धर्म यात्रा के पचास वर्ष (आत्म-कथन)


एक सितंबर, 1955, मेरे जीवन का अत्यंत महत्त्वपूर्ण दिवस । माइग्रेन के सिरदर्द का असाध्य और असह्य रोग, जो मेरे सिर पर अभिशाप बन कर चढ़ा हुआ था, वही अब मेरे लिए वरदान बन गया। मैं गुरुदेव परम पूज्य सयाजी ऊ बा खिन के विपश्यना ध्यान शिविर में दस दिन के लिए सम्मिलित हुआ। शिविर में सम्मिलित होने के पूर्व की मेरी झिझक ,इस झिझक से पूर्णतया मुक्त न होने पर भी उसमें सम्मिलित होना और इस शिविर द्वारा आश्चर्यजनक रूप से लाभान्वित होना - अब यह इतिहास का एक बहुचर्चित पृष्ठ बन गया है।

मूल झिझक तो इसी बात की थी कि यह बौद्ध धर्म की साधना है। इससे प्रभावित होकर कहीं मैं अपना जन्मजात हिंदू धर्म तो नहीं छोड़ दूंगा? कहीं मैं बौद्ध तो नहीं बन जाऊंगा? यदि ऐसा हुआ तो घोर अनिष्ट हो जायगा। मैं धर्मभ्रष्ट हो जाऊंगा। मेरा घोर पतन हो जायगा। बुद्ध के प्रति असीम श्रद्धा होते हुए भी बौद्ध धर्म के प्रति अश्रद्धा ही नहीं बल्कि क्षुद्र भाव भी था। इस पर भी शिविर में सम्मिलित हुआ, क्योंकि गुरुदेव ने विश्वास दिलाया कि विपश्यना विद्या में शील, समाधि, प्रज्ञा के अतिरिक्त और कुछ नहीं सिखाया जायगा। इन तीनों के प्रति मेरे जैसे कि सी हिंदू को ही नहीं बल्कि किसी भी धार्मिक परंपरा के व्यक्ति को भी क्या एतराज होता?

शील-सदाचार का जीवन जीना, समाधि द्वारा मन को वश में करना,प्रज्ञा जगा कर चित्त को जहां तक हो सके ,विकार विहीन बना लेना - इन तीनों शिक्षाओं का कोई भी समझदार व्यक्ति विरोध कर ही नहीं सकता।और मुझे तो क्रोध और अहंकार जैसे मनोविकारों से छुटकारा पाना था, जिनके कारण तनाव भरा जीवन जीते हुए, मैं माईग्रेन का रोगी हो गया था। विकार दूर होंगे तो तनाव दूर होगा और तनाव दूर होगा तो माईग्रेन दूर होगी - यह सच्चाई मेरे लिए बहुत स्पष्ट हो चुकी थी। इसके अतिरिक्त जिस परिवार में जन्मा और जिस वातावरण में पला, उसमें दुराचरण से विरत रहना और सदाचरण में निरत रहना तथा अपने चित्त को विकारों से विमुक्त रखना -जीवन में यही आदर्श उतारने का महत्त्व सिखाया गया था। अतः जब गुरुदेव ने बताया कि भगवान बुद्ध ने यही सिखाया और विपश्यना में भी यही सिखाया जायगा, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं सिखाया जायगा, तो यह सुन कर मैं आश्वस्त हुआ था। फिर भी मन के एक कोने में थोड़ी बहुत झिझक थी ही।

बुद्ध की शिक्षा के बारे में कुछ ऐसी बातें सुन रखी थी, जिनका अनुसरण करना उचित नहीं समझता था। अत: मन ही मन यह निर्णय किया कि शिविर में मुझे केवल शील, समाधि और प्रज्ञा का ही अभ्यास करना है। इन तीनों के अतिरिक्त मुझे अन्य कुछ भी स्वीकार नहीं करना है। इस विद्या को आजमा कर देखने के लिए शिविर में सम्मिलित हुआ हूं।

