विपश्यना साधना और इसके लाभ (भाग-1)



(28 जून 1987 को हैदराबाद के गांधी दर्शन हॉल में पुराने साधकों के लाभार्थ दिया गया पूज्य गुरुजी का प्रवचन)

प्रिय साधक-साधिकाओ,

आज यहां इसलिए एकत्र हुए हैं कि साधना कैसे कर सकें? और फिर यह समझें कि नित्य नियमित रूप से साधना करना हमारे लिए क्यों आवश्यक है, और इसका छूट जाना हानिकारक क्यों है? रोज-रोज की साधना को कायम रखने के लिए हम क्या करें?

अनेक साधकों की ओर से शिकायत आती रहती है कि साधना तो बहुत अच्छी लगी, जब तक करते रहे इससे बहुत लाभ भी हुआ, पर क्या करें, हमारी तो रोज-रोज की साधना छूट गई । बर्मा में रहते हुए देखा कि पूज्य गुरुदेव के साथ साधना करने वाले अनेक लोग इसी तरह की शिकायत एवं अपने मन की कमजोरी प्रकट करते रहते थे।

यहां भी इतने वर्षों से विपश्यना ध्यान चला है तो यह कमी बार-बार सामने आती है। अपने स्वयं के अनुभव से भी जानता हूं कि साधक अपने मन को दृढ़ करे कि चाहे जो कुछ हो जाय, मुझे सुबह-शाम 24 घंटे में दो बार तो साधना करनी ही है, चाहे मेरी कितनी ही बड़ी हानि क्यों न हो जाय। और हानि कभी नहीं होती। अरे हम मंगल के मार्ग पर कदम उठाएं और हानि हो यह असंभव बात है मन की भ्रांति है। मन को दृढ़ करेंगे तो यह भ्रांति दूर हो जायगी।

साधना कैसे करें? साधना क्यों कर रहे हैं? इसका क्या लाभ है? यह किस प्रकार की साधना है? इसे अच्छी प्रकार हृदयंगम कर लेना चाहिए, खूब गहराइयों से समझ लेना चाहिए। ऐसा हो नहीं सकता कि मन तो मैला रहे और हम व्याकुलता से बच जाएं, बच ही नहीं सकते। मन मैला हुआ कि हम व्याकुल हुए। और यदि मन के मैल को निकालने का कोई काम नहीं किया तो व्याकुलता को कायम रखने लगे।

फिर तो स्वभाव हो गया, जैसे गलियों में खेलने वाले बच्चे, या गरीब बस्तियों में रहने वाले लोगों को देखा होगा, शरीर गंदा है तो गंदा है, उसको नहीं साफ करते । कपड़ा गंदा है तो गंदा है, उसे नहीं साफ करते। अपने आप को सदा स्वच्छ रखने वाला व्यक्ति उनकी दशा को देखकर समझता है कि बड़ी दयनीय दशा है इनकी, देख बेचारे कितनी गंदगी में रहते हैं। लेकिन उन्हें वह गंदगी ही नहीं लगती । क्योंकि आदत पड़ गई है, स्वभाव हो गया है।

ऐसे ही मन को सदा गंदा रखने का स्वभाव बना लिया, तो गंदगीbमें रहना, गंदगी जैसा लगता ही नहीं। विकार जागते हैं उसी में लोट- पलोट लगाते हैं, व्याकुल होते हैं, दुखियारे भी होते हैं फिर भी उसी में लोट-पलोट लगाते हैं। अरे हमने अपनी क्या हालत बना ली भाई! जिस व्यक्ति ने कभी अपने भीतर झांक कर सच्चाई नहीं देखी, उस बेचारे को तो क्या कहें? वह समझता ही नहीं कि मेरा मन मैला हुआ और मैला मन होने की वजह से मैं व्याकुल होता हूं।

क्योंकि उसने अपने भीतर कभी सच्चाई देखी ही नहीं। वह जब-जब व्याकुल होता है तो समझता है कि बाहर की कोई घटना घटी इसलिए व्याकुल हुआ। कोई अनचाही बात हो गई, कोई मनचाही बात नहीं हुई, किसी ने कोई अप्रिय बात कह दी, कोई अप्रिय काम कर दिया, इसलिए मैं व्याकुल हो गया। बेचारे को समझ में ही नहीं आता कि किसी ने कुछ कह दिया, कुछ कर दिया, वह तो बाहर-बाहर की बात हुई न, तूने तो अपने भीतर विकार जगाया इसलिए व्याकुल हुआ । नहीं विकार जगाता तो कैसे व्याकुल होता?

