रमुख है। मैं दत्तचित होकर ध्यान में लग गया। मुझे यह देख कर आश्चर्य हुआ कि कुछ मिनटों के भीतर ही इस ओर ज्योति जागी, उस ओर ज्योति जागी। चारों ओर ज्योति ही ज्योति। मैंने मन को दृढ़ किया कि मुझे इस दिव्य ज्योति से कुछ लेना-देना नहीं। मुझे शरीर की संवेदना को ही महत्त्व देना है। नाक के आसपास जो संवेदना हो रही है, वही मेरी साधना का आलंबन है। थोड़ी देर बाद देखा कि दिव्य ज्योति ही नहीं, कानों में दिव्य शब्द सुनने लगा, अनहद नाद सुनायी देने लगा। एक कान के पास मानो किसी चट्टान पर बहुत बड़ा जल-प्रपात गिर रहा हो। दूसरे के पास जैसे मधुर घंटियां बज रही हों। यह दिव्य नाद भी मुझे आकर्षित नहीं कर सका। दिव्य ज्योति और अनहद नाद के बारे में मैंने बहुत पढ़ा था और उन्हें बहुत महत्त्व देता था। परंतु उस समय मैंने निश्चय किया कि इन्हें कोई महत्त्व नहीं दूंगा। मुझे साधना-पथ की यात्रा संवेदनाओं के आधार पर पूरी करनी है। ऐसे मन को दृढ़ करके संवेदनाओं पर ध्यान लगाये रखा। कुछ समय पश्चात देखा कि दिव्य ज्योति और दिव्य शब्द के अतिरिक्त कुछ एक अन्य अतींद्रिय अनुभूतियां भी होने लगी। मैं उनकी भी उपेक्षा करता रहा। संवेदना पर ही ध्यान लगा रहा। रात 9 बजे अपने शून्यागार से निकला तो मन बड़ा प्रसन्न था। दोपहर के बाद जो निराशा छा गयी थी, वह विलीन हो गयी। अब तो भागने का प्रश्न ही नहीं रहा। मैं डो म्या सैं का अपार उपकार मानता हूं जिसने मुझे रोक कर मेरा कल्याण किया। अगर मैं नासमझी से शिविर छोड़ कर भाग जाता तो ऐसे अनमोल रत्न से सदा के लिए वंचित रह जाता। जैसे मेरे मित्र ऊ छां ठुन का बहुत आभार मानता हूं कि उसने मुझे इस कल्याणकारी मार्ग पर चलने का सुझाव दिया और उसी कारण मैं इसमें प्रवृत्त हुआ, वैसे ही डो म्या सैं का बहुत आभार मानता हूं कि उसने मुझे भगोड़ा बनने से रोका और मैं दत्तचित होकर साधना में लग गया। इसी कारण अत्यंत आशातीत प्रगति होती चली गयी। दो दिन बाद विपश्यना मिली तो अभूतपूर्व अनुभव हुआ। पूरा शरीर केवल परमाणुओं का पुंज और उन परमाणुओं के पुंज में भिन्न-भिन्न प्रकार की हलन-चलन, भिन्न-भिन्न प्रकार की संवेदनाएं। जैसे मैं किसी ऐसे कौतुकागार में आ गया हूं, जिसे पहले कभी नहीं देखा था। भीतर की 'एक ऐसी दुनिया जो अब तक नितांत अनजानी रही। शरीर में विभिन्न प्रकार की अनुभूतिया सतत होती रहती हैं, यह कभी सोच भी नहीं सकता था। विपश्यना भोजन के पहले सुबह दी गयी थी। गुरुदेव ने जब चेकिंग की तो कहा, तुम्हें यह जो प्राप्त हुआ है, यह बहुत मूल्यवान है। अब तुम्हें देखना है कि यह छूटे नहीं। उन्होंने किसी एक सहायक को बुलाया और एक कंबल मँगवाया। मेरे सिर और चेहरे पर कंबल डाल कर वह धर्म सेवक मुझे शून्यागार के बाहर निकाल कर मेरे निवास कक्ष तक ले गया, ताकि मैं बाहर के किसी आलंबन के संपर्क में आकर भीतर की उस वास्तविक स्थिति को न खो दूं। मुझे अपने निवास कक्ष में ही लेटे-लेटे साधना करते रहने को कहा गया। यहीं कोई भोजन ले आयगा। भोजन