इतना तो मैं समझ ही रहा था कि बुद्धवाणी में अनेक अच्छी शिक्षाएं विद्यमान हैं, तभी यह विश्व के इतने देशों में और इतनी बड़ी संख्या में लोगों द्वारा मान्य हुई है, पूज्य हुई है। परंतु इसमें जो कुछ अच्छा है, वह हमारे वैदिक ग्रंथों से ही लिया गया है। अतः इसमें जो भी हानिकारक मिलावटें हुई हैं, वे मेरे लिए सर्वथा त्याज्य रहेंगी। इसका पूरा ध्यान रखूगा।

शिविर के दस दिन पूरे होते-होते मैंने देखा कि मेरे गुरुदेव के कथनानुसार शील, समाधि और प्रज्ञा के अतिरिक्त वहां और कुछ नहीं सिखाया गया। इस विद्या के आशुफलदायिनी होने के दावे को सत्य होते देखा। दस दिन के अभ्यास से ही मन के विकार निकलने आरंभ हुए। इससे तनाव दूर होना आरंभ हुआ और फलस्वरूप माइग्रेन का भयंकर रोग दूर हुआ जो कि मानसिक तनाव के परिणामस्वरूप ही मुझे दुःखी बनाये रखता था। माइग्रेन के लिए ली जाने वाली अफीम की दुःखदायी सूई से भी सदा के लिए छुटकारा मिला । नींद के लिए बहुधा ली जाने वाली नशीली दवाओं से भी सदा के लिए मुक्ति मिली। जिन विकारों के जागने से मन व्याकुलता से भर जाया करता था, अब विपश्यना के दैनिक अभ्यास के कारण वे क्षीण होने लगे। सबसे बड़ी जानकारी यह हुई कि इस विद्या में मुझे कोई दोष नजर नहीं आया। सर्वथा निर्दोष ही निर्दोष । कोई हानि नजर नहीं आई। सर्वथा लाभदायी ही लाभदायी।

पहले ही शिविर में मुझे विपश्यना इतनी शुद्ध लगी कि जहां तक साधना का प्रश्न है मुझे किसी दूसरी ओर देखने तक की आवश्यकता नहीं रही। मेरी आध्यात्मिक खोज का पूर्ण समाधान हो गया। मैं इस विद्या में पकने के लिए सुबह-शाम नित्य नियमित एक-एक घंटे ध्यान करता रहा और साथ-साथ साल में कम से कम एक बार दस दिन का शिविर लेता रहा । कभी एक महीने का लंबा शिविर भी लिया, जिससे कि यह विद्या स्वानुभूति द्वारा गहराई से समझ में आने लगी। यह नितांत न्यायसंगत और धर्मसंगत लगी, व्यावहारिक और वैज्ञानिक लगी। इसमें अंधविश्वास के लिए रंचमात्र भी अवकाश नहीं दिखा। गुरुदेव कहते हैं या बुद्ध ने कहा है या तिपिटक में लिखा है इसलिए अंधश्रद्धा से मान लेने का कही कोई आग्रह नहीं। जो कहा गया उसे बुद्धि के स्तर पर समझो और फिर अनुभूति के स्तर पर जानो, तब स्वीकार करो। बिना जाने, बिना समझे, बिना अनुभव किये, अंधेपन से स्वीकार मत करो।