बाहर की घटना चाहे जैसी हो, हम उसे मुस्कुरा कर देखें कि यह भी अनित्य है, सदा रहने वाली नहीं है, तब हम नहीं व्याकुल होते, क्योंकि हमने विकार नहीं जगाया। विकार जगाये कि व्याकुल हुए। बाहर की किसी घटना के कारण व्याकुल नहीं हुए, बाहर के किसी व्यक्ति के कारण नहीं हुए, बाहर की किसी वस्तु के कारण नहीं हुए। बिल्कुल नहीं। हमने जो अंध प्रतिक्रिया की उसके कारण व्याकुल हुए, क्योंकि अंध प्रतिक्रिया करने की आदत बना ली है। मनचाही बात हो तो राग की प्रतिक्रिया, अनचाही बात हो तो द्वेष की प्रतिक्रिया।

किस स्वभाव शिकंजे में हमारा मन जकड़ गया, गुलाम हो गया। जब देखो तब राग ही पैदा करेगा, द्वेष ही पैदा करेगा। और राग-द्वेष पैदा करेगा तो गांठें बांधेगा, तनाव पैदा करेगा.. व्याकुल होगा ही। जो अपने भीतर इस सच्चाई को देखने लगा वह धर्म को देखने लगा, कुदरत के कानून को देखने लगा, विश्व के विधान को देखने लगा।

विपश्यना का एक भी शिविर समझदारी से कर ले, तो यह बात समझ में आनी ही चाहिए कि मेरी व्याकुलता का कारण मैं स्वयं हूं, कोई दूसरा नहीं। रात-दिन व्याकुल होते रहता हूं, कभी इस बहाने को लेकर, कभी उस बहाने को लेकर । सच्चाई तो यह है कि विकार पैदा करता हूं इसलिए व्याकुल होता हूं। शरीर मैला हो जाय तो उसे तुरंत धोकर साफ कर लेता हूं, कपड़ा मैला हो जाय तो उसे तुरंत धोकर साफ कर लेता हूं। अरे, मन में विकार जगाया तो मन मैला
हुआ न, और साफ करना भूल गया। इस गंदगी में रहने की आदत पड़ गई तो व्याकुलता में रहने की आदत पड़ गई।

ऐसा व्यक्ति व्याकुलता के बाहर कैसे निकलेगा भाई। विपश्यी साधक को यह बात खूब समझनी चाहिए। नहीं समझता है तो विपश्यना के शिविर का जो लाभ मिलना चाहिए वह लाभ इस व्यक्ति को नहीं मिला। दस दिनों का कर्मकांड करके आ गया, और घर में यदि सुबह-शाम करता भी है तो कर्मकांड ही करता है। अरे, सार की बात नहीं पकड़ में आई न ।

मैं अपने मन को मैला करूं और उसे जल्दी से जल्दी साफ न कर लूं तो बीमार हो गया न, रोगी हो गया न, दुखियारा हो गया न । सांसारिक जीवन जीते हुए जब तक इतने पके नहीं तब तक तो ऐसा होगा ही कि बार-बार विकार जगायेंगे, बार-बार अपने को व्याकुल करेंगे। क्या करें, ऐसे कीचड़भरे वातावरण में रहते हैं।

अच्छा भाई किया ऐसा, दिन भर विकार जगाया, व्याकुल हुए विकार जगाया, व्याकुल हुए। अरे, अब शाम को तो थोड़ी देर बैठ कर सफाई कर दें। रात को विकार जगाया, व्याकुल हुए, विकार जगाया, व्याकुल हुए। अरे! सुबह होते ही जैसे नहाते हैं, कपड़ों को साफ करते हैं वैसे ही मन को एक घंटे सुबह भी साफ करें न! नहीं तो आज का दिन फिर दुःखों में बीतेगा, व्याकुलता में बीतेगा, फिर वही विकार बढ़ाते जायेंगे, बढ़ाते जायेंगे, विकार को साफ नहीं करेंगे तो और अधिक दुःख बढ़ायेंगे।

