'प्राणायाम' तथा 'आनापान'




जिस प्रकार योग के अन्य लेखकों ने 'आसनों' के बारे में बहुत कुछ लिखा है, उसी प्रकार ‘प्राणायाम' के बारे में भी लिखा है जो कि पतंजलि के आशय से सर्वथा मेल नहीं खाता ।
(बुद्ध के समान) पतंजलि ने भी यह अनुभव कर लिया था कि श्वास-प्रश्वास का चित्त से गहरा संबंध होता है और इसी कारण उत्तेजना, क्रोध, व्याकुलता, आदि होने पर श्वास की गति तेज और अनियमित हो जाती है। ऐसी स्थिति में अशांत चित्त को स्थिर और शांत बनाने के लिए पतंजलि ने प्राणायाम के अभ्यास का विधान किया था। पतंजलि ने प्राणायाम के संबंध में केवल यह व्याख्या (परिभाषा) प्रस्तुत की थी कि यह श्वास और प्रश्वास की गतियों में एक विच्छेद की स्थिति है ('श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः')।
इस संबंध में उन्होंने यह विधान किया कि श्वास की बाहरी, भीतरी और थम जाने की स्थिति को एक सीमित क्षेत्र ('देश') में, 'काल' में, फैलाव ('संख्या')' के रूप में अनुभव किया जाना चाहिए। ऐसा करने पर दीर्घ (लंबा) श्वास सूक्ष्म (ओछा) होने लगता है ('दीर्घसूक्ष्मः')'। इसके उपरांत प्राणायाम की चतुर्थ अवस्था प्राप्त होती है जिसमें बाहरी और भीतरी सांस की प्रक्रिया समाप्तप्राय हो जाती है और
ऐसा लगता है मानो सांस पूरी तरह से रुक गया हो - इसे योग में 'स्वतः कुम्भक' की अवस्था कहते हैं ।
योगसूत्र में इस बात का कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता है कि पतंजलि ने बलपूर्वक सांस रोकने के लिए कहा हो, जैसा कि आजकल 'पातंजल योग' के नाम पर ऐसा किया जाता है। यह वास्तव में 'हठयोग” की क्रिया है जिसका ‘पातंजल योग' से कोई संबंध नहीं है।
पतंजलि के लिए तो ‘प्राणायाम’ प्राण का आयाम (प्रसार) मात्र ('प्राण-आयाम') है जब कि वह भीतर जाता है अथवा बाहर आता है। इसका प्रवाह हमें इसकी तीनों अवस्थाओं का बोध कराता है - बाहरी, भीतरी तथा थम जाने की। जब दीर्घ श्वास शनैः शनैः सूक्ष्म ('दीर्घ-सूक्ष्म:') हो जाता है तब इन तीनों अवस्थाओं का समग्रता से बोध होने लगता है ('परि-दृष्ट:') ।
जब यह प्रक्रिया निर्बाध गति से चलती रहती है और श्वास अत्यंत सूक्ष्म हो जाता है, तब प्राणायाम की चतुर्थ अवस्था अनुभूति पर उतरती है जिसमें बाहरी या भीतरी श्वसनक्रिया पूर्णतया गतिरहित हो जाती है।
इस संदर्भ में योगसूत्र बुद्ध की शिक्षा के काफी निकट है। बुद्ध ने भी नैसर्गिक श्वास के प्रवाह में किसी प्रकार के हस्ताक्षेप का समर्थन नहीं किया है। बुद्ध केवल श्वसन की नैसर्गिक प्रक्रिया के प्रति सजग बने रहने की अनुशंसा करते हैं जिसके परिणामस्वरूप लंबा श्वास, शनैः शनैः, ओछे-से-ओछा होकर उस अवस्था को प्राप्त हो जाता है जहां साधक को भिन्न-भिन्न अवधि के लिए 'कुंभक' का स्वतः ही अनुभव होने लगता है।
कुंभक की यह अवस्था नैसर्गिक रूप से एवं स्वतः ही प्राप्त होती है और इसमें श्वास को बलपूर्वक रोकने का कोई भी प्रयास नहीं किया जाता है जैसा कि 'हठयोग' में विधान है।
बुद्ध द्वारा अनुशंसित 'आनापानस्सति' (श्वास-प्रश्वास के प्रति जागरूगता) का अभ्यास चित्त की एकाग्रता और चारों प्रकार के ध्यान ('झान') प्राप्त करने के लिए एक अत्यावश्यक उपक्रम है। इसका विशद वर्णन पालि ग्रंथ 'पटिसम्भिदामग्गो' में 'आनापानस्सतिकथा' शीर्षक के अंतर्गत किया गया है। इसमें बतलाया गया है कि साधक दीर्घ श्वास अपने भीतर लेता है जो इसके फैलाव से मालूम पड़ता है ('अद्धान-सङ्घाते')।
ऐसे ही वह दीर्घ श्वास बाहर लेता है जो फैलाव से विदित होता है। वह दीर्घ श्वास भीतर लेता है और बाहर भी जो इनके फैलाव से मालूम होता रहता है। इससे ‘छन्द' (उत्साह) जागता है और पहले से ओछा होता जाता है।
ऐसा अभ्यास जारी रखने से प्रमोद ('पामोज्ज') जागता है और श्वास और अधिक सूक्ष्म हो जाता है। इस प्रक्रिया को जारी रखने से चित्त लंबे श्वासों-प्रश्वासों से किनारा कर लेता है और उपेक्षा ('उपेक्खा') स्थापित होने लगती है। आश्वास-प्रश्वास ओछे होने पर इन्हें संक्षिप्तता (इत्तर-सङ्खाते) से जाना जाता है।
इसमें भी प्रक्रिया जारी रखने से, क्रमशः, होते हैं - उत्साह, प्रमोद - और चित्त के ओछे आश्वास-प्रश्वास से किनारा कर लेने पर स्थापित होती है - उपेक्षा' । 'अद्धान-सङ्खाते' और 'इत्तर-सङ्खाते' - इन दो शब्दों का प्रयोग जो सांस के फैलाव की ओर संकेत करता है (चाहे विस्तार को लेकर या संक्षेप को लेकर) अत्यंत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इनसे पतंजलि के योगसूत्र (2.50) में प्रयुक्त हुए 'सङ्ख्या' शब्द का
वास्तविक आशय प्रकट होता है।
पुस्तक: पातंजल योगसूत्र ।
विपश्यना विशोधन विन्यास ॥
सांभार : Rahul Sahare

Premsagar Gavali

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