पंछी यह समझते हैं कि चमन बदला है,
हँसते हैं सितारे कि गगन बदला है ।
विपश्यना की दीक्षा कहती है यह,
कि तन तो वही है, पर मन बदला है ।।
हैदराबाद (कुसुम नगर) में विपश्यना शिविर नं. 124 दिनांक 4.9.76 से 14.9.76 तक हुआ था। इस शिविर में भाग लेने का सौभाग्य मुझे पहली बार ही प्राप्त हुआ। पहले तीन दिन आनापान की (सांस के आवागमन के प्रति सजग रहने की) शिक्षा दी गयी।
इन तीन दिनों में मुझे कुछ विशेष आनंद प्राप्त नहीं हुआ। परंतु चौथे दिन से जब विपश्यना की दीक्षा प्रारंभ हुई तब से मेरी रुचि बढ़ती गयी और साधना में आनंद आने लगा।
“अब तक मैं बाहरी चीजों को देखता था, परंतु विपश्यना ने मुझे यह नयी बात सिखायी कि मैं अपने अंदर की गतिविधि मालूम कर सकू। अपने शरीर में जो मैल है उसको बाहर निकालने का तरीका मुझे विपश्यना द्वारा मालूम हुआ।
इस साधना द्वारा शरीर के अंदर का मैल साफ करने के मार्ग का ज्ञान हुआ जिसके करने से शरीर आलस्यरहित, स्वस्थ व चेतनापूर्ण होता है। स्वस्थ शरीर में रहने वाला मन भी स्वस्थ और सबल होता है। मन पर काबू पाना ही विपश्यना का प्रमुख ध्येय है, ऐसा मुझे जान पड़ा।
मन में जो राग एवं द्वेष की गांठे बंधी हैं और जिनके कारण मनुष्य दुःखी रहता है, इन्हीं गांठों को विपश्यना के द्वारा सुगमता से खोलने का मार्ग हमें बताया गया। मन को विकारविहीन कर, शांतिलाभ करने का मार्ग यही है जिस पर चलकर हमें मुक्ति प्राप्त हो सकती है।
जब मन शुद्ध हो जाता है तब हम सबको समानता से देखने लगते हैं। मन को शांति प्राप्त होती है और हम आंतरिक सुख का अनुभव करने लगते हैं। तब ही हमको जीवन का सच्चा आनंद प्राप्त होता है।
विपश्यना द्वारा हमें सच्चा जीवन जीने की कला सिखायी गयी। वहां के (शिविर के) वातावरण में (दस दिन) रहकर मेरा मन बदल गया और सच्चा जीवन बिताने की विधि-निधि प्राप्त हुई।
“विपश्यना शिविर से लौटने के पश्चात मन हल्का एवं शांत रहने लगा है। जीवन जीने का एक नया सुगम व शांतिपूर्ण मार्ग प्राप्त हुआ है। कवि के शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है:-
“पंछी यह समझते हैं कि चमन बदला है,
हँसते हैं सितारे कि गगन बदला है,
विपश्यना की दीक्षा मगर कहती है यह,
कि तन तो वही है, पर मन बदला है।"
एक साधक
पुस्तक: विपश्यना लोकमत (भाग-2)
विपश्यना विशोधन विन्यास ।।
भवतु सब्ब मगंलं !!