यह बात जिसकी समझ में जितनी जल्दी आ जाय, उतनी जल्दी उसे अपने दुःखों से बाहर निकलने का रास्ता मिल जाय। अक्सर जो लोग सुबह शाम की साधना छोड़ते हैं तो यही दो-चार कारण होते हैं। कभी-कभी कोई कहता है, "क्या करें? आज बड़ा आलस आ गया, इसलिए छूट गई।" आलस आ जाता है तो क्या भोजन छोड़ देते हो? शरीर को आहार देना बंद कर देते हो? देते हो न, भोजन देना नहीं बंद करते न! हजार आलस आया भोजन के वक्त तो भोजन की थाली लेकर बैठ गए। आहार जरूरी है।

अरे, मन को भी तो सात्त्विकता का आहार जरूरी है। इसको इतना महत्त्व नहीं दिया न, बात समझ में नहीं आई न । आलस के मारे इसे छोड़ दिया। हजार आलस आया हुआ है फिर भी समय पर नहाया, कपड़े भी धोए, पर साधना छोड़ दी। क्योंकि मन के मैल को महत्त्व नहीं दिया। मन का मैल, उसकी जो लोट-पलोट लगाते रहने की आदत है, उसे छोड़ना होगा भाई। और यह सोचे कि मन मैला है तो क्या
हुआ, तो नहीं महत्त्व दिया इस मारे ऐसा हुआ।

कभी-कभी कहता है कि आज तो बहुत काम हो गया मुझे । इतना व्यस्त रहा काम में कि क्या करूं आज की साधना छूट गई। कितना व्यस्त रहा भाई तू? इतना व्यस्त रहा कि भोजन भी नहीं किया? नहीं-नहीं भोजन तो किया । तो भोजन के लिए समय निकाल लिया। यानी, शरीर के आहार के लिए तो समय निकाला और मन के आहार के लिए समय नहीं निकाल पाया। इतना व्यस्त हो गया, शरीर को स्वच्छ करने के लिए समय निकाल लिया, लेकिन मन को स्वच्छ करने के लिए समय नहीं निकाल पाया। मुख्य बात यह कि महत्त्व ही नहीं दिया। बात समझा ही नहीं।

अरे, मन मैला किया है तो आज नहीं तो कल साफ कर लेंगे, नहीं तो परसों कर लेंगे। अरे भाई, कर लेंगे, कर लेंगे... । शरीर को तो जल्दी साफ करना है, कपड़े को तो जल्दी साफ करना है। मन का क्या? अरे, शरीर से भी ज्यादा महत्त्व मन का है भाई। शरीर मैला हो जाय, उसे साफ कर लें, यह अच्छी बात है। हजार साफ रखें फिर भी रोगी हो जायगा। मन को मैला रखा और रोगी हुआ तो शरीर भी रोगी हो जायगा । हजार बचाने की कोशिश करें नहीं बचा पाएंगे।

तो जड़ तो मन है न भाई, और इसे रोगी बनाए हुए हैं, इसे मैला बनाए हुए हैं, इसे साफ करने की हमारे मन में तड़प ही नहीं उठती। शरीर को साफ करने की बड़ी तड़प, शरीर को भोजन देने की बड़ी तड़प, लेकिन मन को साफ करने की तड़प ही नहीं। मन को भोजन देने की तड़प ही नहीं। छूट गया, बहुत आलस था इसलिए छूट गया । बहुत काम था इसलिए छूट गया।

कभी-कभी कोई बावला आकर यह भी कहता है, "क्या करें, किसी बात को लेकर बड़ा बेचैन हो गया तो साधना छूट गई।" अर्थात पहली बात जो छूटने की होती है वह साधना होती है क्योंकि और कुछ न छूटे, साधना भले छूट जाय। कोई बहाना चाहिए साधना छोड़ने का । बड़ा बेचैन हो गया। अरे तू बेचैन हो गया तो तुझे साधना और अधिक करनी चाहिए।

कोई बहुत बड़ी विपत्ति आ गई, शारीरिक विपत्ति आ गई, पारिवारिक विपत्ति आ गई, काम-धंधे की विपत्ति आ गई, पद-प्रतिष्ठा की विपत्ति आ गई, शक्ति-सामर्थ्य की विपत्ति आ गई; आ गई विपत्ति और बेचैन हो गया? अरे! यह ‘सब्ब सम्पत्ति साधकं' की जो साधना है उसकी तो तभी ज्यादा जरूरत है। यह जो विपत्ति आई न, और तू व्याकुल हुआ न, दुखियारा हुआ न, रोगी हुआ न, तभी तो तुझे औषधि की ज्यादा जरूरत है और कहता है साधना छोड़ दी। क्या करें, इतनी मुसीबत में पड़ गए।

