(अगस्त 1979 में 'विपश्यना' में प्रकाशित यह लेख नए साधकों के लाभार्थ पुनर्मुद्रित)
पावस की रमणीय ऋतु आयी। धम्मगिरि का पर्वत-प्रदेश प्रकृति की भुवन-मोहिनी मनोरमा से महिमामंडित हो उठा। ग्रीष्म के उत्ताप से उत्तप्त शैल-शिलाएं पिघल-पिघलकर बहने लगी। सह्याद्रि पर्वत द्रवीभूत हो उठा। शिखर शृंगों से अनेकानेक झरने फूट पड़े। वर्षा के जल से शुष्क धरती तराबोर हो उठी। नीची भूमि ताल-तलैयों सी भर उठी। ऊंची मुलायम मखमली घास सी तरु-तृणों की हरीतिमा, पुष्प-पल्लवों की रंगीनियां, पर्वतीय पृथ्वी का साज-शृंगार। करने की होड़ में लग गयीं। अकिंचन आकाश शून्यता के दारिय से उन्मुक्त हुआ। दिशाओं के ओर-छोर तक नीर भरे नीरद ही नीरद, पर्जन्य ही पर्जन्य भर गए। मेघ-मालाओं की संपद्-संपन्नता से, श्री-समृद्धि से गगनमंडल की गरिमा गौरवान्वित हो उठी। कहीं रिक्तता नहीं, क्षुद्रता नहीं, सूनापन नहीं, उदासी नहीं, मायूसी नहीं। धरती और आकाश पर सर्वत्र वैभव विलास, उल्लास-उमंग और वर्षा का मंगल उत्सव ही उत्सव।
उन्मुक्त अठखेलियां करती हुई प्रकृति का आमोद-प्रमोद असीम हो उठा। पल-पल परिवर्तित। अभी कोमल, अभी कठोर।। अभी सूक्ष्म, अभी स्थूल । समीपवर्ती खेतों में उगी हुई घास में । मनोमुग्धकारी लहरियां पैदा करता हुआ और खुशियों की किलकारियां भरता हुआ पवन, देखते-देखते अट्टहास करते हुए प्रबल प्रभंजन का रूप धारण कर लेता है और उत्तर की ओर स्थित सह्याद्रि पर्वत पर से गिरने वाले जल-प्रपातों की जल-राशि से कंदुक -क्रीड़ा करने लगता है। उसे आकाश की ओर उछालता है। वर्षा की श्रुति-मधुर रिम-झिम कि सीदिव्य अप्सरा के नर्तन-थिरक नसे निःसृत नूपुर पायलों की-सी रुनन-झुनन पैदा करती है। और यकायक इसी मधुर झंकार के बीच दक्षिणी क्षितिज से एक भीम-भैरव गड़गड़ाहट आती है और सारे अंतरिक्ष को प्रकंपित करती हुई, उत्तर के सह्याद्रि पर्वत को पार कर जाती है। पृथ्वीतल पर दादुर मंडली का समवेत सुर-आलाप चलता है और इसी बीच अचानक दिल-दहला देने वाली कर्णभेदी बिजली कड़क उठती है। दिन दोपहर में भी सारे वातावरण पर निविड़ निशा की-सी तमिना चादर तनी रहती है और क्षण भर में समग्र धरती और आकाश विद्युत की चपल चमक से चौंधिया उठता है। यूं प्रकृति क्षण-क्षण अपना वेश बदलती रहती है। इस गिरिप्रदेश की विस्तृत रंगभूमि पर नियति-नटी नई-नई नृत्य मुद्राएं, नई-नई भाव-भंगिमाएं प्रकट करती रहती है। नई-नई वेशभूषा, नई-नई साज-सज्जा, नई-नई सीन-सीनरियां, नए-नए वाद्य-वृन्द प्रकट करती रहती है। पावस के वैभव में धम्मगिरि के पर्वत प्रदेश का संपूर्ण परिवेश प्रतिपल प्राणवंत बना रहता है।
और ऐसे में शांति पठार का धर्म चैत्य मानो बांह पसार कर साधकों का आह्वान करता हुआ कहता है – “आओ, ऐ दुनियावी दुःख-दर्द से प्रपीड़ित मानवो! आओ! मेरी शांतिदायिनी गोद में आओ! मेरे अंक में समाओ! मेरे भीतर गिरि-गुहाओं सदृश इन नवनिर्मित शून्यागारों में शरण लो। पालथी मार कर, कमर सीधी करके बैठो। प्रकृति का जो प्रपंच बाहर देखा है, अब उसे भीतर देखो। अंतर्मुखी होकर यथाभूत दर्शन करो! प्रत्यक्षानुभूति द्वारा अनित्य बोध जगाओ! विपश्यना करो! विपश्यना करो! विपश्यना करो!और अपना मंगल साधो!