आर्यसमाज ने मुझे बुद्धिवादी बनाया और अंधविश्वासों से दूर हटाया। यही जीवन की एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी। पर विपश्यना तो इससे कहीं आगे बढ़ गयी। बुद्धिजन्य शुष्क दार्शनिक विवादों और आर्द्र भक्ति के भावावेश से विमुक्त कर, इसने मुझे आध्यात्मिक क्षेत्र का यथार्थ अनुभव करना सिखाया। जितना-जितना सत्य अनुभूति पर उतरा, उतना-उतना स्वीकारते हुए आगे बढ़ता गया और उससे सूक्ष्मतर सत्यों को अनुभूति पर उतारता गया। जितना-जितना अनुभूति पर उतरा, उसे स्वीकारते हुए यह जांचता गया कि मनोविकार दुर्बल हो रहे हैं या नहीं! उनका निर्मूलन हो रहा है या नहीं! वर्तमान के प्रत्यक्ष सुधार को महत्त्व देने वाली यह शिक्षा युक्तियुक्त लगी। यह स्पष्ट समझ में आने लगा कि वर्तमान सुधर रहा है तो भविष्य अपने आप सुधरेगा। लोक सुधर रहा है तो परलोक सुधरेगा ही। यह भी खूब समझ में आने लगा कि अपने मन कोमैला करने की शत प्रतिशत जिम्मेदारी स्वयं अपनी है। कोई बाह्य अदृश्य शक्ति इसे क्यों मैला करती भला? अत: इसे सुधारने का दायित्व भी शतप्रतिशत अपना ही है। गुरु की कृपा इतनी ही कि उसने बड़ी करुणा से हमें मार्ग आख्यात कर दिया। कदम-कदम चलना तो स्वयं हमें ही पड़ेगा। कोई अन्य हमें कंधे पर उठा कर मुक्त अवस्था तक पहुँचा देगा, इस धोखे से सर्वथा मुक्ति मिली। यह सच्चाई अनुभूति के स्तर पर स्पष्ट होती चली गयी।

इस विद्या ने अदृश्य देवी-देवताओं के प्रति घृणा या द्वेष । जगाना नहीं सिखाया, बल्कि उनके प्रति मैत्रीभाव रखना सिखाया। “अपनी मुक्ति अपने हाथ, अपना परिश्रम अपना पुरुषार्थ" के भाव ने अहंभाव नहीं जगने दिया बल्कि अपनी जिम्मेदारी के प्रति विनम्र सजगता ही जगायी। परावलंबन के स्थान पर स्वावलंबी होने का बोध कल्याणकारी लगा। “स्वावलंब की एक झलक पर, न्यौछावर कुबेर का कोष”; किसी कवि के ये बोल स्मरण होते ही तन-मन पुलकायमान हो उठा। अत: जहां तक साधना का प्रश्न है, संदेह के लिए रंचमात्र भी गुंजाइश नहीं रही। संदेह होता भी क्यों? प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या? प्रत्यक्ष लाभ जो हो रहा था। जीवन ही बदल गया। जैसे एक नया जन्म हुआ।

सन 1954 पच्चीस सौ वर्ष के प्रथम बुद्ध शासन का अंतिम वर्ष था। इसी वर्ष मैं पहली बार बुद्ध शासन के संपर्क में आया। निरामिष भोजन के प्रबंध के लिए मुझे छट्ठ संगायन की भोजन प्रबंधक समिति में मनोनीत किया गया । सन 1955 पच्चीस सौ वर्ष के द्वितीय बुद्ध शासन का प्रथम वर्ष था। इसी वर्ष मुझे विपश्यना विद्या प्राप्त हुई। लगता है कि द्वितीय बुद्ध शासन को आरंभ करने वाला यह प्रथम वर्ष मेरे सौभाग्य का सूर्योदय बन कर आया और प्रथम बुद्ध शासन का अंतिम वर्ष मेरे लिए इस भाग्योदयी सूर्य के शुभागमन की पूर्व सूचना देता हुआ प्रत्यूष की लालिमा लेकर आया। धर्म यात्रा के इन पचास वर्षों ने मेरे जीवन को सार्थक बनाया, सफल बनाया। मैं धन्य हुआ। शेष जीवन धर्म को ही समर्पित रहे।

धर्मपथिक सत्य नारायण गोयन्का


Premsagar Gavali

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