किसको साधना याद आए, उस समय तो हम मुसीबत में पड़े थे, बहुत मुसीबत में पड़े थे इसलिए छूट गई। अब फिर शुरू करेंगे। अरे, जब जरूरत थी तब तो तूने छोड़ दिया, अब तू कैसे शुरू करेगा भाई? कैसे कायम रखेगा? होश जागना चाहिए- भारी विपत्ति आई है मुझ पर, तब तो धर्म के सिवाय दूसरा कोई सहारा ही नहीं। बाहरी जीवन में अपने उत्तरदायित्व को निभाने के लिए जो मेरे लिए करणीय है वह सब करूंगा। उससे मुँह मोड़ कर भागना नहीं सिखाती है विपश्यना।

पहले अपने मन को स्वस्थ तो करूं । अस्वस्थ चित्त से अपनी बाहर की जिम्मेदारियों को कैसे निभा पाऊंगा। इस विपत्ति की वजह से भीतर से मेरा मन इतना अस्थिर हो गया कि समझ में नहीं आया कि कैसे सामना कर पाऊंगा? मेरे सामने बहुत बड़ी समस्या का पहाड़ खड़ा हो गया, अब उस समस्या का समाधान कैसे निकाल पाऊंगा?

अरे, तेरा मन स्थिर नहीं है इसीलिए तो साधना बहुत जरूरी है भाई। ऐसे समय जब बहुत बड़ी विपत्ति आई हुई है, अनेकानेक काले-काले बादल जीवन में छाए हुए हैं। अरे ! ऐसे समय में तो एक घंटे नहीं, दो घंटे साधना करनी है, दो घंटे की जगह तीन घंटे साधना करनी है। अपने मानस को बलवान बनाना है। और फिर समझदारी के साथ साधना करने लगे तो देखोगे कितनी ही बड़ी विपत्ति क्यों न हो, कितनी ही बड़ी मुसीबत क्यों न हो, अरे, बड़ी आसानी से
समाधान निकलने लगा। रास्ता मिलने लगा।

बुद्धि के स्तर पर रास्ता समझ में आ जाय तो भी मन हमारा दुर्बल हो, अस्थिर हो तो हमें जो करना चाहिए बाहरी जीवन में नहीं कर पाते और जो बुद्धि के स्तर पर रास्ता मिला वह सही है या गलत, यह भी नहीं समझ सकते। लेकिन अगर साधना करोगे, चित्त को साधना द्वारा स्थिर कर लोगे, चित्त को साधना द्वारा जितना हो सके उतना निर्मल कर लोगे तब भीतर से जो समाधान आयेगा वह सही समाधान आयेगा।

जो निर्णय होगा वह सही निर्णय होगा। और उस निर्णय को क्रियान्वित करने के लिए बड़ा बल प्राप्त होगा। बड़ी आसानी से उसे पूरा कर पाओगे, क्योंकि मन बलवान हो गया। तो भाई औषधि की जरूरत तो तभी होती है जब हम बीमार होते हैं। और कोई यह कहे कि हमने तो औषधि इसलिए छोड़ दी क्योंकि मैं रोगी हो गया । बहुत बीमार हो गया इसलिए औषधि छोड़ दी, तो भाई नासमझी की बात हुई न !

इस नासमझी से जितनी जल्दी हो सके अपने आप को उतनी जल्दी बाहर निकालना चाहिए। कोई दूसरा निकालने नहीं आयेगा। खुद की ही समझ जगाते हुए कि भाई साधना क्यों कर रहे हैं? किसी गुरु महाराज को खुश करने के लिए नहीं कर रहे हैं। गुरु महाराज कहते हैं, सुबह-शाम यह साधना किया करो इसलिए करते हैं। अब गुरु महाराज की हम पर विशेष कृपा हो जायगी। हमारे सारे दुःख दूर हो जायेंगे, सारी मुसीबतें दूर हो जायेंगी, महाराज ऐसा कर देंगे।

या किसी देवी को, देवता को, ईश्वर को, ब्रह्म को खुश करने के लिए कर रहे हैं। और कर रहे हैं तो वे हमारे सारे संकट दूर कर देंगे। सारे दुःख दूर कर देंगे। अरे, तो भाई और कुछ समझा हो या न समझा हो, पर विपश्यना तो बिल्कुल ही नहीं समझा । जरा भी नहीं समझा।