सचमुच पावस ऋतु और पर्वतप्रदेश ध्यान के लिए अत्यंत उपयुक्त है। ऐसे में ध्यान का आनंद स्वभावतः अपरिमित हो उठता है। बुद्धकालीन विपश्यी साधकों के हृदयोद्गार पावस ऋतु में पर्वत पर ध्यान करने की प्रबल प्रेरणा प्रदान करते हैं। ऐसा एक साधक अपना प्रत्यक्ष अनुभव प्रकट करता हुआ कहता है -
यदा नभे गज्जति मेघदुन्दुभि, धाराकु ला विहगपथे समन्ततो।
भिक्खू च पदभारगतोव झायति, ततो रतिं परमतरं न विन्दति॥
थेरगाथा - ५२२ –
जब गगन में मेघ-दुन्दुभि बज रही हो, समग्र विहगपथीय आकाश जलधारा ही जलधारा से भर उठा हो, ऐसे समय जब कोई साधक गिरि-गह्वर में ध्यान करता है तो चित्त-एकाग्रता से प्राप्त उस परम आनंद से बढ़कर और कोई आनंद नहीं होता।
पार्वतीय पावस साधक को सदा प्रिय लगता है, क्योंकि ऐसे मनोरम वातावरण में मन खूब ध्यानस्थ होता है। एक साधक अपने अनुभव का उद्गार प्रकट करता हुआ कहता है -
अभिवुट्ठा रम्मतला, नगा इसिभि सेविता।
अन्भुन्नदिता सिखीहि, ते सेला रमयन्ति मं॥
थेरगाथा - १०६८
मयूरों के कूजन से अभिगुंजित, ध्यानी ऋषियों द्वारा सेवित, वर्षाजल से सिंचित रमणीय पर्वत-प्रदेश मुझे अत्यंत प्रिय है।
सचमुच पावस की ऋतु और पावन पर्वतीय तपोभूमि एकांत ध्यान के लिए अत्यंत अनुकूल होती है। तभी तो साधक कामन ऐसी सुविधा के लिए लालायित हो उठता है। पूर्वकाल के एक ध्यानी की ललक है -
क दा नु मं पावुसकालमेघो, नवेन तोयेन सचीवरं बने।
इसिप्पयातम्हि पथे वजन्तं, ओवस्सते तं नु क दा भविस्सति ॥
थेरगाथा - ११०५ –
ऋषियों के चले हुए आर्यमार्ग का अनुसरण करते हुए (विपश्यना ध्यान करते हुए) मेरे वस्त्र वर्षा के नवल जल से कब भीगेंगे? मेरी यह मंगल अभिलाषा कब पूरी होगी?
