उस समय राजगीर के श्रेष्ठी को एक बहुमूल्य चंदन-सार का गँठीला काठ मिला। तब उसके मन में हुआ - “क्यों न मैं इस चंदनगांठ का एक पात्र खरादवाऊं और उसे किसी योग्य व्यक्ति को दान में दे दूं।”
तब उसने उस चंदन-गांठ का एक पात्र खरादवा कर छीके में रखवाया। फिर उसे एक बांस के सिरे पर टँगवाया। उसे अधिक ऊंचा करने के लिए उस बांस के नीचे एक-पर-एक कई बांस बँधवा दिये। फिर यह घोषणा करवा दी कि “जो श्रमण अर्हत हो और ऋद्धिमान हो, वह इस दान में दिये हुए चंदन के पात्र को उतारषकर ले जाय। यह उसी का है।"
राजगीर के तत्कालीन अनेक प्रसिद्ध-प्रसिद्ध आचार्य वहां आये और प्रत्येक ने श्रेष्ठी से कहा – “गृहपति! मैं अर्हत हूं, ऋद्धिमान भी हूं। मुझे पात्र दो।”
“भंते! यदि आप अर्हत हैं, ऋद्धिमान हैं, तब यह पात्र तो दान हेतु दिया हुआ ही है, उतार कर ले जायँ।” तब यह सुन कर, सभी मुँह लटका कर चल दिये।
उस समय आयुष्मान मौद्गल्यायन और आयुष्मान पिंडोल
भारद्वाज, पूर्वाह्न समय हाथ में पिंड-पात्र लेकर राजगीर में भिक्षाटन के लिये प्रविष्ट हुए। तब आयुष्मान पिंडोल भारद्वाज ने आयुष्मान मौद्गल्यायन से कहा – “आयुष्मान महामौद्गल्यायन! आप अर्हत हैं, और ऋद्धिमान भी। आप इस पात्र को उतार लाइये। यह पात्र आपके लिए ही है।” परंतु आयुष्मान मौद्गल्यायन ने इस सुझाव को स्वीकार नहीं किया।
इस पर आयुष्मान पिंडोल भारद्वाज ने सोचा, “मैं भी तो अर्हत हूं, और ऋद्धिमान भी। क्यों न मैं ही इस पात्र को उतार लाऊं।” यह निर्णय कर आयुष्मान पिंडोल भारद्वाज ने आकाश में उड़कर, उस पात्र को उतार लिया और तीन बार राजगीर की परिक्रमा करके लोगों को अपना चमत्कार दिखाया। तदनंतर आयुष्मान पिंडोल भारद्वाज पात्र-सहित अपने निवास-स्थान की ओर चल दिया।
अनेक लोग भारद्वाज की प्रशंसा के नारे लगाते हुए आयुष्मान पिंडोल भारद्वाज के पीछे-पीछे चलने लगे। भगवान ने हल्ले को सुन कर आयुष्मान आनंद से पूछा, “आनंद! यह कैसा हल्ला-गुल्ला है?
“भंते भगवान! आयुष्मान पिंडोल भारद्वाज ने राजगीर के
श्रेष्ठी के पात्र को ऊंचे से उतार लिया। लोग इसी कारण उनकी प्रशंसा के नारे लगाते हुए उनके पीछे-पीछे चले आ रहे हैं। भगवान, इसी कारण यह हल्ला है।"
तब भगवान ने इस प्रकरण को लेकर, भिक्षु-संघ को एकत्र करवा, आयुष्मान पिंडोल भारद्वाज को धिक्कारते हुए कहा - “भारद्वाज! यह अनुचित हुआ, श्रमणों के प्रतिकूल हुआ, अयोग्य हुआ, अकरणीय हुआ। भारद्वाज! लकड़ी के इस निर्जीव बर्तन के लिए कैसे तूने गृहस्थों को ऋद्धि-चमत्कार दिखाया ।
भारद्वाज! न यह अप्रसन्नों को प्रसन्न करने के लिए हुआ और न प्रसन्नों की प्रसन्नता बढ़ाने के लिए।” इस प्रकार भारद्वाज को धिक्कारते हुए भगवान ने भिक्षुओं को कहा –
“भिक्षुओ! गृहस्थों को ऋद्धि-चमत्कार न दिखाना चाहिए, जो दिखाये उसको दुक्कट (दुष्कृत) का दोष लगे।"
“भिक्षुओ! इस पात्र को तोड़ कर, इसके टुकडे-टुकड़े कर दो। भिक्षुओं को अंजन पीसने के लिये दे दो।"
भगवान ने ठीक ही रोक लगायी। किसी भी धर्माचार्य द्वारा चमत्कार-प्रदर्शन अत्यंत खतरनाक होता है। इससे कोई गैरजिम्मेदार व्यक्ति जन-साधारण को ठग सकता है, उसका अनुचित शोषण कर सकता है। धर्म का ह्रास कर सकता है। अपनी मिथ्या प्रसिद्धि स्थापित करता है। अहंकार जगा कर अपना पतन करता है।
विपश्यना पत्रिका संग्रह 2008
विपश्यना विशोधन विन्यास ॥
भवतु सब्ब मंङ्गलं !!