करते हुए भी मैं इन संवेदनाओं के प्रति जागरूक रहूं। इसकी निरंतरता टूटे नहीं, यह ध्यान रखू। मैंने ऐसा ही किया। उठते, बैठते, चलते, लेटते, खाते-पीते हर अवस्था में अंतर्बोधिनी प्रज्ञा जागृत रहे। यों साधना में रत रहते हुए दिन पर दिन बीतते चले गये। एक से एक अजीबोगरीब अनुभूतियां होती चली गयीं। सारा मृण्मय शरीर चिन्मय हो उठा। सर्वत्र तरंग ही तरंग। कहीं ठोसपने का नामोनिशान नहीं। संपूर्ण मेरुदंड भी तरंग ही तरंगा कपाल के मानो सहस्र रंध्रों में तरंगें फूटने लगीं। सिर के मध्य से एक फव्वारा-सा छूटने लगा। शिविर समाप्त होते-होते यों लगा जैसे मनों बोझ उतर गया है। जैसे मैं हवा में उड़ सकता हूं। मानो धरती का गुरुत्वाकर्षण समाप्त हो गया है। साधना के दिनों एक बार यह भ्रम अवश्य हुआ कि मैं किसी कल्पनालोक में तो भ्रमण नहीं कर रहा। यह कल्पना नहीं है, सत्य है, इसे जांचने के लिए गुरुदेव ने एक दो उपाय बताये। उन्हें आजमा कर जाना कि सचमुच न कोई कल्पना है, न आत्म-सम्मोहन। यह भीतर की सच्चाई है। ऊपर-ऊपर अविद्या का मोटा-मोटा खोल है जिसके रहते हम इसका साक्षात्कार नहीं कर सकते। भगवान बुद्ध की इस कल्याणी विद्या के सही प्रयोग से यह ऊपर वाला खोल टूटा और भीतर एक नयी दुनिया के दर्शन हुए। ठीक वैसे ही जैसे अंडे में रहने वाला चूजा बाहर की दुनिया के बारे में क्या जाने। जब अंडा फूटता है और वह बाहर आता है तब नयी दुनिया देख कर भौचक्का रह जाता है। भीतर अँधेरे में रहते हुए कल्पना भी नहीं कर सकता कि बाहर की सच्चाई कैसी है। बिल्कुल अलग, दोनों का कोई तालमेल नहीं। ठीक यही होता है जब अविद्या का खोल टूटने से सदा बहिर्मुखी रहने वाला व्यक्ति अपने भीतर की सच्चाई देखने लगता है, उसे अनुभव करने लगता है तभी जान पाता है कि बाहर की उन स्थूल सच्चाइयों से यह बिल्कुल भिन्न है। यह खोल क्या टूटा, मुझे यो लगा कि जैसे मेरा नया जन्म हुआ, दूसरा जन्म हुआ। जैसे पक्षी का दूसरा जन्म तभी होता है जबकि वह मां के पेट से अंडे के रूप में जनमने के बाद अंडा फोड़ कर बाहर निकलता है। ठीक इसी प्रकार मैं अपनी मां के गर्भ से यह अविद्या का खोल लिए हुए जनमा और अब इस कल्याणकारी विधि ने अविद्या के खोल को तोड़ कर मुझे दूसरा जन्म दिया। मैं सही माने में द्विज बना, द्विजन्मा बना। यह दूसरा जन्म ही वास्तविक जन्म हुआ। मैं धन्य हुआ। अपनी परंपरागत मान्यताओं के अनुसार यज्ञोपवीत धारण न करने के कारण मैं अब तक शूद्र था। जब तक हमारा समाज सभी लोगों को यज्ञोपवीत धारण करने की अनुमति नहीं देगा, तब तक मैं यज्ञोपवीत धारण नहीं करूंगा; इस संकल्प के कारण अब तक शूद्र बना रहना मुझे प्रिय था। परंतु अब लगा कि मैं वास्तविक द्विज हो गया। यज्ञोपवीत धारण करने का कर्मकांड पूरा करके भला कोई द्विज कैसे बन सकता है? यहां अविद्या के अंडे का खोल तोड़ कर नया जन्म प्राप्त करके मैं सचमुच द्विज बना। मेरा कल्याण हुआ, परम कल्याण हुआ। स० ना गोयन्का (आत्म कथन भाग 2 से साभार) Mar-2019 क्रमशः ...