मिथ्या कल्पनाओं और अंधमान्यताओं पर आधारित अनेक अन्य संप्रदायवादियों की शिक्षा पर से लोगों की अंधश्रद्धा टूटने लगी। परिणामस्वरूप उनका मान-सम्मान और लाभ-सत्कार घटने लगा। यह उनके लिए असह्य हो उठा। वे ईर्ष्या और द्वेष से जल-भुन उठे। पर क्या करते? असहाय थे।
ऐसे समय उनमें से किसी को एक युक्ति सूझी कि किसीbप्रकार शील-सदाचार के क्षेत्र में बुद्ध को बदनाम कर दें तो स्थिति पलट जायगी। उनके अनुकूल हो जायगी। उनका साथ देने के लिए चिंचा नाम की एक परिव्राजिका मिल गयी। वह युवा थी, सुंदरी थी, त्रिया-चरित्र की दूषणता में निपुण थी। उसने खलनायिका की भूमिका निभायी।
वह समय-कुसमय जेतवन विहार आती-जाती और कोई पूछता तो कहती कि रात जेतवन में श्रमण गौतम के साथ, उसकी गंधकुटी में बितायी। धीरे-धीरे बात फैलने लगी। थोड़े-से लोगों में चर्चा फैला दी कि श्रमण गौतम से उसे गर्भ रह गया है। कुटिला का कुचक्र मंदगति से चल पड़ा।
आठ-नौ महीने बीतने पर अनुकूल अवसर देख कर वह जेतवन विहार में गयी। उसने गर्भिणी का मिथ्या भेष धारण किया। पेट पर एक अर्धगोलाकार छिला हुआ लकड़ी का टुकड़ा रखा। उसे रस्सियों से पूरी तरह बांध दिया। उसके ऊपर एक लाल रंग का चोला पहन लिया।
उस समय भगवान धर्मसभा में धर्मोपदेश दे रहे थे। बड़ी संख्या में भक्तों की श्रोतामंडली बैठी थी। बड़ी संख्या में भिक्षु बैठे थे। भगवान को कलंकित करने का उचित माहौल देख कर चीख-चीख कर उन्हें अपशब्द कहने लगी – “रे मथमुंडे! अपने होने वाले बच्चे के लिए तेरे पास कुछ नहीं है तो तेरे इन धनसंपन्न अनुयायियों को कह। वे कुछ प्रबंध करेंगे।"
भगवान इन मिथ्या निंदा वचनों से रंचमात्र भी विचलित नहीं हुए। शांतचित्त से करुणाभरी वाणी में बोले - “बहन, तू जो कुछ कह रही है, इसकी सच्चाई या झुठाई तू भी जानती है और मैं भी जानता हूं।"
मायाविनी ने चीखते हुए उत्तर दिया - “हां-हां, तुम्हारे उस कुकर्म को हम दो ही जानते हैं। तीसरा कौन जानेगा? कामभोग का आनंद तो एकांत में ही लिया गया । तू केवल रमण करना जानता है। गर्भ की व्यवस्था का उत्तरदायित्व निभाना नहीं जानता।"
इतना बड़ा लांछन लगने पर भी जब भगवान को अविचल रहते देखा, तब वह घबरा कर स्वयं विचलित हो उठी। पेट पर बँधी रस्सी ढीली पड़ गयी और लकड़ी का पट्टा पांव पर आ गिरा। लोगों ने उसे दुत्कारा, धिक्कारा । उसका वर्तमान बिगड़ा और भविष्य भी।
भगवान का क्या बिगड़ता! वे तो सम्यक संबुद्ध थे! अरहंत थे! स्थितप्रज्ञ थे! तुल्यनिन्दास्तुतिर्मोनी थे।
विपश्यना पत्रिका संग्रह 09, 2008
भवतु सब्ब मंङ्गलं !!