बरसती वर्षा के समय गड़गड़ाते बादलों के तले ध्यानगुहा में एका विहार करते हुए साधक को कितना संतोष अनुभव होता है -
देवो च वस्सति देवो च गळगळायति।
एक को चाहं भेरवे बिले विहरामि॥
थेरगाथा - १८९ –
पर्जन्यदेव बरसता है, पर्जन्यदेव गड़गड़ाता है और मैं एकाकी भैरव-गुहा में विहार करता हूं।
ऐसे समय साधक अपने चित्त को उत्साहित करता है कि हे चित्त तुम -
...पब्भारकुट्टे पक तेव सुन्दरे।
नवम्बुना पावुससित्थक नने।
तहिं गुहागेहगतो रमिस्ससि ॥
थेरगाथा - ११३८ –
प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर पर्वत प्रदेश में पावस ऋतु के नवल जल से सिंचित वन में, किसी गिरि-गुहा को घर बना कर रमो गे और
मिगो यथा सेरि सुचित्तकानने, रम्मं गिरिं पावुसअभमालिनि ।
अनाकु ले तत्थ नगे रमिस्सं, असंसयं चित्त परा भविस्ससि ॥
थेरगाथा - ११४७
जिस प्रकार सुंदर कानन में उन्मुक्त मृग विचरण करता है उसी प्रकार पावस ऋतुकी मेघमालाओं से रमणीय पर्वत पर आकर तुम व्याकुलता-मुक्त होकर रमण करोगे और ऐ मेरे चित्त! निःसंदेह तुम भव-पार हो जाओगे।
भव पार होने के लिए ही तो एकांतीय पर्वतवास है, क्योंकि वर्षा ऋतु में सम्यक रूपेन ध्यान करने पर -
यथा अब्भानि वेरम्भो, वातो नुदति पावुसे।
सा मे अभिकि रन्ति, विवेक पटिस ता॥
थेरगाथा – ५९८
-जिस प्रकार पावस ऋतु में झंझावात मेघों को उड़ा ले जाता है, उसी प्रकारमेरे चित्त से भव-संज्ञा दूर होती है और मन निष्कामता से भर उठता है।
यह पावस के ध्यान की ही महिमा है कि –
धरणी च सिञ्चति वाति, मालुतो विज्जुता चरति नभे।
उपसमन्ति वितक्का, चित्तं सुसमाहितं ममा॥
थेरगाथा - ५० –
वर्षा धरती को सींच रही है, हवा बह रही है, आसमान में बिजली चमक रही है, ऐसे में ध्यान करते हुए मेरा मन वितर्क-विहीन हो गया है। मेरा चित्त सुसमाहित हो गया है।
परम आनंद की उपलब्धि होती है ऐसी ध्यान भावना में। तभी तो किसी विदर्शी विपश्यी ने हर्षोद्गार प्रकट करते हुए कहा –
यदा निसीथे रहितम्हि कानने, देवे गळन्तम्हि नदन्ति दाठिनो।
भिक्खू च पब्भारगतोव झायति, ततो रतिं परमतरं न विन्दति ॥
थेरगाथा - ५२४ –
जब वर्षा के बादल गड़गड़ाते हों - जैसे हाथी चिंघाड़ते हों और कोई साधक पर्वत गुफा में ध्यान भावना करता हो, तब उसे जिस परमानंद का अनुभव होता है, उससे बढ़क रऔर कोई आनंद नहीं होता।
सममुच “सब्बरतिं धम्मरति जिनाति" -सारे आनंदों से बढ़कर धर्म का आनंद है।
इसी आनंद के लिए ही तो वर्षाकाल और एकांत गुहा के ध्यान का महत्त्व है। इसी के लिए विपश्यी साधक धर्म कामना करताहै -
क दा नुहं पब्बतक न्दरासु, एकाकि यो अदुतियो विहस्सं ।
अनिच्चतो सब्बभवं विपस्सं, तं मे इदं तं नु क दा भविस्सति॥
थेरगाथा - १०९४
मैं पर्वतगुहा में, बिना किसी दूसरे के , कब अकेला विहार करूंगा? कब सारे संसार के प्रति अनित्यबोधिनी विपश्यना करूंगा? मेरी यह धर्म अभिलाषा कब पूरी होगी?
अनित्य बोधिनी विपश्यना के लिए ही शांतिपठार के धर्म चैत्य का धर्म-आह्वान है -
“आओ, जो बाहर है उसे ही भीतर देखो। यथाभूत देखो, यथातथ्य देखो, यथास्वभाव देखो। अनिच्चावत सङ्खारा, अनिच्चावत सङ्कारा । अनिच्च, अनिच्च, अनिच्च । अनित्य है, अनित्य है, अनित्य है। जो बनता है, वह बदलता ही है!"
