और पहचान बता कर पुत्र राहुल को कहा – “जा, अपने पिता से मिल और उनसे अपनी विरासत मांग। उनके पास स्वर्णरत्न से भरे चार घड़े हैं।”
कौन से चार घड़े थे?
ये जो चार आर्यसत्य हैं, जो कि स्वर्णरत्न से भी अधिक मूल्यवान हैं, जो कि वस्तुतः अनमोल हैं। ।
तभी कहा गया -
यं किञ्चि वित्तं इध वा हुरं वा,
सग्गेसु वा यं रतनं पणीतं।
न नो समं अत्थि तथागतेन,
इदम्पि बुद्धे रतनं पणीतं॥
(खुद्दकपाठ- ६, रतन-सुत्त- ३)
[ जो भी धन-संपत्ति यहां इस लोक में है, अथवा वहां अन्य लोकों में है और स्वर्ग में भी जो उत्तम रत्न-संपत्ति है, उनमें से कोई भी उसकी तुलना नहीं कर सकती, जो तथागत में है। ]
बुद्ध में जो रत्न है वह अतुल है, अनमोल है बुद्ध में ये चार आर्यसत्यों के अनमोल रत्न हैं जो कि उन्होंने स्वयं अर्जित किये हैं, जिसे वे लोगों को बांट रहे हैं। इन पर तेरा अधिकार है। तू इनका वारिस है। यह तेरी विरासत है। जा, मांग उनसे।
यशोधरा मन-ही-मन सोचती है, “मैं भी इस अनमोल रत्न की विरासत प्राप्त करूंगी। परंतु कई कारणों से बुद्ध ने अभी भिक्षुणीसंघ की स्थापना नहीं की है। जब भी करेंगे तब मैं भी प्रव्रजित होकर इसके चरणचिह्नों का अनुगमन करके निकल पडूंगी और अपना उद्धार कर इनके लोकहिताय अभियान में लग जाऊंगी। मेरा लाडला यहां राजमहल के वैभव-विलास में पल कर क्या प्राप्त करेगा?
अपने पिता की कल्याणी छत्रछाया में पलेगा तो सद्धर्म का अनमोल रत्न प्राप्त कर लेगा। जीवन सफल कर लेगा। यह सोचते-सोचते, उसने अपने लाडले को विदा करते हुए कहा, “जा, बेटा! अपने पिता से विरासत मांग!"
राहुल प्रसन्नचित्त से भगवान के पास पहुँचा। पहुँचते ही उसे इतनी सुखद शांति और शीतलता का अनुभव हुआ कि बरबस ही उसके मुँह से निकल पड़ा-
"सुखा ते, समण, छाया'ति।"
[ “श्रमण, तेरी छाया सुखद है।” ]
भगवान की छत्रछाया किसको सुखद नहीं लगती? उनके
सान्निध्य में सारे पाप-ताप दूर हो जाते हैं। पुत्र ने पिता की ऐसी सुखद शांतिप्रद छत्रछाया प्राप्त की। पिता ने पुत्र को धर्मरत्न की अनमोल विरासत दी। उसे सारिपुत्र के हवाले कर वहीं प्रव्रज्या दिलवायी।
धर्ममय वातावरण में पलता हुआ राहुल बड़ा हुआ और
विपश्यना साधना सीख कर, अभ्यास करते-करते अरहंत अवस्था प्राप्त कर ली। धन्य हुआ राहुल! धन्य हुई राहुल को मिली विरासत!
विपश्यना पत्रिका संग्रह 2008
विपश्यना विशोधन विन्यास ॥
भवतु सब्ब मंङ्गलं !!