सम्यक संबोधि उपलब्ध होने के पश्चात सम्यक संबुद्ध ने बोधिमंड में पांचवां सप्ताह अजपाल वटवृक्ष के तले ध्यान में बिताया। यहां रहते हुए दुष्ट मार पुनः उनसे यह विवाद करने आया कि तुमने स्वयं भवमुक्त अवस्था प्राप्त कर ली है।
अब यह मुक्तिदायिनी विपश्यना विद्या औरों को सिखाने का संकल्प क्यों कर रहे हो? जब मार सम्यक संबुद्ध को अपने इस कुशल चिंतन से नहीं डिगा सका तब इस दूसरी पराजय से अत्यंत संतापित होकर गहरी निराशा में डूब गया। वह दुःखी मन से एकांत में एक ओर अकेला जा बैठा।
उसकी तीन पुत्रियों - तृष्णा, अरती (द्वेष) और रगा (राग) ने अपने पिता की यह दशा देखी तो उसे आश्वासन देते हुए कहा कि जिस बुद्ध को आप नहीं डिगा सके, उसे हम डिगायेंगी। यह दावा करके वे तीनों भगवान सम्यक संबुद्ध के समीप जा पहुँची।
वहां विभिन्न प्रकार से अपने अंग-प्रत्यंगों के प्रदर्शन द्वारा उन्हें आकर्षित करने का प्रयत्न करने लगीं। सम्यक संबुद्ध ध्यान की फल-समापत्ति में अचल बैठे रहे। उन्होंने आंखें भी नहीं खोलीं। इन युवतियों ने भिन्न-भिन्न लुभावने रूप और आकृतियां धारण कर उन्हें रिझाना चाहा। मारपुत्रियों ने तपस्वी से प्रार्थना भी की कि उन्हें सेवा का अवसर दिया जाय। लेकिन सम्यक संबुद्ध ध्यानमग्न ही बने रहे। उन पर इन कुचेष्टाओं का रंचमात्र भी प्रभाव नहीं पड़ा। अंततः वे भी हार मान कर अपने पिता के पास लौट आयीं।
महामुनि बुद्ध का निश्चय अडिग रहा । उनका अधिष्ठान नहीं टूटा । वे प्रज्ञा में पूर्णतया स्थित बने रहे। यह महामुनि स्थितधीः, यानी स्थितप्रज्ञ, इसीलिए कहलाया, क्योंकि वह वीतराग हुआ। दिव्यांगनाएं मार-पुत्रियां उसमें कामराग नहीं जगा सकीं। वह विपश्यना के प्रज्ञाचक्षु द्वारा कामराग को पूर्णतया भस्मीभूत कर चुका था।
प्रज्ञा द्वारा ही भय का मूलोच्छेदन कर वीतभय बन चुका था। भयंकर आक्रमण करने वाली मारसेना पर उसने रंचमात्र भी क्रोध नहीं किया। वह क्रोध के सारे संस्कार प्रज्ञा द्वारा उच्छिन्न कर वीतक्रोध हो चुका था। उसका मानस अपार करुणा से भर गया था। ऐसा महामुनि ही सही माने में स्थितधीः, यानी स्थितप्रज्ञ, कहलाया।
आगे उनके जीवन में एक स्थिति ऐसी आयी, जबकि मागंधीय ने उन्हें जीवन-संगिनी बनाने के लिए अपनी सर्वांगसुंदरी पुत्री प्रस्तावित की। तब भगवान ने इस प्रस्ताव को नकारते हुए कहा-
'दिस्वान तण्हं अरतिं रगञ्च, नाहोसि छन्दो अपि मेथुनस्मि।
किमेविदं मुत्तकरीसपुण्णं, पादापि नं सम्फुसितुं न इच्छेति ॥
- (सु०नि०८४१)
[ मारदेव की कन्याओं- तृष्णा, अरति और रगा को देख कर भी मेरी मैथुन की इच्छा नहीं हुई। उनकी तुलना में यह शरीर तो पेशाब, पाखाने से भरा है। इसे तो पैर से भी छूने की इच्छा नहीं होती। ]
विपश्यना पत्रिका संग्रह 2008
विपश्यना विशोधन विन्यास ॥
भवतु सब्ब मंङ्गलं !!