इसलिए कह रहे हैं कि हमारी मुसीबतों में से हमें खुद ही निकलना होगा। संकटों का सामना हमें खुद ही करना होगा, कोई दूसरा सामना करने नहीं आयेगा। संकटों का सामना करने के लिए, संकटों से बाहर निकलने के लिए बुद्धि चाहिए, होश चाहिए, बल चाहिए। समझदारी भी और बल भी, इन दोनों को प्राप्त करने केलिए विपश्यना कर रहे हैं। ताकि चारों ओर जो अंधेरा छाया हुआ है, उसमें मुझे प्रकाश की किरण दिख जाय कि यह रास्ता है संकट के बाहर निकलने का।

अरे, जीवन में संकट तो आते ही रहेंगे, उतार-चढ़ाव, उतार- चढ़ाव आता ही रहेगा। किसके जीवन में सदा बसंत रहा। पतझड़ भी आता ही है। पतझड़ आए और हम ऐसे अंधकार में डूब जायँ जैसे हमें कोई रास्ता ही नहीं सूझता, तो क्या करें? विपश्यना करेंगे तो भीतर से उत्तर मिलेगा, भीतर से रास्ता मालूम होगा कि यह करना चाहिए। इस विपत्ति के समय मुझे और बल मिलेगा ऐसा करने के लिए।

बहुत आवश्यक है मुझे अपने आप को स्वस्थ और
सबल रखने के लिए, यानी रोज-रोज यह सुबह-शाम की साधना अनिवार्य है, ऐसा समझ में आ जायगा तो फिर छूटेगी नहीं, फिर तो छुटाए भी नहीं छूटेगी। अरे, सुबह के समय नहीं बैठ सके तो जिस समय बैठ सके उस समय बैठे। शाम को रोज वाले समय पर नहीं बैठ सके तो जिस समय बैठ सके, उस समय बैठे। पर बैठेंगे जरूर, यह नहीं हो सकता कि आज की सफाई छोड़ देंगे, सफाई तो करेंगे ही।

और एक कारण जो कभी-कभी कोई-कोई साधक आकर कहता है कि क्या करें, शिविर में आए तो ऐसी धाराप्रवाह की अनुभूति हुई, सिर से पांव तक, पांव से सिर तक बड़ा पुलक-रोमांच, बड़ा आनंद आया। घर में क्या हो गया—पुलक-रोमांच और धाराप्रवाह तो दूर, अरे, जब देखो पीड़ा ही पीड़ा, भारीपन एवं मूर्छा ही मूर्छा। 1 दिन करके देखा, 2 दिन, 10 दिन करके देखा । वह धाराप्रवाह नहीं मिला तो तूने साधना छोड़ दी?

अरे, छोड़ दिया तो सब कुछ खो दिया न । इस साधना का लक्ष्य यह नहीं है कि हम प्रतिक्षण धाराप्रवाह की अनुभूति करते चलें। अरे! नहीं भाई नहीं, साधना का लक्ष्य यह है कि जो कुछ अनुभव हो रहा है उसकी वजह से हम कोई प्रतिक्रिया नहीं करेंगे । तूने प्रतिक्रिया की न, शिविर में हजार समझाया, पर फिर भी शिविर में जो धाराप्रवाह मिला उसके प्रति तूने राग की प्रतिक्रिया की, आसक्ति जगाई। और यही वजह है कि अब तुझे धाराप्रवाह नहीं मिलता तो द्वेष की प्रतिक्रिया करता है। व्याकुल होता है। तो विपश्यना नहीं समझा न । जरा भी नहीं समझा।

अरे! हर अवस्था में समता रखेंगे, हर अवस्था में मन का संतुलन बनाए रखेंगे, तो विपश्यना कर रहे हैं। दुःखद अनुभूति आए तो घबराएंगे नहीं। उस दुःखद अनुभूति की भी विपश्यना ही करनी थी न । उसी को तटस्थ भाव से देखता, साक्षी भाव से देखता, द्रष्टा भाव से देखता और भोक्ता भाव छोड़ता तो विपश्यना होने लगती।