बाहर आकाश में बादल उमड़ते-घुमड़ते हैं। उपवन में पवन आन्दोलित होता है। वृक्ष झूमते हैं। टहनियां झूलती हैं। पत्ते फरफराते हैं। दूर्वादल लहलहाते हैं। सर्वत्र अस्थिरता ही अस्थिरता नजर आती है। इसी प्रकार भीतर भी सर्वत्र अस्थिरता ही अस्थिरता, आन्दोलन ही आन्दोलन, हलन-चलन ही हलन-चलन महसूस होती है। बाहर उत्तर की ओर के सह्याद्रि पर्वत की खड़ी चट्टानी दीवार से झर-झर झरने झरते हैं। इसी प्रकार भीतर भी अनित्य बोधिनी चैतन्य गंगा सिर से पांव तक झरझराती रहती है। बाहर सारी धरती पर बूंदा-बांदी हो रही हैं। भीतर भी इसी प्रकार स्पन्दनों की बूंदा-बांदी चल रही है। बाहर के ताल-तलैयों पर वर्षाजल के बुदबुदे बनते हैं
और तुरंत नष्ट हो जाते हैं । भीतर भी इसी प्रकार बुदबुदे उत्पन्न होते हैं और प्रतिक्षण नष्ट होते हैं। बाहर बहती हुई जलधाराओं में नन्हीं-नन्हीं ऊर्मियां लहराती चलती हैं। भीतर भी इसी प्रकार लहरियां ही लहरियां, ऊर्मियां ही ऊर्मियां, उत्पाद-व्यय ही उत्पाद-व्यय, उदय-व्यय ही उदय-व्यय – “यतो यतो सम्मसति, खन्धानं उदयब्बयं"। बाहर धनीभूत बादल छा जाते हैं, भीतर भी भावावेश का घना कुहरा छा जाता है। बाहर देखते-देखते बादलों की सघनता विदीर्ण होती है। हवा उन्हें तितर-बितर कर देती है। इसी प्रकार भीतर भी अनित्य-बोधिनी प्रज्ञा का पवन भावावेश की घनसंज्ञा को विदीर्ण करता है। बाहर बादल हटते ही शून्य आकाश की वास्तविकता प्रकट होती है। भीतर भी इसी प्रकार संस्कारों के बादल फटते ही माया दूर होती है और यथार्थ का शून्याकाश प्रकट होता है। जैसे बाहर का आकाश बादलों से मुक्त हो जाता है, वैसे ही भीतर का चित्ताकाश आस्रवों से मुक्त हो जाता है। धुल कर नितांत विरज-विमल हो जाता है।
यूं बाहर से भीतर की ओर प्रवेश करते हुए विपश्यी साधक को प्रभूत प्रेरणा मिलती है। जब उसका चित्त विपश्यना से पूरी तरह सुभावित हो जाता है तो वह देखता है कि -
यथा अगारं सुच्छन्नं, वुड्डी न समतिविज्झति।
एवं सुभावितं चित्तं रागो न समतिविज्झति ॥
थेरगाथा - १३४
उसके चित्त में राग नहीं पैठ सकता,ठीक वैसे ही जैसे कि ठीक से छाई हुई छत में वर्षा का जल प्रवेश नहीं पा सकता।
और ऐसी सुस्वस्थ चित्त अवस्था में विपश्यी साधक उन्मुक्त होकर गा उठता हैं -
छन्ना मे कु टिका सुखा निवाता, वस्स देव यथासुखं ।
चित्तं मे सुसमाहितं विमुत्तं, आतापी विहरामि वस्स देवा ॥
थेरगाथा - १
मेरी कुटी छायी है, सुखदायी है, हवा-पानी से सुरक्षित है, पर्जन्य देव! अब तुम चाहो तो जी भर कर बरसो! मेरा चित्त सुसमाहित है, राग से विमुक्त है। मैं तापस जीवन जीता हूं। बरसो! बरसो! हे पर्जन्य देव! अब तुम चाहो तो जी भर कर बरसो!!
धन्य है पावस ऋतु!धन्य है पर्वत प्रदेश! धन्य है परिवर्तनशील प्रकृति! धन्य है धम्मगिरि! धन्य है तपोवन! धन्य है शांतिपठार! धन्य है धर्म-चैत्य और धर्म-चैत्य की ध्यान गुफाएं! धन्य है विपश्यना साधना, जिसे साध कर धन्य हो उठते हैं विपश्यी साधक !! सब का मंगल हो! सब का कल्याणहो!!
कल्याणमित्र,
स. ना. गो.
July 2005