अरे! जिस दिन यह समझ में आ जाय कि संवेदना चाहे जैसी भी हो, विपश्यना यही सिखाती है कि जो कुछ हो रहा है उसे जानेंगे और जानकर समता में रहेंगे। हम कोई प्रतिक्रिया नहीं करेंगे। और यदि कर भी ली प्रतिक्रिया तो जल्दी से जल्दी होश में आ गए, समता में आ गए। अरे, संस्कार बने तो भी पानी की लकीर की तरह बने । बहुत हुआ तो बालू की लकीर बनी, मिट जायगी समय पाकर।

परंतु पत्थर की लकीर तो नहीं बनने देंगे। यह होश बना रहे कि हम पत्थर की लकीर तो बनने ही नहीं देंगे। ऐसा नहीं कि प्रतिक्रिया किए ही जा रहे हैं, किए ही जा रहे हैं। ऐसा किया तो पत्थर की लकीर बन ही जायगी, तो फिर विपश्यना नहीं की। जरा-सी भी नहीं की। विपश्यना की बात ही नहीं समझी, उलझ गए।

इसलिए समझदारी बहुत जरूरी है। विपश्यना क्या है? क्यों कर रहे हैं? जो व्यक्ति यह बात अच्छी तरह से हृदयंगम नहीं कर सका, नहीं समझ सका, वह तो उलझ ही जायगा कहीं न कहीं, छोड़ ही देगा। नया-नया साधक 1-2 शिविर लेने पर भी कभी-कभी कहता है कि हमारे कुछ परंपरागत पूजा-पाठ, व्रत-उपवास, भजन, कीर्तन : करने की प्रवृत्ति है या हमने और कोई कर्मकांड बांध रखे हैं वे तो छूटते नहीं। तो क्या दोनों साथ चलेंगे?

क्या करे बेचारा अबोध है न, अभी तक उसकी समझ में नहीं आया। तो कहते हैं- कुछ दिन चलेंगे भाई! चलाओ। कुछ समय का अंतर देकर यह भी कर लो। बड़ा उत्साह जागता है—चलो गुरुजी ने छूट दे दी दोनों करने की। । पर जब देखेगा कि आज तो काम बहुत ज्यादा है तो पहली बात : विपश्यना छोड़ेगा । बाकी करेगा, वह तो बहुत जरूरी है। विपश्यना ।
का क्या, किया तो ठीक, नहीं किया तो भी क्या । तो सबसे हल्का काम विपश्यना का लगेगा।

छोड़ दिया तो छोड़ दिया, क्या हुआ? आज का मुख्य काम पूजा-पाठ तो कर लिया न। फिर कोई आकर बावलेपन में कहता है कि सामायिक का तो हमने एक व्रत ले रखा है न। रोज 48 मिनट सामायिक में बैठते हैं। उस बेचारे के एक-दो शिविर क्या, किसी-किसी को 10 शिविर लेकर भी बात समझ में नहीं आई कि तू घंटे भर विपश्यना में बैठता है तो सामायिक ही करता है न, और क्या करता है!

आंख बंद करके 48 मिनट बैठ गया और भीतर ही भीतर कुछ गुनगुना लिया और देखता रहा कि 48 मिनट कब पूरा हो और समझता है सामायिक कर रहा हूं। अरे! क्या सामायिक किया? भारत की क्या सामायिक होती थी? अंतर्मन की गहराइयों में जाकर समता कैसे स्थापित करें? उसको सामायिक कहते थे। यही तो कर रहे हो न। अंतर्मन की गहराइयों में पहुंच रहे हो विपश्यना करके और समता में स्थित रहने का अभ्यास कर रहे हो ।

अरे, जो सही सामायिक है वह तो भले ही छूट जाय, पर जो कर्मकांड वाली बन गई है वह न छूट जाय । वह छूट गई तो धर्म छूट गया हमारा । बात नहीं समझ में आयी। कोई आकर कहता है कि हमारा कायोत्सर्ग न छूट जाय। बात नहीं समझ में आई बेचारे को । क्या कायोत्सर्ग करता है रे? महापुरुषों ने क्या कायोत्सर्ग सिखाया? यह काया के प्रति जो आसक्ति हो गई, काया के प्रति इतना गहरा चिपकाव हो गया, "मैं" "मेरा" "मैं" "मेरा" का भाव हो गया, वह कैसे छूटे? उसको उत्सर्ग करना है।
क्रमशः......

विपश्यना पत्रिका संग्रह 06, 2021
विपश्यना विशोधन विन्यास ॥

भवतु सब्ब मंङ्गलं !!


Premsagar Gavali

This is Premsagar Gavali working as a cyber lawyer in Pune. Mob. 7710932406

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